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मात्र शब्दों का ढेर बनता जा रहा प्रवक्ता

पीयूष द्विवेदी

downloadआज मैं लगभग सभी छोटे-बड़े अख़बारों में छपता हूँ, लेकिन प्रवक्ता ने मुझे तब छापा था जब मेरा लिखा मेरे ब्लॉग के अलावा कहीं जगह नहीं पाता था। इस कारण प्रवक्ता के प्रति मेरा लगाव अत्यंत प्रबल था, है और रहेगा भी। अब जब लगाव है, तो गुणों की प्रशंसा के साथ-साथ कमियों की आलोचना भी होगी ही। ये भी सर्वमान्य है कि आलोचना केवल अच्छी चीजों/लोगों की ही होती है, बुरी चीजों/लोगों की तो निंदा व भर्त्सना की जाती है। आज मैं प्रवक्ता की आलोचना के लिए ही आया हूँ… । स्पष्ट याद है कि मेरा पहला लेख छापने से काफी पहले प्रवक्ता ने मेरे कई लेख स्तरीय नहीं होने के कारण नहीं छापे थे जिससे तत्कालीन दौर में मुझे काफी बुरा भी लगा था। लेकिन, उस समय न छपने के कारण ही आगे मेरी लेखनी में सुधार हुआ, एक स्तर आया और तब जाकर मेरे लिखे को प्रवक्ता पर स्थान मिला। कहने का अर्थ ये है कि तब प्रवक्ता पर छपने के लिए लेखों की गुणवत्ता अत्यंत महत्वपूर्ण होती थी, लेकिन आज इसके ठीक उलट यहाँ कुछ भी छाप दिया जा रहा है जिससे अब प्रवक्ता से वो पहले वाली बात खत्म होती जा रही है। मैं ये बिलकुल नहीं कह रहा कि यहाँ स्तरीय चीजें नहीं छप रही, अवश्य ही यहाँ अब भी बहुत अच्छे व स्तरीय लेख आदि छपते हैं। लेकिन, यह भी एक कटु सत्य है कि जितनी अच्छी चीजें यहाँ छपती हैं, तकरीबन उसी अनुपात में गुणवत्ताहीन चीजें भी छपती हैं। ये गुणवत्ताहीनता, व्याकरण से लेकर तथ्य-कथ्य और विश्लेषण तक हर तरह की है। आप गौर से पढ़ें तो प्रवक्ता पर छपने वाले लेखों, खासकर नए लेखकों के, में से तमाम में एकाध नहीं, अनगिनत व्याकरणीय त्रुटियाँ मिल जाएंगी। मात्रा से लेकर वाक्य-विन्यास तक तमाम त्रुटियाँ। अब अगर गंभीर और वैचारिक परिचर्चाएं आदि कराने वाली प्रवक्ता जैसी वेबसाइट के आलेखों में व्याकरण की इतनी त्रुटियाँ होना, कत्तई उचित नहीं कहा जा सकता। इसके अलावा तथ्यों व विश्लेषणों के मामले में भी अब मैं प्रवक्ता को तब जैसा नहीं पाता हूँ, जैसा मैंने अपने लेखन के शुरूआती दिनों में देखा था। कुल मिलाकर हालत ये है कि आज प्रवक्ता अधिकाधिक रूप से मात्र ऐसे शब्दों का ढेर बनता जा रहा है, जिनका कोई विशेष अर्थ नहीं है और जो बस कागज़ भरने के लिए लिख भर दिए गए हैं।

अब सवाल ये है कि प्रवक्ता भी वही है और इसके बुद्धिमान संपादक और हमारे अग्रज मित्र श्री संजीव सिन्हा भी वही हैं। फिर ऐसा क्या हो गया है कि प्रवक्ता अपनी गुणवत्ता खोता जा रहा है? मेरी समझ से इसका सबसे बड़ा कारण है कि प्रवक्ता संपादक अपने अन्य राजनीतिक व सामाजिक सरोकारों में व्यस्तता के कारण इसकी तरफ नियमित ध्यान नहीं दे पा रहे या अगर उन्होंने अन्य किन्ही लोगों को इसकी जिम्मेदारी सौंपी है, तो वो उस जिम्मेदारी को संजीदगी से नहीं ले रहे हैं। प्रवक्ता के बचाव में संपादक की तरफ से ये तर्क दिया जा सकता है कि इसमें प्रतिदिन आलेख लगते हैं और बहुतायत लेख आते हैं, ऐसे में रोज सबकी जांच-पड़ताल सहजता से संभव नहीं है? ये तर्क सही है, लेकिन इसका ये अर्थ नहीं कि प्रवक्ता के कंटेंट में हावी गुणवत्ताहीनता सही है। अगर आपके पास इतना समय नहीं है कि प्रतिदिन प्रवक्ता के लेखों आदि को सही से परख के लगाएं तो आप इस दायित्व को कुछ कम कर दीजिए। यथा, प्रवक्ता को दैनिक की बजाय अर्ध-साप्ताहिक या साप्ताहिक कर दीजिए या अन्य किसी अन्य समाधान पर भी विचार कीजिए, लेकिन ये तो किसी भी स्थिति में उचित नहीं कहा जा सकता कि प्रवक्ता की गुणवत्ता से समझौता किया जाए। आशा है, प्रवक्ता संपादक इन बातों पर विचार करेंगे और इस संबंध में कोई ठोस कदम उठाएंगे जिससे प्रवक्ता को मात्र शब्दों का ढेर बनने से रोकते हुए पुनः पहले जैसा गुणवतापूर्ण किया जा सकेगा।