“क्या हमारे प्रचारकों का जीवन ऋषि दयानन्द व स्वामी श्रद्धानन्द आदि के समान हैं”

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मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

                आर्यसमाज का उद्देश्य वेदों के सिद्धान्तों, मान्यताओं व विचारधारा का जन-जन में प्रचार करना है। यह कार्य आर्यसमाज के अनुयायी व इसके विद्वान आर्यसमाज की स्थापना के समय से करते चले आ रहे हैं। आर्यसमाज का विस्तार हुआ इसमें तो किसी को भी शंका नहीं है परन्तु जितना कार्य हो सकता था व करना चाहिये था, वह नहीं हो सका। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। एक कारण यह भी है कि प्रचारक का जीवन उन सिद्धान्तों के सर्वथा अनुकूल होना चाहिये जिसका कि वह प्रचार करते हैं। महर्षि दयानन्द व स्वामी श्रद्धानन्द सहित पं. लेखराम जी, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज जी आदि के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं इन सब ऋषि भक्तों का जीवन प्रायः ऋषि दयानन्द जी के जीवन आदर्शों के समान था और यह सब वैदिक धर्म के सभी सिद्धान्तों को पूर्णतया अपने जीवन में ढाले हुए थे।

क्या हमारे आज के सभी प्रचारकों का जीवन भी ऐसा है?

यदि है तो यह प्रसन्नता की बाद है और यदि नहीं है तो यह कहना होगा कि प्रचारकों का जीवन इसके आदर्श नेताओं के जीवन के अनुरुप होना चाहिये। हमें लगता है कि प्रचार दो प्रकार का होता है। प्रथम उपदेशों द्वारा मौखिक प्रचार वेदों की मान्यताओं व विचारधारा का शाब्दिक प्रचार कहा जा सकता है जो कि आर्यसमाज अपने जन्मकाल से कर रहा है और दूसरा प्रचारकों का अपना जीवन सर्वथा वेद की मान्यताओं एवं सिद्धान्तों के अनुकूल जैसा कि ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश व अन्य ग्रन्थों में लिखा है, उसके सर्वथा अनुरूप ढालकर ही हो सकता है। इस दूसरे पक्ष में कुछ कमी प्रतीत होती है। इसी कारण हमारा जितना प्रचार होना चाहिये था, वह नहीं हो पाया व हो पा रहा है। हमारे कुछ प्रचारक इसके अपवाद हो सकते हैं। महात्मा आनन्द स्वामी सरस्वती, महात्मा प्रभु आश्रित जी तथा महात्मा दयानन्द वानप्रस्थी जी आदि के जीवन पर जब दृष्टि डालते हैंं तो हमें लगता है कि इन विद्वान सन्तों का जीवन भी वैदिक सिद्धान्तों के अनुकूल व अनुरूप था।

                आरम्भ के वर्षों में अविभाजित पंजाब में आर्यसमाज का प्रचार गहन एवं प्रभावशाली था। आर्यसमाज के लोगों को महाशय जी कहा जाता था। महाशय का अर्थ है कि जिनका आशय महान हो। महाशय नाम के अनुरुप ही पुराने आर्यसमाजियों का जीवन भी होता था। हमारे सामने दो तीन घटनायें हैं जिन्हें हम प्रस्तुत कर रहे हैं। पहली घटना पं. लोकनाथ तर्कवाचस्पति जी के जीवन की है। एक बार पंडित जी पंजाब के किसी स्थान पर उत्सव में प्रवचन के लिये पधारे थे। प्रातः काल के समय वह गांव के एक कुंवे पर अपने वस्त्र आदि धोने व स्नान करने पहुंचे थे। तभी वहां से एक व्यक्ति गुजरा। उसके पास एक गठरी व पोटली थी। वह कुछ आगे गया और पंडित जी के पास लौट कर आया और बोला, आपको यहां लगभग एक घंटा तो लगेगा ही? पंडित जी के हां कहने पर उसने अपनी गठरी उन्हें सौंप दी और कहा कि वह एक घंटे में पास के गांव से लौट आयेगा। पंडित जी ने उसे उसकी गठरी को पास के एक कुछ ऊंचे स्थान पर रखने को कहा और हिदायत दी कि हर हाल में एक घंटे में लौट आना। वह व्यक्ति 1 घंटे के कुछ समय बाद दौड़ता हुआ आया। पंडित जी उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। दोनों में वार्तालाप हुआ। उस ग्रामीण व्यक्ति ने पंडित जी से क्षमा मांगी। पंडित जी ने उसे अपनी गठरी ले जाने को कहा और पूछा कि देर क्यों हुई और गठरी मेंऐसा क्या है जो आप साथ नहीं ले गये और यहां मेरे पास छोड़ गये जबकि हम दोनों एक दूसरे को जानते भी नहीं है? उस व्यक्ति ने बताया कि वह अपनी लड़की की ससुराल जा रहा था। वहां झगड़ा चल रहा है। इस गठरी में सोने चांदी के उसके जेवर है। वह पास के गांव का प्रधान है। यह घटना हमें पथिक जी ने बताई थी। वह सोना वर्तमान के 1 किलोग्राम से अधिक था। उसने बताया कि मुझे संदेह हुआ कि यह धन देने के बावजूद भी गांव वाले मेरी लड़की को मेरे साथ भेंजेंगे नहीं। इसलिये मैंने यह सामान आपके संरक्षण में छोड़ दिया था। यदि बात बनती तो वह यह सामान लेकर उन्हें दे आता। पंडित जी ने उससे पूछा कि उसने उन पर विश्वास कैसे कर लिया जबकि वह तो उन्हें जानता नहीं है।

इसका उत्तर उसने यह दिया कि आपकी वेशभूषा आदि से आप आर्य या महाशय लगते हैं। महाशय व आर्य कभी झूठ नहीं बोलते और इनका जीवन सत्य पर स्थिर रहता है। इसलिये उसे पूरा विश्वास था कि मेरी सम्पत्ति आपके पास पूर्ण सुरक्षित है।

ऐसा जीवन होता था आर्य समाज के प्रचारक व सदस्यों का। लोग उन पर विश्वास करते थे। आज यह बात नहीं है। पंडित सत्यपाल पथिक जी ने एक और घटना सुनाई थी जिसमें एक आर्य पुत्र ने अपने पिता के झूठे व्यवहार के कारण सत्य को स्वीकार किया और एक साहूकार का धन स्वयं ब्याज सहित चुकाने के लिये तैयार हो गया। इस घटना को हम लगभग एक वर्ष पूर्व एक लेख के माध्यम से प्रस्तुत कर चुके हैं। आर्यों का यही व्यवहार जनता में आर्यसमाज का प्रचार करता था। हमारे प्रचारक जो कह देते थे, लोग उसे पूर्ण रूप में स्वीकार करते थे।

                पंडित सत्यपाल पथिक जी ने ही हमें एक घटना इस वर्ष अक्टूबर में सुनाई जो आर्यसमाज के विद्वान पं. चमूपति जी के जीवन की है। इस घटना में एकबार पडित चमूपति जी अपनी पत्नी और पुत्र के साथ रेल की यात्रा कर रहे थे। टीटी आया। पंडित जी ने उसे अपने दो टिकट दिखाये। टीटी ने पुत्र की आयु पूछी तो पंडित जी ने जन्म तिथि के अनुसार हिसाब लगाया और कहा कि आज इसका जन्म दिन है और उसे पांच वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। टीटी ने कहा कि छठे वर्ष में बच्चे का आधा टिकट लगता है। यह सुनकर पंडित चमूपति जी ने टीटी से अपनी भूल की क्षमा मांगी और टीटी से बच्चे का टिकट बनाने और दण्ड वसूल करने के लिये स्वयं को प्रस्तुत किया। टीटी सज्जन था, उसने कहा कि कोई बात नहीं, ऐसा हो जाता है। न दण्ड की आवश्यकता है न टिकट की। आपसे कोई रेलवे अधिकारी पूछे तो कह दें कि यह अभी पांच साल का है। पंडित चमूपति जी नहीं माने और टीटी को टिकट बनाने और दण्ड वसूल करने का आग्रह किया। टीटी ने उनके आग्रह के अनुसार किया। पूछने पर पंडित जी ने कहा कि मैं आर्यसमाज का उपदेशक हूं। टीटी ने पंडित जी के व्यवहार से प्रभावित होकर उनके पैर छूये और वह आर्यसमाजी बन गया।

                स्वामी अमर स्वामी जी के जीवन की भी ऐसी ही एक घटना है। एक बार वह राजस्थान के किसी आर्यसमाज के उत्सव से प्रचार करके अपने साहित्य के साथ लौट रहे थे। कुछ साहित्य और एक व्यक्ति उनके साथ था। टीटी आया और टिकट दिखाने को कहा। अमर स्वामी जी ने जेब में हाथ डाला तो पाया कि किसी जेबकतरे ने उनकी जेब काट ली है। अमर स्वामी जी ने टीटी को अपनी जेब दिखाई और कहा कि टिकट जेब में थे और समस्त धन भी जेब में था। टीटी ने बात समझ कर उन्हें कुछ नहीं कहा। अमर स्वामी जी चाहते तो दिल्ली पहुंच सकते थे। परन्तु वह अगले स्टेशन पर उतर गये। स्टेशन मास्टर के पास गये और अपनी बात कही। उनसे अनुमति मांगी कि वह वहां अपनी पुस्तकें बेच सकें और दिल्ली तक के दो टिकट का धन होते ही वह टिकट लेकर अगली ट्रेन से दिल्ली लौट जायेंगे। अनुमति मिल गई। स्वामी जी ने वहां फर्श पर किताबें लगाई। कुछ लोगों ने और कुछ स्टेशन मास्टर ने ही पुस्तकें खरीद ली। कुछ ही देर में दो टिकट जितनी धनराशि प्राप्त हो गई। स्वामी जी ने पुस्तकें समेटी, दो टिकट खरीदें और दिल्ली की ट्रेन में बैठ कर दिल्ली पहुंच गये। यह बात दिखती तो छोटी है परन्तु यह सदाचार की मिसाल है जिसका स्टेशन मास्टर पर अच्छा प्रभाव पड़ना पथिक जी बताते हैं।

                आर्यसमाज के इतिहास में ऐसे भी उदाहरण दर्ज हैं जब न्यायालय में मुकदमें में जज महोदय को सच्चाई का पता नहीं चल पा रहा था। उसे विश्वास था कि आर्यसमाजी असत्य या झूठ नहीं बोलते। वह मुकदमें के स्थान के निकट के आर्यसमाजी के घर पहुंचते हैं। उनसे सत्य बताने को कहते हैं ओर उसके कहे अनुसार ही मुकदमें का निर्णय कर देते हैं। आज आर्यसमाज वाले लोग अपने इस इतिहास को न केवल भुला चुके हैं अपितु अपने आचरण से इसे झूठा सिद्ध कर रहे हैं। आज आर्यसमाज की स्थिति यह है कि आर्यसमाज के सदस्य ही आर्यसमाजों में जाकर अल्पकालिक एक-दो दिन निवास नहीं कर सकते। उनसे अपने आर्यसमाज के प्रधान आदि का पत्र लाने को कहा जाता है। उन्हें विश्वास ही नहीं है कि आर्यसमाजी सत्य भी बोल सकते हैं। यदि किसी को निवास देते भी हैं तो शुल्क अधिक होता है। सुविधाओं के नाम पर स्वच्छता व शौचालय में प्रकाश आदि की व्यवस्था सन्तोषजनक प्रायः नही मिलती। आर्यसमाज में अतिथियों के भोजन व प्रातराश की भी व्यवस्था नहीं होती। हमारे निजी अनुभव भी अच्छे नहीं हैं। अतः प्रवास में अन्य संस्थाओं की धर्मशालाओं आदि में तो रहा जा सकता है परन्तु कोई एक आर्यसमाज अपवादस्वरूप ही अनुकूल हो सकता है। इस कारण भी आर्यसमाज का प्रभाव व प्रचार शिथिल है।

                हमारे विद्वान उपदेशक प्रचारक कहलाते हैं। वह प्रचार में वहीं जाते हैं जहां से निर्धारित तिथियों में आर्यसमाज में प्रवचन के लिये बुलाया जाता है। रेल व बस का किराया व दक्षिणा आदि भी बता दी जाती है। प्रवचन सुनने वाले थोड़े से आर्यसमाजी जिनमें अधिकांश वृद्ध होते हैं, आते हैं। बातें तो बहुत होती हैं परन्तु प्रभाव नहीं पड़ता। ग्रामों में तथा सार्वजनिक स्थानों पर प्रचार प्रायः नहीं होता है। प्रतिदिन देश में पौराणिक लोग अपनी संस्था खोलते हैं और कुछ ही महीनों व वर्ष में वह हजारों की संख्या में अपने चेले बना लेते हैं परन्तु आर्यसमाजों में सदस्यों की संख्या में वृद्धि देखने को नहीं मिलती। हम जिस 139 वर्ष पुरानी समाज में यदा-कदा जाते हैं वहां 139 लोग भी सत्संग में नहीं आते। सर्वत्र यही स्थिति है। अतः आर्यसमाज को सबसे अधिक यदि किसी बात पर ध्यान देने की जरूरत है तो वह इसी बात की है कि प्रचार में खामियों को दूर कर उन बातों को अपनायें जिससे लोग प्रभावित होते हैं। इसके लिये प्रचारकों का जीवन मनसा, वाचा, कर्मणा आर्यसमाज के सिद्धान्तानुसार होना आवश्यक है। अतः आर्यसमाज के विद्वानों, उपदेशकों व भजनीकों को आत्म निरीक्षण अवश्य करना चाहिये जिससे लोग उनके उपदेशों सहित उनके जीवन में धारित श्रेष्ठ संस्कारों, गुणों व सिद्धान्तों से शिक्षा लेकर आर्यसमाज के सक्रिय सदस्य बनें। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य

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