बुरे को अच्छा बनाने की कारपोरेट कला

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

हमें बार-बार यही बताया जा रहा है कि हम पूंजीवाद का समर्थन करें। हमें सहनशील बनने की सीखें प्रदान की जा रही हैं। हमें कहा जा रहा है कि हम तटस्थ रहें, विवादों, संघर्षों, मांगों के लिए होने वाले सामूहिक संघर्षों से दूर रहें, सामूहिक संघर्ष बुरे होते हैं। आम आदमी को तकलीफ देते हैं। जो लोग समाज में तटस्थता का अहर्निश प्रचार कर रहे हैं, वस्तुतः पूंजीवाद से तटस्थता का प्रचार कर रहे हैं। मीडिया में जनसंघर्षों और मानवाधिकार हनन का वि्कृत प्रचार मूलतः पूंजीवाद की ही सेवा है। यह पूंजीवादी समाज के अन्यायपूर्ण चेहरे को ढंकने की कोशिश है।

पूंजीवाद ने हमारे सामाजिक जीवन को किस तरह हजम कर लिया है उसका साक्षात प्रमाण है भीषण गर्मी का प्रकोप। अंधाधुंध, विषम और अनियोजित पूंजीवादी विकास के कारण पर्यावरण संतुलन गड़बड़ा गया है। इस क्रम में हम गर्मी झेल रहे हैं लेकिन पूंजीवाद के बारे में हम कोई भी चर्चा नहीं कर रहे। बल्कि मीडिया निर्मित नजारे की संस्कृति ने मौसम को पूंजीवाद निरपेक्ष और भगवान की कृपा बना दिया है। गर्मी की भीषण तबाही हमारे अंदर किसी भी किस्म की सामाजिक बेचैनी पैदा नहीं कर रही है। पूंजीवादी प्रचार का ही प्रभाव है कि मौसम में आए बदलाव हमें पूंजीवादरहित होकर नजर आ रहे हैं।

माओवादियों की खूंखार हरकतें गरीबी की देन नजर आ रही हैं। माओवाद के खिलाफ कुछ लोग यह तर्क दे रहे हैं कि हमें उनके खिलाफ राजनीतिक जंग लड़नी चाहिए। उन्हें जनता में अलग-थलग करना चाहिए। हमें उनके खिलाफ जनता को गोलबंद करना चाहिए। सवाल किया जाना चाहिए कि पूंजीवादी प्रचार माध्यम विगत 60 सालों से क्या कर रहे थे? पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा 35 सालों से क्या कर रहा था? माओवादियों को राजनीतिक तौर पर परास्त क्यों नहीं कर पाया? कांग्रेस और माओवाद का हल्ला करने वाला कारपोरेट मीडिया माओवादियों के प्रति आम जनता में घृणा पैदा क्यों नहीं कर पाया? क्या यह संभव है कि जब माओवादी हिंसा कर रहे हों ऐसे में जनता में राजनीतिक प्रचार किया जा सकता है? क्या माओवाद का विकल्प जनता को समझाया जा सकता है? राजनीतिक प्रचार के लिए शांति का माहौल प्राथमिक शर्त है और माओवादी

अपने एक्शन से शांति के वातावरण को ही निशाना बनाते हैं, सामान्य वातावरण को ही निशाना बनाते हैं, वे जिस वातावरण की सृष्टि करते हैं उसमें राज्य मशीनरी के सख्त हस्तक्षेप के बिना कोई और विकल्प संभव नहीं है। राज्य की मशीनरी ही माओवादी अथना आतंकी हिंसा का दमन कर सकती है।

दूसरी बात यह है कि जब एक बार शांति का वातावरण नष्ट हो जाता है तो उसे दुरूस्त करने में बड़ा समय लगता है। माओवादी और उनके समर्थक बुद्धिजीवी माओवादियों की शांति का वातावरण नष्ट कर देने वाली हरकतों से ध्यान हटाने के लिए पुलिस दमन, आदिवासी उत्पीड़न, आदिवासियों का आर्थिक-सामाजिक पिछड़ापन, बहुराष्ट्रीय निगमों के हाथों आदिवासियों की प्राकृतिक भौतिक संपदा को राज्य के द्वारा बेचे जाने, आदिवासियों के विस्थापन आदि को बहाने के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।

माओवादी राजनीति या आतंकी राजनीति का सबसे बड़ा योगदान है सामान्य राजनीतिक वातावरण का विनाश। वे जहां पर भी जाते हैं सामान्य वातावरण को बुनियादी तौर पर नष्ट करते हैं। शांति के वातावरण को नष्ट करते हैं। शांति का वातावरण नष्ट करके वे भय और निष्क्रियता की सृष्टि करते हैं। इसके आधार पर वे यह दावा पेश करते हैं कि उनके साथ जनता है। सच यह है कि आदिवासी बहुल इलाकों से कांग्रेस, माकपा, भाजपा आदि दलों के लोग चुनाव के जरिए विशाल बहुमत के आधार पर चुनकर आते रहे हैं। चुनावी राजनीति पर माओवादियों के प्रभाव वाले इलाकों में उनकी चुनाव बहिष्कार की अपील का कोई असर नहीं पड़ता।

मीडिया के प्रचार ने कारपोरेट पूंजी निवेश का जिस तरह पारायण किया गया है और परम पवित्र बनाया है और इसके विध्वांसत्मक आयाम पर जिस तरह पर्दादारी की है, उसे गायब किया है, उससे दर्शकीय नजरिया बनाने में मदद मिली है। प्रचार के जरिए हर चीज का जबाब बाजार में खोजा जा रहा है, हमसे सिर्फ देखने और भोग करने की अपील की जा रही है।

बाजार, पूंजी निवेश, परवर्ती पूंजीवाद को वस्तुगत बनाने के चक्कर में मीडिया यह भूल ही गया कि वह जनता को सूचना संपन्न नहीं सूचना विपन्न बना रहा है। हमसे यह छिपा गया है कि पूंजीवाद आखिरकार किन परिस्थितियों में काम करता है।

नव्य उदारतावाद और साम्राज्यवाद के विरोध को अध अमेरिकी विरोध की बृहत्तर कैटेगरी में बांध दिया गया है। जबकि सच यह है कि साम्राज्यवाद के विरोध का अर्थ अंध अमेरिकी विरोध नहीं है।

कारपोरेट मीडिया में पूंजीवाद की आलोचना का लोप हो गया है। पहले संस्कृति में असन्तोष अथवा अस्वाभाविकता को महसूस करते थे, सामयिक परिवर्तन यह है कि असन्तोष और अस्वाभाविकता संस्कृति से प्रकृति की ओर स्थानान्तरित हो गया है। पहले प्रकृति नेचुरल थी आज प्रकृति भी नेचुरल नहीं रह गयी है।

3 COMMENTS

  1. Very realistic article about social conditions and politics of extremism which damage movement of social change.At the same time history proves that with the capitalist mode of production socialism can’t survive neither any movement for social change without alternative mode of production and free market dependent economy.Isolation of mainstream left is due to failure of providing alternative to capitalist mode of production.

  2. सत्य कहा आपने ;अब तो इस पतनशील अधोगामी व्यवस्था को पूंजीवादी
    व्यवस्था कहने में हिचक होने लगी है ;इस व्यवस्था के गर्भ से समाजवाद या साम्यवाद का जन्म होगा ये तो अब कहना मुश्किल है ;किन्तु प्रतिगामी पैशाचिक
    व्यवस्थाएं को साइंस ने इतना ताकतवर बना दिया है की .सर्वहारा के तमाम अहिंसक संघर्ष रुपी अश्त्र लगभग भोंथरे हो चुके हैं .बची खुची कसर जात धरम और भाषा के अंतर्विरोधों ने पूरी करदी है .
    आपके माओवादियों विषयक स्थापना में यही कह सकता हूँ की उनकी पैदाइश का कारण यही वीभत्स पूंजीवादी सामंती शोषण की आर्थिक -राजनेतिक -सामजिक दुरावस्था है ;कभी -कभी डरता हूँ की हिंसक क्रांति का विचार ही इस देश की निर्धन जनता का तारणहार न वन जाए .

  3. Perhaps the article of learned Jagdishwar Churvediji attempts to convey that capitalism is responsible for all ills from global warming to Maoism and that there is no political agenda from Congress Party to Marxists to remove the ills.
    Is there an alternative program – let us consult Swamis from Arya Samaj – Agnivesh and Ram Dev?
    भगवन भला करें – येही प्रार्थना है .

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