पहले भारतीय जनता पार्टी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हस्तक्षेप बंद हो

‘राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ और भाजपा’ के संबंधों पर केन्द्रित यह लेख कर्नाटक से प्रकाशित दैनिक प्रजावाणी में अभिमत पेज पर 31 अगस्त, 2009 को प्रकाशित हुआ था। मूलत: कन्‍नड में लिखे इस लेख का यह हिंदी अनुवाद है। हालांकि इस लेख में व्‍यक्‍त विचारों से हमारी असहमति है लेकिन समसामयिक होने और इसमें उठाए गए सवालों के मद्देनजर हम इसे प्रकाशित कर रहे हैं-संपादक

advani_bhagvatएक गांव में एक स्वामी जी 100 शिष्यों के साथ रहते थे। एक दिन ऐसा लगा मानो प्रलय ही हो जाएगी। कड़कड़ाती बिजली और तूफान, आंधी के साथ बहुत भयंकर बारिश होने लगी। स्वामी जो को लगा कि उनके बीच किसी ने कोई बड़ा पाप किया है और उसे यदि आश्रम से बाहर निकाल दिया जाए तो प्रकृति शांत हो जाएगी। यह सोचकर, एक-एक शिष्य को उन्होंने बाहर खुले में भेजना शुरू किया। एक-एक करके 99 शिष्य बाहर चले गए। जैसे ही 100 वां शिष्य आश्रम से बाहर निकला कड़कड़ाती बिजली आश्रम पर गिरी। स्वामी जी मारे गए और बरसात बंद हो गयी।

भारतीय जनता पार्टी के अंदर जिस प्रकार खुलकर मतभेद सामने आ रहे हैं और उन्हें शांत करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा जो प्रयास चल रहा है, उसे देखकर स्वामी जी और 100 शिष्यों की कहानी याद आती है। भारतीय जनता पार्टी के अंदर के संकट को दूर करने के लिए अरूण शौरी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जो विनती की है, काश उनको कोई ये कहानी बताए।

कहने का मतलब यह है कि अनुशासन का डंडा उठाकर भारतीय जनता पार्टी से 100 लोगों को भी यदि बाहर कर दिया जाए, तब भी पार्टी के अंदर का संकट समाप्त नहीं हो सकता। समस्या के समाधान के लिए एक ही उपाय है कि मुंह ढककर रिमोट कंट्रोल से पार्टी को नियंत्रित करने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भाजपा के मामलों से बाहर हो जाए।

यह भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दोनों के भविष्य की दृष्टि से ठीक होगा। भारतीय जनता पार्टी का पूर्णत: एक राजनीतिक दल बनकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक निष्पक्ष हिंदू संगठन बनकर चलने में और बढ़ने में ही भला है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय जनता पार्टी की समस्या सुलझाए, जैसा कि अरुण शौरी कहते है, वह ठीक नहीं है।

आश्चर्य की बात है कि लोकतंत्र के बारे में खूब लिखने वाले अरूण शौरी जी को भी भारतीय जनता पार्टी के भीतर के रोग का इलाज करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के डाक्टर की सिफारिश करने में हिचकिचाहट क्यों नहीं हुई? भारतीय जनता पार्टी भारतीय संविधान के तहत पंजीकृत एक राजनीतिक दल है। अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं की तरह भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को भी देश की जनता जब चाहे तब सत्ता सौंपती है, नहीं तो कूड़े में फेंक देती है। इसी जनता का वोट पाने के लिए भूख, पानी, तूफान किसी की परवाह न करते हुए 80 साल की उम्र में आडवाणी जैसे नेता को भी पसीना बहाना पड़ता है।

भारतीय जनता पार्टी को उपदेश देने का, उसके आंतरिक मामलों में टांग अड़ाने का अधिकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कैसे मिल गया? क्या वो जनता के द्वारा चुनी हुयी संस्था है? एक सामान्य मतदाता को भारतीय जनता पार्टी को जितना उपदेश देने का अधिकार है, उतना ही अधिकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी है। उससे तिलमात्र भी अधिक अधिकार नहीं है। संविधान उन्हें कोई अधिकार नहीं देता।

मतभेद एवं नेतृत्वहीनता से कराह रही भारतीय जनता पार्टी के बारे में यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बहुत रूचि है तो क्यों नहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत स्वयं भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बन जाते, चुनाव लड़ते और देश का प्रधानमंत्री बनने की कोशिश करते। उन्हें कौन रोकता है? न कहने का अधिकार किसी को नहीं है? क्योंकि यहां प्रजातंत्र है।

देश के विभाजन के लिए सरदार पटेल कारण हैं या नहीं या फिर जिन्ना धर्म निरपेक्ष हैं या नहीं, इन मुद्दों पर जसवंत सिंह और आडवाणी चुनाव नहीं जीते हैं। चुनाव घोषणापत्र में ये विषय नहीं थे। जसवंत सिंह की जिन्ना की किताब के बारे में भारतीय जनता पार्टी का कौन सा कार्यकर्ता, कौन सा मतदाता माथापच्ची कर रहा है? आज की भारतीय जनता पार्टी इतनी पथभ्रष्ट हो चुकी है कि कल अगर कोई वाजपेयी और आडवाणी जी का चरित्र-हनन करते हुए कोई किताब लिखे तो बहुत लोग अपना माथा खराब नहीं करेंगे। ऐसी स्थिति में ‘जिन्ना धर्मनिरपेक्ष हैं।’ कहते ही आडवाणी जी को क्यों अध्यक्ष पद छोड़ना चाहिए? जसवंत सिंह को क्यों निकाल देना चाहिए? उस पक्ष की ओर से वकालत करने वाले अरूण शौरी तो कम से कम इन प्रश्नों का उत्तर दें।

बहुत स्पष्ट कहा जाए तो एक ही बात समझ में आती है कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने जिन्ना और पटेल के बारे में जो बयान दिए, उससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं को नाराजगी हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सैद्धांतिक रूप से विचित्र है। देश विभाजन के कारण अगर जिन्ना हैं तो सावरकर के बारे में क्या कहेंगे? जिन्ना की अध्यक्षता में लाहौर में अलग राष्ट्र की घोषणा करने से पहले ही क्या सावरकर ने ये नहीं कहा था कि हिन्दू और मुसलमानों के लिए अलग देश होना चाहिए? (पढ़िए हो. वे. शेषाद्रि जी की देश विभाजन के बारे में लिखी किताब) फिर सरदार पटेल के बारे में इतना मोह क्यों? वो खुल्लमखुल्ला एक कांग्रेसी थे। उनका हिंदू महासभा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ कोई दूर का भी संबंध नहीं था। देश विभाजन में जितनी भूमिका नेहरू जी की रही है, उतनी ही भूमिका पटेल जी की भी रही है। इन दोनों नेताओं ने गांधी जी के पीछे-पीछे माउंटबेटन से मिलकर विभाजन का खाका तैयार किया था।

भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दोनों अपने सिद्धांत के खिलाफ चल रहे हैं। इसके द्वारा भारतीय जनता पार्टी अपने मतदाताओं को और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुओं को धोखा दे रहा है। केवल रोज खाकी निक्कर पहन कर शाखा जाने वाले लोगों के वोट से ही भारतीय जनता पार्टी केन्द्र में या राज्यों में सत्ता में नहीं आयी है। उस पार्टी से चुने हुए विधायकों, सांसदों में बहुतों का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कोई संबंध ही नहीं है। ऐसा होने पर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुराने पड़ चुके सिद्धांतों पर चलकर भारतीय जनता पार्टी अपनी समाधि क्यों बना रही है?

राजनीति से संबंधित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नीति अस्पष्ट है। ‘सभी हिंदू एक हैं’ ऐसा कहने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राजनीतिक दलों का समर्थन करने का वक्त आते ही भारतीय जनता पार्टी को अपने गले से लगा लेता है। कांग्रेस, कम्यूनिस्ट, डी. एम. के., जे. डी. यू. में रहने वाले क्या हिंदू नहीं हैं? प्रणव मुखर्जी, देशपांडे, देवगौड़ा ये सब लोग हिंदुत्व के बारे में भारतीय जनता पार्टी के किन नेताओं से कम हैं? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कहने के अनुसार हिंदू नेता बनने के लिए किन योग्यताओं की आवश्यकता है? अल्पसंख्यकों के खिलाफ थोड़ा आग उगलना? हो सके तो हिन्दू-मुस्लिम दंगों को हवा देना? पब जाने वालों पर आक्रमण करना? बुर्का पहनने का विरोध करना? कभी-कभी राममंदिर निर्माण के लिए प्रतिबद्धता घोषित करना? क्या हिंदू नेता बनने के लिए यही सब चाहिए?

दलित लोगों द्वारा मैला ढोने की घृणित परंपरा को कानून बनाकर रोकने और इस प्रकार हिंदू धर्म पर लगे कलंक को दूर करने वाले देवराज अर्स (कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री) जाति भेद को दूर करके मंदिर का पुजारी बनने का अधिकार देने वाले एन. टी. रामाराव जैसे लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हीरो क्यों नहीं बनते?

राममंदिर निर्माण करेंगे, समान नागरिक संहिता लागू करेंगे, संविधान की धारा 370 को समाप्त करेंगे, ऐसा प्रचार करके चुनाव जीतने वाले और बाद में उसे भूलकर सत्ता सुख भोगने वाले भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के बारे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को क्यों इतनी ममता है? हिंदूत्व के प्रति लगाव की बजाए क्या यह भारतीय जनता पार्टी का सरपरस्त बनकर सत्ता में भागीदारी की अनाधिकृत इच्छा नहीं है? लेकिन, भारतीय जनता पार्टी के बारे में जब भी कोई विवाद उठता है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वाले यह कहकर दूर रहते हैं कि हम भारतीय जनता पार्टी में हस्तक्षेप नहीं करते। ऐसा कहने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग जहां-जहां भारतीय जनता पार्टी अधिकार में आती है, वहां-वहां सरकार की समितियों, आयोगों और मंडलियों में क्या अधिकार का स्थान पाने के लिए बेशर्म होकर प्रयास नहीं करते? ये अधिकार बल्लारी के रेड्डी भाइयों से भी मिले तो भोग करने के लिए वे तैयार रहते हैं। आपरेशन कमल (दूसरी पार्टियों के कई एम. एल. ए. को पैसा देकर इस्तीफा दिलाना, उन्हें मंत्री बनाना और फिर भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़वाना) होते समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी नाराजगी क्यों नहीं जतायी? इस प्रकार के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भारतीय जनता पार्टी को उपदेश देने का कौन सा नैतिक अधिकार है?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पहले एक काम करना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी को उसके हाल पर छोड़ देना चाहिए। अभी भी कांग्रेस में समर्थ नेता नहीं हैं, प्रादेशिक पार्टियों के बारे में देश की जनता का मोहभंग हो गया है, नाम के लिए राष्ट्रीय दल कहलाने वाली सी.पी.एम., सी.पी.आई. डेढ़ राज्यों (प. बंगाल, त्रिपुरा) में सिमट चुकी है, ऐसे हालात में भारतीय जनता पार्टी में आज भी कुछ सशक्त नेता हैं। यदि विकास के मुद्दे को लेकर पार्टी आगे बढ़े तो उसका साथ देने के लिए, कांग्रेस विरोधी एक बहुत बड़ा वोटबैंक है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दूसरा काम होना चाहिए कि वह हिंदुओं के हित में अपने को ईमानदारी से काम करने के लिए समर्पित कर दे। केवल मुस्लिम, इसाई विरोध करना ही हिंदुत्व हो गया है। इस प्रकार की प्रवृत्ति से, अतिवादिता से, नकारात्मक विचारों से हिंदूत्व को उबारने की जरूरत है। साथ ही संघ को चाहिए कि वह हिंदू धर्म की जड़ों को हिलाने वाली जातीयता, अस्पृश्यता और रूढ़िवादिता आदि के विरूद्ध कार्य-योजना तैयार करके मिशनरी लोगों की तरह राजनीति से दूर रहकर, किसी प्रकार के अंजाम की परवाह न करते हुए अपने-आप को सेवा के काम में लगा दे। अगर ये सब नहीं हो सकता है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को चाहिए कि वह भारतीय जनता पार्टी में खुद का विलय कर दे।

लेखक : दिनेश अमीन मत्तू

ईमेल-dineshmattu@yahoo.co.in

34 COMMENTS

  1. संघ को अपने लिए, कौनसी गद्दी चाहिए? कोई उत्तर दे।
    जैसे कृष्ण ने गद्दी से दूर रहकर अर्जुन को उपदेश दिया था, जैसे चाणक्य ने चंद्र्गुप्त को तैय्यार किया था, जैसे रामदास ने शिवाजी को गांव गांव में मारुति मंदिर बनाकर संगठित सहायता की थी; बस उसी तरह संघ भा ज पा को निरपेक्ष रीति से, अपनी गद्दिके लिए नही, पर देश-हित और राष्ट्र-कल्याण के लिए परामर्श देता रहेगा। संघ को केवल विशुद्ध राष्ट्र कल्याण के अतिरिक्त और कौन सा सिंहासन पाना है? यह भारतीय सत्ता विभाजन की प्रणाली है। इसमे भी किंचित दोष हो सकते हैं, पर “ईस से बढकर और कोइ शाश्वति इस धरातल पर संभव नहीं” ‍‍‍‍

  2. Do baar jnta inko auqaat bta chuki hai ek bar aur ऐसा ही हो जाने deejiyedekhna hai ये jnta ko apne hisaab se chla paate hain ya janta inko apne hisab se chlne ko मजबूर करने me kaamyabrehti hai kyonki vaise ये इतने धीट aur फासिस्ट hain k aapki slaah ka कोइ असर नही पड़ने vala .

  3. मी लेखकाचा मताशी सहमत आहे.संघाने आपले सोशल वोर्क पाहावे.मिडिया सामोरे आपले PATYVISHI मतप्रदर्शन करू नये.यया मुले मास्सागे चुकीचा जातो

  4. बीजेपी और संघ दोनोको ही अपने अपने क्षेत्रों का ध्यान रखना चाहिए.
    जन संघ के निर्माण में संघ का सहयोग था पर अकस्मात् श्यामाप्रसाद मूखेर्जी के मारे जाने के बाद संघ का दायित्व बढ़ गया और अनेक युवा प्रचारकों के कन्धों पर जन संघ का कार्य आ गया. वे जब तक निष्ठा से कार्य करते रहे जन संघ और फिर दोहरी सद्स्यते के नाम पर ही बीजेपी बनी थी अतेव दोनों का सम्बन्ध तो रहेगा ही.
    संघ ने जिन पॉइंट्स के कारन अपने लोगों की मदद जनसंघ व बीजेपी की की थी उन पर कोम्प्रोमआइज नहीं होने थे.
    राष्टीयता का मुद्दा बार बार उठता है पर हिन्दू एवं राष्टीय को एक समझने की आवश्यकता है और रहेगी. दुसरे धर्म के लोगों को भी भारत के भगवानो को मह्पुरुष की तरह देखना होगा
    जसवंत सिंह व अरुण शौरी के लेखों से गलत सन्देश जनता में जाता है . राजनीती कोलएज की प्रोफेस्सरी नहीं है. गोरखालैंड के मुद्दे पर बीजेपी को अपने ऊँचे नेताको एक सीट पाने नहीं भेजना था. मिथिला का मुद्दा उससे बार और राष्ट्रीय महत्वा का है.

  5. agr aisa ho jaaye to yah mana ja sakta hai ki bhartiy janta party ne anttha ganga snaan kr hi liya……par kash ki aisa ho pata…

  6. हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की आधी-अधूरी सोच ने संघ के सामने बङी शिला खङी कर दी है. किसी परम्परा विशेष को मानने वाला या त्रिभुजीय भू-भाग के प्रति निष्ठा रखने वाला हिन्दू— लगभग इसी अवधारणा पर टिका संघ. और इसके साथ वसुधैव कुटुम्बकम को भी साधना चाहता है. यह असंभव है. भारत के प्रति निष्ठा पाकिस्तान को चैन से कैसे जीने देगी? बंगला देशमें हिन्दुओं पर अत्याचार से ज्यादा दुखी होने वाला मानस मस्जिद में नमाज पढते मुसलमानों के विस्फ़ोट में उङ जाने पर यही कहेगा कि वे अपने पापों का फ़ल भोग रहे हैं.
    राष्ट्रवाद का सूत्र सिर्फ़ एक ही ग्रन्थ में मिलता है- ऋग्वेद के पृथ्वी सूक्त में माता भूमिः पुत्रोहम प्रूथिव्याः. पूरी धरती को माता कहा तो सारे मानव स्वतः भाई हुये. यहीं वसुधैव कुटुम्बकम भी जमता है.
    दूसरी बात भाजपा की, सो राजनीति तो सब जगह भ्रम पर ही चल रही है. लोगों को बाटे बिना राजनीति नहीं चल सकती. इस समस्या का समाधान राज्यनीति है. राजनीति छोङकर राज्यनीति पर आना समझ पूर्वक ही संभव है. समझ से पहले समाधान नहीं…. साध्क उम्मेद

  7. मैने अपनी टिप्पणी लिखने के बाद मधुसुदन जी कि टिप्पणी पढी । शायद वह मेरी बातो को ज्यादा अच्छी तरह कह रहे है ।

  8. एक समय मे हिन्दु समाज के अग्रजो कोन लगा होगा कि राजनीति करना आवश्यक है इस लिए पार्टी खडी कि गई । लेकिन राजनीति मे स्वार्थ होता है – सत्ता को लक्ष्य मानना होता है । सत्ता प्राप्ति ही सफलता की कसौटी होती है । अब द्विविधा है । रास्ता निकालना कठिन है, लेकिन कुछ कठोर सा निर्णय लेने कि आवश्यकता है । संघ मे भी दुष्टो का प्रवेश हो गया है जो वस्तुतः विधर्मियो के लिए काम कर रहे है ऐसा लगता है । संघ को भी अपनी सफाई करनी चाहिए ।

  9. रंगाजी की टिप्पणी, और दिनेशजी का लेख, उन्हीके द्वारा प्रयुक्त एक संज्ञाके अनुचित उपयोग पर खडे है। मानता हूं, कि मूल कन्नडमे जिस शब्दका प्रयोग किया है, मुझे ज्ञात नही। वैसे “हस्तक्षेप”मे–“आज्ञाका”,”{High} Command” का “या” कम्पल्शन”का अर्थ व्यक्त होता है। दोनोमेसे(संघ या भाजपा) किसीनेभी “हस्तक्षेप” शब्दका प्रयोग नही किया। ना किसीने उसे “बंद” करनेकी मांग की। वैसा अर्थ इस “परामर्श”मे नही है। बार बार मोहनजी ने स्पष्ट किया है, कि निर्णय बी.जे.पी.को लेना है।मेरी दृष्टिमे इसे हस्तक्षेप कहना उचित नहीं। हस्तक्षेप बलात्‌ किया जाता है। यह परामर्श कहा जा सकता है। संघके पास नैतिक सत्ता है। और उसका उपयोग परामर्श के निजी स्तरपर राष्ट्र के हितमे (मेरी मान्यता), हुआ है। निजी भी इसीलिए कि परामर्श देनेवाला उंचा, और लेनेवाला नीचा, ऐसे अर्थ घटनसे बचा जाए। न संघने, न बी. जे. पी. के पदाधिकारीयोंने,(मेरी जानकारी) इसे “हस्तक्षेप”की संज्ञा दी है। आप अपने पुत्रको, पति या पत्निको कुछ निजी बाते कहें, और मै आपको कहूं, कि आप अपने कुटूंबमे हस्तक्षेप बंद करे। तो आप मुझे कहेंगे, कि “भाई हस्तक्षेप तो आप कर रहे हैं”।
    वैसे एक बात कहना चाहता हूं, पौराणिक इतिहासमे कई बार ऋषियोंने आततायी राजाको परास्तहि नही, मृत्युके घाट उतारनेके भी उदाहरण मिल जाएंगे, किंतु ये उस श्रेणी मे नही आता।अन्यायी राज्यकर्ताको हटाकर चाणक्यने देशहितमे चन्द्रगुप्तको सिंहासन पर, बिठानेके लिए क्या किया था, आपको ज्ञात होगा। श्रीमती इंदिरा गांधी के आपात्काल (emergency) को उसी श्रेणीमे मै रखता हूं। फिर भी आपको अपना स्वतंत्र और भिन्न मत रखनेका अधिकार है।धन्यवाद।

  10. sir I have read your editorial ” Pahle Bhartiya Janta Party ka Hastakshap band ho” is so justified and very truely. I m 100% agree with this thought.

  11. दो:
    जो (१) सन्यासी (२) राष्ट्र निष्ठा वाला (३) सिंहासन के लिए अनासक्त हो,(४) सर्व कल्याणकारी, (५) तटस्थ (६) सम्य़क् दृष्टि वाला हुआ करता था।केवल एक अंतर है, जो उस समय ऋषि करता था, आजके युगमे जनतंत्रमे एक संस्था (संघ) कर रहा है। संघ के लिए “राष्ट्र निष्ठा”— संघनिष्ठा, या हिंदू निष्ठासे भी बडी है। वह “राष्ट्रीय” स्व. संघ है। वरीयता राष्ट्र से नीचे संघ और तथाकथित हिंदू समाज। स्वयंसेवक और “हिंदू” इस प्रयोगकी पहली कल(lever) है, जो इस युगांतरी उत्क्रांतिमे जुटा हुआ है। उस कल का भी विस्तार (उत्क्रांति) हुआ है, औरभी होता रहेगा। पहली मराठी प्रार्थना,हिंदी और अंतमे संस्कृतमे होना इसका एक प्रमाण है। इस लिए राष्ट्र निष्ठावाले सभी भारतीयोंको संघ हिंदू मानता है।संघभी कल(Lever)को धीरे धीरे सर्व समावेशी, और समन्वयी करता रहेगा(मेरी अपेक्षा है)
    कुछ ऐतिहासिक उदाहरण:–>जैसे श्री कृष्ण(सम्यक् दॄष्टा) परामर्श दाता और अर्जुन(सत्ता) योद्धा , जैसे चाणक्य (सम्यक्‌..) प्रशिक्षक और चंद्रगुप्त (सत्ता) राज्यकर्ता, जैसे रामदास(सम्यक्‌..) संगठक,दिग्दर्शक और शिवाजी(सत्ता)राजा,बस उसी प्रकार संघ(सम्यक्‌..) और भा. ज. पा.(सत्ता) के संबंधको मैने पढा है, अनुभव किया है। और मानता हूं,कि भारतके और सारे भारतीयों के(सं:मुंबई का मोहनजी का भाषण) अन्ततोगत्वा कल्याणके लिए यही एक सही रास्ता है। अन्य शॉर्ट कट सत्ता दिला सकते हैं, पर दीर्घ कालीन कल्याण करनेमे अक्षम सिद्ध होनेकी अधिक संभावना है। यह सत्ताके विभाजनकी आदर्श प्रणाली है। जिसके पास ऋषि (धर्म अर्थात न्याय) सत्ता है, वोह कुटुंबके मोह माया और प्रलोभनोंसे अलिप्त (भागवतजी आजीवन प्रचारक)है।साथमे सर्व समन्वयी है। उनके निर्णय स्वार्थसे प्रेरित नही हो सकते।न उन्हे कोई सिंहासन या कुरसी पानी है। निश्चितहि संघके स्वयंसेवकभी जो भा.ज. पा. मे लगे हुए हैं, वे भी मानवीय दुर्बलताओंसे अछूते नहीं है, न यह अपेक्षित है।राज सत्ता(मदभरी, आसनाकांक्षी,और उद्दंड) सभीको भ्रष्ट करनेकी क्षमता रखती है। इसी लिए संघको परामर्शदाता का दायित्व एक पारिवारिक दृष्टिसे निर्वाह करना ही चाहिए। अब ये कैसे किया जाए यह तो भागवत जी पर छोड दे।और पारिवारिक परामर्श निजी हुआ करता है। उसे प्रकाशित करने पर परामर्श देनेवाला वरिष्ठ और लेनेवाला कनिष्ठ समझा जाएगा; शायद इस प्रकारके अर्थ घटनसे से बचनेके लिए उसे ऐसे निजी स्तरपे करना होता है। आप अपनी गृहिणीको भी सभीके सामने,उनकी गलतीयां नहीं बताते।मै तो मानता हूं, इस गतिविधिके पश्चात भा ज पा और संघ दोनो भारतके हितमे अधिक सक्षम होंगे। इश्वर करे ऐसाहि हो। क्या मै, विद्वान लेखके लेखकसे नम्र प्रार्थना,कर सकता हूं, कि कुछ Integral Humanism, by Deen Dayal Upadhyaay,के अंश, एक बार अवश्य देख ले।

  12. एक:
    मुद्‌गलजी आपके अनुरोधके लिए,और “प्रवक्ता” प्रबंधकोंको (संपादकोंको)मुझे यह अवसर देनेके लिए हृदय पूर्वक धन्यवाद। धर्म का अर्थ इस टिप्पणीमे; रिलीजन, मज़हब, या संप्रदाय नही है।
    संक्षेप मे स्मरण के आधारपर, उत्तर देता हूं। यह जानकारी आपको, {पंडित दिन दयाल उपाध्याय की “एकात्म मानववाद” (Inegral Humanism)} , और बाबा साहब आपटे एवं दत्तोपंतजी ठेंगडी की पुस्तकोंमे मिल जाएगी।
    मूलतः यह भारतीय परंपराका सत्ता विभाजनका आदर्श है।(१) राज्य सत्ता और सिंहासन (कुरसी) बहुत प्रलोभनीय होती है।(२) इसलिए राज्य सत्तापर धर्मके (न्यायके पढिए) नियामक जो निःस्पृह सन्यासी होते थे उनका अंकुश हुआ करता था। जैसे, राम, लक्ष्मणको ऋषियोंकी आश्रम रक्षाके लिए दशरथके पास मांगकर ले जाना, यह धर्म सत्ताका राजा के उपर अधिकार बताता है।और, एक राज्याभिषेकके विधिके समय ऋषियों द्वारा पलाश दंडसे राजाकी पीठ पर विधि रुप मारकर “धर्मो सर्वोपरि” उच्चारण यह उसके द्योतक है।
    जहां राज्य सत्ता, न्याय (धर्म सत्ता) और अर्थ सत्ता एक हि संस्थामे या व्यक्तिमे केंद्रित हो जाती है, वहां अनर्थ की संभावना बहुत बढ जाती है।इस लिए यह सत्ता विभाजनकी आवश्यकता मानी गयी थी।

    इसके आदर्श रूपमे जो नियामक है, उसको अधिकसे अधिक निःस्वार्थी और राष्ट्र निष्ठासे प्रेरित किया गया है।इस धरातल पर इससे अधिक पूर्ण (perfect) प्रणाली मेरी दृष्टिमे हो नही सकती।

  13. Respected Madhusoodan Ji,
    Thanks for summarising the matter in its depth & Spirit but in a few words.
    The Real Gyaan is in our Vedas but that too in so short formulas that to understand these formulas, we have to write Upnishad and after being remain less powerful in giving the Gyaan to the public in general, we have to write the puranaas to make the real gyaan a public asset.

    Further, When the Real Gyaan taken by the public in general, there was so much fillers ( Foreign Elements )with the real Gyaan and public took the filler instead of real Gyaan. This is the Irony.

    We should take these all forms together and not a specific one in getting the real Gyaan.

    Thus we need more elaboration from Dr. Madhusoodan in this topic.

  14. जैसॆ कृष्ण ने गद्दीसॆ दूर रहकर अर्जुनको उपदेश दिया था, जैसे चाणक्यने चंद्र्गुप्तको तैय्यार कियाथा, जैसे रामदासने शिवाजीको गांव गांवमे मारुति मंदिर बनाकर संगठित सहायता की थी; बस उसी तरह संघ भा ज पा को निरपेक्ष रीतिसे, गद्दिके लिए नही, दॆश और राष्ट्रके कल्याण के लिए परामर्श करता रहेगा। संघको केवल विशुद्ध राष्ट्र कल्याण के सिवा और कौनसा सिंहासन पाना है? यह भारतीय सत्ता विभाजन की प्रणाली है। इसमे भी किंचित दोष हो सकते हैं, पर “ईससे बढकर कोइ शाश्वति इस धरातल पर संभव नहीं” ‍‍‍‍

  15. Dinesh writes impartially without aligning himself with any political party or organisation.It is time for the concerned to rethink about thier role in Indian Democratic set-up
    -Nagaraj

  16. wonderful article on rss bjp amblical relations….. one thing is sure absolute power not corrupts absolutely but also dilute any sort of ideology absolutely…..prablem lies there…..wonderful piece by dinesh…i red it in kannada too….

  17. Dear Upreti,

    If you have no intension to know about anything, nobody can show you the thing you does not want to see. You may see the clear difference in the philosophy of 100 Meter Race and 5000 Meter Race.
    Competition of Race demands that you should run fast from start but this is not the case in practice. In Case of 100 meter race, your ability to run quickly and fast is a correct approach but this does not the case in 5000 meter. In a long run, first you should start slowly, maintain your breath in between and take charge in full capacity in the last phase of race. All these depend on the capacity and nature of Human being. If you want from RSS that it should run according the philosophy of 100 meter instead of 5000 meter race. It means that you are not willing to see RSS for doing continuous work in building the nation. Organisation working on the philosophy adopted by People like you, can not work more than 100 meter. RSS is working on the line on which we can remain united with perpetual status ( for Unlimited period). RSS have adopted an uniqe System of Organisation in which No Specific Family, No Specific Caste, No Capitalist and no Class of people can hold the organisation at his whim and his personal interest. It seems that who have sufficient so called power in the society, but can not influence RSS with their means on which he had more proud than the efforts made by him for welfare of the society, have become temporarily the enemy of RSS. One day they will have to understand the real work, devotion of its member towards the society and the nation which have also at present sufficient work to prove it as a biggest Internation social Organisation as termed by BBC World.

    Satish Mudgal

  18. RSS may have a vision but lacks in ‘visionaries’ who could implement large scale “social and cultural transformation”. From 1925 to 2009- it has not done what it could have done. Like BJP , the RSS too is run by mere “functionaries” who tend to bask in the glory of its political arm- the BJP. They are essentially status quoist.

  19. बहुत बधिया लिखॆ ह.सघ भाजपा मॆ ताग फसाकर् नतॊ अपना भला कर रहा ह् ऒर नहि भाजपा का.

  20. आपने जो कहा वे एकदम निस्सार है
    यदि आपने भारत का इतिहास पढ़ा होगा तो देखा होगा सदियों से राजाओं के पास धार्मिक ऋषि और कई लोग राजकाज के कामो में मार्गदर्शन करते रहे हैं तो यदि बीजेपी के साथ र.स.स. ऐसा करती है तो क्या गलत है आपने कहा र.स.स. द्वारा उन्ही लोगो को आगे ले गया जाता है जो मुस्लिम इसाई के खिलाफ बोले तो और पार्टी जो हिन्दू का अपमान करती रहती हैं क्या वे धर्म निर्पेच कहलाएंगी मै ये पुचना चाहता हूँ अगर एक मुस्लिम कहे मै मुस्लिम हूँ, यदि इससे कहे मै इसाई हूँ तो वे देश भक्त हैं अगर यही चीज हिन्दू कहे तो वे सांप्रदायिक हो जाता है

  21. गजब की जानकारी है इस लेख में, समझ नहीं पा रहा यह इधर है कि उधर है, फिर भी एक मशवरा हम भी देदेते हैं RSS को वह अपना नाम बदल ले, जुडी रहे भाजपा से इसमें बुरा किया है उसने पाला पोसा अब फल खाने का समय आया तो कहा जारहा हैं वह नाता तोड ले, यही तो है जिसने हिन्‍दुत्‍व के नाम इतनी सारी विचारधारायें प्रस्‍तुत करदी कि मैं महीनों सर पीटकर भी नहीं समझ पाया यह कहना किया चाहते हैं,इनका हिरो कौन है इनका जीरो कौन है, स्‍वदेशी का रोना रोने वाले नेट में करोडों रूपया बरबाद करके बैठ गये, क्‍यूं नही देसी तरीके अपनाये थे,
    और किया लिखूं, इस लेख पर तो बधाई के अतिरिक्‍त मुझे कुछ लिखना भी नहीं चाहिये था लेकिन कुछ लिख देना भी मेरी नजर में बधाई ही है

  22. Can writer can interfere in the matter of Congress, BJP or any other party? No, Because he has no power to make any interference.
    How a person get any power to interfere and that too with the acceptance of the persons to whom that person is interfering. In an organisation, some person may not happy with that interfere. In these circumstances, as per the provision of the Organisation, what will be accepted or what will not be accepted, can be decided by the office bearers/ executives or by General body. This is the rule of law.
    In india when a foreigner can become the chairperson of the party in power in a country where that party once started a campaign “ANGREJO BHARAT CHHODO”. In that country, how a nationalist social organisation like RSS ( Largest Social Organisation In World-BBC)in which Indians working for making better India for the benefit of Indian can be questioned for fighting legally with the evils of India and Indianness.
    When a person in Indian democracy, can interfere in any party upto his capacity why not an organisation leading Lakhs of Indians.

    We all knows that Communists who are also foreign concept of snatching power from lawfull hands and thus they are the enemy of Democracy but they exist in Indin politics according to the indian law. Then why the question on RSS.

    You are free to inform public in general that RSS have some influence in BJP.

    Satish

  23. यह विषय इतना आसान नहीं भाजपा खत्म हो जाए कोई फर्क नहीं पड़ता . दुबारा बन सकती है भाजपा जैसे पार्टी लेकिन आर .एस .एस अगर खत्म हो गया तो दुबारा कभी नहीं बन पायेगा . अफ़सोस संघ मर रहा है और कुछ दिनों बाद आर्य समाज की श्रेणी में आ जाएगा

  24. RSS मूल संस्था है BJP उसका राजनैतिक रूप है . जरूरत बीजेपी को ज्यादा है क्योंकि उसका असली जनाधार RSS ही है

  25. आलेख को प्रस्तुत कर आप ने विचार के लिए मुद्दे छोड़ दिए हैं। रा.से.संघ स्वयं को सांस्कृतिक संगठन कहता है। एक सांस्कृतिक संगठन किसी राजनैतिक दल का नीति निर्धारक नहीं हो सकता। एक राजनैतिक दल अवश्य एक सांस्कृतिक दल चला सकता है। यहाँ उल्टी गंगा बह रही है। यही सब विवादों का कारण है। फिर प्रत्येक संगठन में आंतरिक जनतंत्र आवश्यक है। जो देश में बिरले संगठनों में ही देखा जा सकता है। प्रत्येक संगठन को अपने निर्णय जनतांत्रिक रीति से स्वयं करने चाहिए। हाँ यह हो सकता है कि एक राजनैतिक दल के कुछ सदस्य किसी सांस्कृतिक संगठन में काम करते हों तो वे अपने कौशल से उस संगठन के आंतरिक जनतंत्र को किसी तरह का आघात पहुँचाए बिना उसे प्रभावित कर सकते हैं। तभी देश में जनतंत्र आगे बढ़ सकता है। मुझे तो प्रतीत होता है कि अभी तक लोग राजकीय संस्थाओँ के अतिरिक्त कहीं भी जनतंत्र को बर्दाश्त नहीं करते। जब कि हमें जनतंत्र का विकास करने के लिए इसे संसद से लेकर परिवार तक लाना चाहिए।

  26. In 1945 British army was badly defeated at Imphal by Netaji Subash Chandra Bose, with the help of Nagas and handful of POWs. This defeat panicked British government and the British men (sirs) residing in India. They started selling their properties and left India in a hurry. In such a panicky situation British intelligence also reported that the Indian army was not loyal to them any more. The Second World War proved very costly for the British, they were virtually bankrupt and it’s more than half of the population was also already lost at war. British used its diplomacy & promised the Naga Chief that they will grant him full freedom to Nagaland but the only provision what that Nagas should not support Netaji rather support British instead. Nehru-Gandhi also jumped in the band-wagon to show their loyalty in support of the British government publicly. Gandhi-Nehru feared Netaji; if Netaji would be victorious their future will be ruined as no one will care for them. Nehru publicly said that Japanese were coming to enslave Indians for another two hundred years that’s why we must support British government and he further said even if it is Subash he will take a gun and fight against him in the battle field. This type of anti Netaji Subash Chandra Bose statements by Nehru proved to the British their loyalty. So in the eyes of the British Nehru was a worthy candidate to be their loyal subject. When Indian Congress signed the accord with the British that granted “swaraj” it is clearly stated that Netaji is a traitor and he will be handed over to the British where ever and when ever he be arrested.
    Gandhi had also said that he does not want freedom at the cost of even one drop of British blood but he never uttered a word against millions of mass genocide in British India? Gandhi-Nehru loyalty towards the British earned them the crown of India with which Nehru dynasty is still ruling India.
    The famous British Prime Ministers Sir Winston Churchill had said if there would have been three-four more Gandhi’s were born in India British could have ruled India for few more centuries. The then British PM Clement Attlee had accepted that Indian Army was not loyal to the British due to Subash Chandra Bose and that was the reason for them to leave India. (FYI There were only three hundred British controaling the entire Indian peninsula) Mr. Writer please tells us what the real history of Indian freedom is! If you wish to uncover the true history of Indian freedom then I suggest you start with the accord signed between Indian Congress and the British in 1947.

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