बनारसी गुरु और बांसुरी : जिनका सिर्फ इतना परिचय ही काफी है

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अनिल अनूप
अगर कोई आपसे कहे कि रन-मशीन को एक शब्द में परिभाषित करें तो आप तुरंत कहेंगे सचिन तेंडुलकर। ऐसे ही अगर कोई कहे सुरों की देवी तो आप कहेंगे लता मंगेशकर, कोई कहे सदी के महानायक तो आप कहेंगे अमिताभ बच्चन। किस्सागोई में आज एक ऐसे कलाकार की कहानी जिसे प्यार से बनारसी गुरु कहा जाता है।
इसी नाम से इस कलाकार के जीवन पर कुछ साल पहले एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी बन चुकी है। आप कुछ सेकंड के लिए अंदाजा लगाइए कि ये बनारसी गुरु कौन हैं हालांकि इस बात का अंदाजा लगाने में आपको कुछ सेकंड ही लगेंगे। चलिए आपको एक संकेत देते हैं, अगर कोई आपसे कहे बांसुरी तो आप क्या कहेंगे? आपका जवाब होगा- पंडित हरिप्रसाद चौरसिया। बांसुरी और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया एक-दूसरे से अलग नहीं हैं यानी हरिप्रसाद चौरसिया को आप बांसुरी कह लें या बांसुरी को हरिप्रसाद चौरसिया, बात एक ही है।
दोनों की पहचान एक-दूसरे से है। एक जुलाई को इन्हीं बनारसी गुरु का जन्मदिन होता है। आज किस्सागोई में बात करेंगे पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की और सुनाएंगे उनकी जिंदगी के दिलचस्प किस्से। बनारसी गुरु को बांसुरी से बहुत प्यार है। इतना प्यार की इसी बांसुरी के लिए कई बार पिटाई भी हुई। पिता जी कुछ और बनाना चाहते थे लेकिन बेटे के हाथ से बांसुरी छूट ही नहीं रही थी तो पिटाई होना स्वाभाविक है। पिटाई करना पिता की आदत में शुमार था। पटखनी देना उनका शौक था और काम भी।दरअसल, पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के पिता पहलवान थे। संगीत से दूर-दूर तक उनका कोई रिश्ता नहीं था बल्कि बहुत हद तक कहा जाए तो उन्हें संगीत से चिढ़ थी। पिता जी को लगता था कि संगीत या तो राजदरबार में गाया बजाया जाता है या फिर सड़क पर गा-बजाकर पैसे मांगे जाते हैं।जाहिर है ऐसी सोच वाले व्यक्ति के घर में संगीत की बात करना भी अपराध जैसा ही था। उस पर से हरि की मां बचपने में ही गुजर गई। फिर तो घर में और भी कोई नहीं था जो अगर पिता जी को गुस्सा आ गया तो उनसे बचा सके। ऐसे में हरिप्रसाद चौरसिया के कदम चोरी के रास्ते पर बढ़ गए। चोरी यानि पिता जी को बताए बिना संगीत सीखना।एक बड़ी मुसीबत और भी थी। पिता जी चाहते थे कि उन्हीं की तरह उनका बेटा भी पहलवानी के दांवपेंच सीखे। बेटे में इतनी हिम्मत थी नहीं कि पिता जी को मना किया जाए। कभी-कभार अखाड़े जाना पड़ता था। दांव लगाने पड़ते थे। पटखनी खानी पड़ती थी। इसकी वजह ये थी कि मन तो कहीं और लगा रहता था तो अखाड़े में ध्यान कहा से लगे। वैसे ये भी हो सकता है कि ये हरिप्रसाद जी की बचपने की बदमाशी रही हो मतलब अगर अखाड़े में लगातार पटखनी खाते पिता जी देखेंगे तो कम से कम पहलवानी तो नहीं सीखनी पड़ेगी।हां, जो खुद सीखना था उसका जुगाड़ पिता से चोरी छुपे कर लिया गया था। हरिप्रसाद अपने दोस्त के घर संगीत सीखते थे। जब हरिप्रसाद करीब नौ साल के थे तो उन्होंने अपने पड़ोसी पंडित राजाराम से गायन सीखना शुरू किया था। पंडित राजाराम जी को भी हाथ जोड़कर-मिन्नत करके ये गुजारिश कर ली गई थी कि इस राज को राज ही रहने दिया जाए। अगले छह-सात साल तक ये सिलसिला चलता रहा।15 साल की उम्र में हरि प्रसाद चौरसिया ने पहली बार रेडियो पर बांसुरी वादन सुना। फिर वो पंडित भोलानाथ प्रसन्ना से बांसुरी सीखने लगे। भोलानाथ जी बनारस में रहते थे। आठ साल हरि प्रसाद चौरसिया वहां रहे। भोलानाथ जी शादी-शुदा नहीं थे। उनके लिए अच्छा था कि एक शिष्य मिल गया जो खाना बनाने में हाथ बंटा दिया करता था। हरिप्रसाद सब्जी काटने और मसाला पीसने जैसे काम कर दिया करते थे। अब तक संगीत की कहानी राज ही थी। मुसीबत उस रोज हुई जब एक दिन हरिप्रसाद चौरसिया घर पर बांसुरी बजा रहे थे। रियाज कर रहे होंगे शायद, पिता जी ने सुन लिया। एक जोर की आवाज लगाकर पेशी हुई, कुछ बहाना नहीं सूझा। 15 साल की उम्र में झूठ भी बोला तो ऐसा कि दांव उलटा पड़ गया। हुआ यूं कि पंडित जी ने पिता जी से कहाकि वो तो सीटी बजा रहे थे। सीटी बजाना पिता की नजर में और बड़ा गुनाह था। हरि प्रसाद की बुरी तरह पिटाई हुई।इस पिटाई के बाद पिता को समझ में तो आ गया कि दाल में कुछ काला है, लेकिन पूरी दाल ही काली है ये अंदाजा वो तब भी नहीं लगा पाए। इसके कुछ ही समय बाद हरिप्रसाद चौरसिया को सरकारी नौकरी मिल गई। उस वक्त तक देश आजाद हो चुका था। खुली हवा में सांस लेने की आजादी थी। पिता को लगा कि हरिप्रसाद के जीवन को सही दिशा मिल गई है लेकिन जल्दी ही उनका ये ख्याल चकनाचूर हो गया। हुआ यूं कि एक रोज कटक रेडियो से स्टाफ आर्टिस्ट बनने का प्रस्ताव हरिप्रसाद के हाथ में था।कहते हैं कि वो पहला दिन था जब पिता को समझ आया कि उनकी पीठ पीछे बेटे ने किससे मोहब्बत कर ली है। संगीत से मोहब्बत। पिता अड़ गए, पहला झटका कि चोरी से संगीत सीखा, दूसरा कि अब सरकारी नौकरी छोड़कर संगीत से कमाई का ख्याल और तीसरा इस बात का झटका कि बच्चा छोड़कर चला जाएगा। हरिप्रसाद जी के पिता ने उनकी मां की मौत के बाद सिर्फ इसलिए शादी नहीं की थी कि वो अपने बच्चों की परवरिश में कोई अड़चन नहीं चाहते थे। इन सारी बातों के बाद भी हरिप्रसाद ने अपनी मोहब्बत को चुना और संगीत के रास्ते पर मजबूत इरादों के साथ कदम बढ़ा दिए।
हरिप्रसाद चौरसिया 1957 में आकाशवाणी से जुड़े और कटक चले गए। वहां धीरे-धीरे उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी। लोग उनकी बांसुरी के दीवाने होते चले गए। फिर कुछ ऐसा हुआ कि हरिप्रसाद चौरसिया का तबादला कर दिया गया। तकदीर में अभी कुछ दिलचस्प कहानियां लिखी थीं। हरिप्रसाद चौरसिया मुंबई पहुंचे तो वहां उनकी बांसुरी की धुन जाने-माने फिल्म संगीतकार मदन मोहन और रोशन साहब तक पहुंच गई। उन्होंने हरिप्रसाद चौरसिया से फिल्मी गीतों में बांसुरी बजवाना शुरू कर दिया। ये अलग बात है कि हरिप्रसाद चौरसिया का मन मुंबई में नहीं लग रहा था। फिर भी पैसों की बदौलत वो मुंबई में बने रहे। इसके बाद रेडियो से हरिप्रसाद चौरसिया का रिश्ता लगभग टूट सा गया।अभी एक दिलचस्प किस्सा और होना बाकी था। दरअसल मुंबई में रहते-रहते हरिप्रसाद चौरसिया को अन्नपूर्णा देवी से सीखने की चाहत हुई। अन्नपूर्णा देवी बाबा अलाउद्दीन खां की बेटी थीं। इसके अलावा पंडित रवि शंकर की पत्नी के तौर पर उनका एक और परिचय है। इसके चाहत के पीछे की कहानी भी आपको सुनाते हैं। दरअसल, बचपन में कभी ऐसा हुआ था कि अलाउद्दीन खां ने हरिप्रसाद को इलाहाबाद में बांसुरी बजाते सुना था। हरिप्रसाद जी का जन्म इलाहाबाद में ही हुआ था। बाबा अलाउद्दीन बांसुरी सुन कर खुश हो गए, उन्होंने कहा कि मैहर आ जाओ, मैं तुम्हें सिखाऊंगा। हरिप्रसाद जी के लिए उससे बड़ा दिन नहीं हो सकता था लेकिन हामी भरने से पहले पहलवान पिता का चेहरा आंख के सामने घूम गया। नतीजा उन्होंने पिता जी के डर से मना कर दिया। इस पर बाबा अलाउद्दीन खां ने कहा कि घर छोड़कर आना चाहो तो भी आ जाओ। मैं तुम्हारा पूरा ध्यान रखूंगा। अगर अभी नहीं आ सकते, बाद में आना चाहो, तो मेरे मरने के बाद भी मेरी बेटी से सीख सकते हो। ये बात हरि प्रसाद चौरसिया के दिमाग में थी।अन्नपूर्णा जी सुरबहार बजाती थीं। परेशानी ये थी कि फिल्मी संगीतकारों के लिए उनके दिमाग मे अच्छी इमेज नहीं थी। हरि प्रसाद चौरसिया उनके पास सीखने पहुंचे, तो उन्होंने मना कर दिया। घर से निकाल दिया। हरि प्रसाद दोबारा पहुंचे, तो पुलिस बुलाने की धमकी दी। तीन साल कोशिश के बाद वो तैयार हुईं। उन्होंने हरि प्रसाद से कुछ बजाकर सुनाने को कहा। उन्होंने कहा कि सीखना है तो जीरो से शुरू करना पड़ेगा। उन्हें अपनी गंभीरता साबित करने के लिए हरि प्रसाद चौरसिया ने दाएं के बजाय बाएं हाथ से बजाना शुरू किया। उसके बाद मानो हरि प्रसाद चौरसिया की जिंदगी बदल गई। अन्नपूर्णा जी उनके लिए गुरु ही नहीं, मां जैसी बन गई थीं। ये तो हम जानते ही हैं कि शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ पंडित हरि प्रसाद चौरसिया ने फिल्मों में भी संगीत दिया है। संतूर वादक पंडित शिव कुमार शर्मा के साथ शिव-हरि के नाम से उनकी जोड़ी थी। यश चोपड़ा की तमाम फिल्मों का संगीत शिव-हरि का ही है, चाहे वो सिलसिला हो, चांदनी हो या लम्हे। पंडित जी के करोड़ों चाहने वालों के लिए दिलचस्प बात ये है कि अब वो ये मानते हैं कि बचपन में थोड़ी बहुत सी सही लेकिन जो कुश्ती उन्होंने सीखी शायद उसी का असर है कि 80 बरस की उम्र में भी वो पूरी दुनिया में घूम-घूमकर कार्यक्रम करते रहते हैं।

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