‘यात्रा व पर्यटन से देवपूजा व संगतिकरण का लाभ,

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ओ३म्

-मनमोहन कुमार आर्य,

जब हम किसी उद्देश्य से एक स्थान से अन्य दूरस्थ स्थान पर जाते हैं तो घर से निकल कर घर वापिस लौटने तक भ्रमण किये गये स्थानों पर जाने को हम यात्रा का नाम देते हैं। यात्रा के अनेक उद्देश्य हुआ करते हैं। जैसे बच्चे सुदूर स्थानों पर रहने वाले अपने माता-पिता, दादी-दादा व नानी-नाना के घर जाते हैं तो इसे यात्रा कहा जाता है। इसी प्रकार शिक्षा के उद्देश्य से हम आवासीय स्कूलों में पढ़ते हैं तो हमारा वहां जाना व अवकाश के दिनों में घर पर आना भी एक संक्षिप्त व सीमित यात्रा की परिधि में आता है। शिक्षा पूरी होने पर व्यवसाय के लिए युवक व युवतियां प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए आवेदन करते हैं। लिखित परीक्षा के लिए दूर-दूर के स्थानों पर जाना पड़ता है। उत्तीर्ण होने पर साक्षात्कार के लिए भी किसी अन्य दूरस्थ स्थान पर जाना होता है। यह सब भी यात्रायें हैं। यदि हमें अपने नगर या गांव से कहीं बाहर व्यवसाय करना होता है तो सप्ताह, माह या इससे अधिक अवधि के अन्तराल पर आना-जाना होता है। विवाह यदि निवास स्थान से दूर अन्य नगरों व स्थानों पर होता है तो समय-समय पर ससुराल में जाना-आना होता है तो इसके लिए भी यात्रा करनी पड़ती है।

 

केन्द्र सरकार, सार्वजनिक प्रतिष्ठान, राज्य सरकारों व कुछ प्राइवेट सेवाओं में नियोक्ताओं की ओर से अपने कार्मिकों को वर्ष, दो वर्ष या इससे कुछ अधिक अवधि में एक या अनेक बार यात्रा सुविधा दी जाती है जिसका उपभोग कर व्यक्ति पर्यटन के प्रसिद्ध स्थानों यथा पोर्ट ब्लेयर, गोवा, कन्याकुमारी, गंगटोक, शिलांग-गुवाहाटी, अरूणाचल प्रदेश, मुम्बई, द्वारिका, सोमनाथ मन्दिर, हरिद्वार, ऋषिकेश, मसूरी आदि स्थानों पर जाते हैं। उन्हें अपने विभाग की ओर से यात्रा का किराया मिल जाता है और परिवार के लोग कुछ होटल-धर्मशालाओं व भोजन आदि पर अपनी तरफ से व्यय करके इन स्थानों पर घूम कर मन को प्रसन्न व आनन्दित अनुभव करते हैं।  ईश्वरीय ज्ञान मानी जाने वाली सृष्टि की सबसे प्राचीन पुस्तक वेद में एक स्थान पर आता है कि हे मनुष्यों, तुम ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि को देखो, परखो व जानों, जो न कभी नष्ट होती है, न पुरानी और जीर्ण होती है। दार्षनिक सिद्धान्त भी है कि रचना को देखकर रचयिता का ज्ञान होता है। इसी प्रकार से सृष्टि की सुन्दरता, भव्यता व रचनादि विशेष गुणों को देखकर इसके रचयिता सृष्टिकर्ता अर्थात् ईश्वर का ज्ञान होता है। अतः यात्रा का उद्देश्य ऐसे स्थानों पर जाना होता है जो सुन्दर, सुविधापूर्ण, सुख की अनुभूति कराने वाले हों व इसके साथ वहां के लोगों के पहनावें, बोलचाल, व्यवहार, आचार व संस्कृति आदि का अनुभव कराने वाले हों।  मनुष्य को सुखद जीवन व्यतीत करने के लिए संसार में जड़ व चेतन की संगति करना अपरिहार्य है। मनुष्य का जन्म ही संगति का परिणाम है। परिवार में बच्चों की माता-पिता, दादी-दादा, भाई-बहिन, ताऊ-चाचा, तायी-चाची, बुआ आदि हुआ करती हैं। इनकी संगति व सहयोग से ही शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक विकास व उन्नति हुआ करती है। इसके बाद वह अपने आचार्यों व सहपाठी विद्यार्थियों की संगति करते हैं जिससे उन्हें नये-नये अनुभव होते हैं। इसी प्रकार से वह जीवन-यात्रा में जिन-जिन व्यक्तियों के सम्पर्क में आते हैं उनकी संगति से भी उन्हें नये-नये अनुभव होते हैं। इन सबसे व्यक्तित्व के निर्माण में लाभ होता है। यात्रा या पर्यटन का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ से ही हो गया था। तिब्बत में लगभग 2 अरब वर्ष पहले सृष्टि की रचना सम्पन्न होने, मनुष्य व प्राणी जगत की उत्पत्ति होने के बाद लोगों की जनसंख्या में वृद्धि के साथ लोग चारों ओर बढ़ते या फैलते गये। नये-नये स्थानों का अनुसंधान किया गया और वहां बस्तियां बसाईं गईं। आरम्भ में कुछ व्यक्ति 10, 20 या 50 बसे होगें जो आज एक नगर या देश बन गये हैं। इस प्रकार से यात्रा का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ में ही हो गया था जो सतत जारी है और आज भी समर्थ व सम्पन्न लोग समय-समय पर यात्रा कर अपनी उस प्रवृत्ति को पूरा करते हैं।

 

मनुष्यों में यात्रा की प्रवृत्ति जन्मजात या ईश्वर प्रदत्त एक गुण के रूप में है। इसी प्रवृत्ति के कारण सुदूर अतीत में धार्मिक पर्यटन का उद्भव हुआ था। देश की एकता व अखण्डता के लिए भी धार्मिक पर्यटन सहायक रहा है। हमारे सनातन धर्म के बन्धुओं के तीर्थ स्थान भारत के सभी स्थानों पर हैं जिससे दक्षिण, पूर्व व पश्चिम के लोग उत्तर में हरिद्वार, ऋषिकेश, बदरीनाथ, केदारनाथ आदि स्थानों पर आते हैं। यहां उत्तर भारत व अन्य स्थानों के लोग दक्षिण के रामेश्वरम्, मदुरै के विशाल भव्य मीनाक्षी मन्दिर, कांचीपुरम् के शंकराचार्य मठ, पश्चिम के सोमनाथ मन्दिर, द्वारिका, दिलवाड़ा व पालिताना मन्दिरों तथा पूर्व के कामाख्या, जगन्नाथपुरी, गंगासागर आदि स्थानों पर जाते हैं जिससे पूरे देश की यात्रा और धर्म-कर्म हो जाता है। देश के सभी स्थानों के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं। एक विचारधारा होने से प्रेम व सहयोग की भावना उत्पन्न होती है जिससे राष्ट्रीय एकता को बल मिलता है। अतः यात्रा बहु-प्रयोजनीय सिद्ध होती है। आजकल इन यात्राओं का एक पहलु और सामने आया है और वह है पर्यटन स्थल व प्रदेश का आर्थिक व सामाजिक विकास।  हम लोग चेन्नई में एक समुद्र तट पर गये जहां प्रतिदन सायं को मेला सा लगता था। वहां फुटपाथ पर सामान रखकर बेचने वाले सभी तमिल भाषी लोग थे परन्तु यह सब ग्राहकों से अच्छी हिन्दी बोल रहे थे। ऐसा ही हमने दक्षिण भारत के त्रिवेन्द्रम, मदुरै व कन्याकुमारी आदि स्थानों पर भी पाया। हमें लगता है कि यात्राओं व पर्यटन से गुजरात के महर्षि दयानन्द का वह स्वप्न कुछ साकार हुआ सा लगता है जिसमें उन्होंने कहा था कि मेरी आंखे वह दिन देखना चाहती हैं कि जब भारत के सभी स्थानों व प्रदेशों में देवनागरी अक्षरों, लिपि व हिन्दी भाषा = बोली का प्रचार होगा। यह सब कार्य पर्यटन और यात्राओं से सम्भव हुआ है। धार्मिक व पर्यटन स्थलों पर देश व विदेश से लोग आते हैं। इससे वहां होटल, वाहन व यात्रा के साधनों व इनसे जुड़े नाना छोटे-बड़े उद्योगों को बढ़ावा मिलता है और वहां का आर्थिक विकास होता है। सरकारें भी तीर्थ स्थलों व पर्यटन स्थलों के विकास के लिए सावधान हैं जिससे देश व समाज को नानाविध लाभ हो रहे हैं। हम यहां यह भी बताना चाहते हैं कि तीर्थ स्थान का अर्थ होता है कि जहां जाने से दुःख छूट जायें। प्राचीन काल में जिन स्थानों पर बड़े-बड़े योगी, ईश्वर के उपासक, ज्ञानी, चिन्तक व विचारक रहते थे, उनके आश्रमों को तीर्थ कहा जाता था। वहां जाने से यात्री अपनी शंकाओं, समस्याओं, दुःखों, सामाजिक व आध्यात्मिक प्रश्नों का समाधान पाते थे। आजकल तीर्थ स्थानों पर जाने का महात्म्य तो बहुत बताया जाता है परन्तु वह किसी का आज तक पूरा हुआ या नहीं, इसका कोई प्रमाण किसी के पास नहीं है। यहां महर्षि दयानन्द व दर्शनों का कार्य-कारण cause and effect का सिद्धान्त काम करता है। इसे कर्म-फल सिद्धान्त भी कहते हैं। कोई भी पाप क्षमा नहीं किया जाता है। कर्मों के फल भोगने ही पड़ते हैं। हां, प्रायश्चित करने से भविष्य के लिए पापों में प्रवृत्ति को रोक कर उसे सद्कर्मों में प्रेरित किया जा सकता है। यदि हम केवल किसी जड़ पदार्थों से निर्मित देव मूर्तियों के दर्शन करके ही किसी बड़े फल की इच्छा करने लगें तो यह असम्भव है। दर्शन से तो केवल आंखों को लाभ हो सकता है जैसे भोजन का लाभ उठाने के लिए खाना पड़ता है, दवा को देखने से लाभ नहीं होता अपितु उसे भी नियम पूर्वक सेवन करने से लाभ होता है। मूर्तिपूजा से भी इसी प्रकार आंखों से अनुभूत क्षणिक सुख-लाभ ही होता अन्य कुछ नहीं। यदि हमारे कर्म व पाप-पुण्यों में ईश्वर के गुणों व शिक्षाओं का सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है तो उससे कदापि कोई लाभ नहीं न हुआ है न होगा। उदाहरण के लिए यदि कोई कसाई तीर्थ यात्रा करे और वह अपना काम उसके बाद भी जारी रखे तो उसे इस जन्म व परजन्म में लाभ होने के स्थान पर हानि ही होती है। हां, यदि बार-बार परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाला कोई मूर्तिपूजक व तीर्थगामी विद्यार्थी किसी गुरू के पास जाकर अथवा किसी तीर्थ स्थान पर जाकर वहां विद्वानों से मिलकर अपना सुधार करे, मनोयोग से समझ कर अध्ययन करे, असत्य व मिथ्या आचरण के त्याग की प्रतिज्ञा, व्रत व संकल्प करता है तथा सत्य के ग्रहण व उसके लिए पुरूषार्थ का संकल्प कर तदानुकूल आचरण करता है तो इससे निश्चित रूप से उसे लाभ होगा।

 

यात्रा के सम्बन्ध में यह भी महत्वपूर्ण है कि हमारा जीवन अपने आप में एक यात्रा है। हम यहां माता-पिता के माध्यम से संसार में आते हैं, कर्म करते हैं, पूर्व व वर्तमान जीवन के कर्मों के फलों को भोगते हैं, सुख-दुख का अनुभव कर शैषव, किशोर, युवा व वृद्धावस्थाओं से गुजरते हुए मुत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। कर्मों की बची पूंजी जिसे प्रारब्ध या भाग्य कहा जाता है उसके अनुसार हमारा पुनर्जन्म होता है और फिर उस जन्म में भी प्रारब्ध का भोग व नये कर्म करके नया प्रारब्ध बना कर वहां से फिर अन्य जन्म के लिए आगे बढ़ जाते हैं। इस प्रकार से जीवन की एक अनन्त यात्रा चल रही है जिसका कोई प्रारम्भ नहीं है और न हि अन्त। यह बिना ओर व छोर वाली नदी है। इसमें निरन्तरता है। विज्ञान का अविनाशिता का नियम अर्थात् न कोई वस्तु बनाई जा सकती है और न हि नष्ट की जा सकती है, यहां भी लागू होता है। आत्मा न बनती है न नष्ट होती है। इसी बात को कहा जाता है कि आत्मा अजन्मा व अमर है, अनादि व अनन्त है। इस जीवन यात्रा में एक बड़ा मुकान “मोक्ष या मुक्ति” का आता है। मुक्ति सद्कर्मों व ईश्वर साक्षात्कार का परिणाम होती है। सद्कर्मों व ईश्वरोपासना से ईश्वर साक्षात्कार के लिए पुरूषार्थ करना पड़ता है। यह पुरूषार्थ अर्थात् धर्म-कर्म ही मोक्ष व मुक्ति का कारण, साधन या आधार होता है। चिन्तन, मनन, अध्ययन व अनुभव के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह मत, सम्प्रदाय व धर्म के नाम से माने जाने वाले सभी धर्मावलम्बी मनुष्यों के लिए एक समान ही है। संसार के सभी मत-सम्प्रदायों व धर्मों का आधार मनुष्य ही हैं, परमात्मा नहीं। परमात्मा ने तो एक ही धर्म बनाया है और वह है मानवता, मनुष्यता, सत्य का आचरण, ज्ञान पूर्वक कर्म।  सम्प्रदाय व मत विशेष की विचारधारा में अपने आपको कैद न करके इस ब्रह्माण्ड की स्वयं को एक इकाई मानना और सर्वव्यापक, सर्वोत्तम, चेतन, न्यायकारी व आनन्दस्वरूप परमात्मा को अपना नेता, आचार्य, गुरू, माता-पिता, राजा और न्यायाधीश मानना चाहिये। इससे स्वयं को भी सुख मिलेगा और संसार में भी सुख-शान्ति में वृद्धि होगी। यह जीवन यात्रा का संक्षेप में उल्लेख किया है जो कि सत्य है और इसे स्वाध्याय, विचार व चिन्तन तथा विद्वानों से शंका समाधान कर जाना व माना जा सकता है।

 

यात्रा कैसी भी हो, उसका एक उद्देश्य होता है। वह उद्देश्य सुख व सकून की प्राप्ति व उपलब्धि है। जब तक संसार है, मनुष्य छोटी-बड़ी सभी प्रकार की यात्रायें करते रहेगें। हां, हमें यह प्रयास करना चाहिये कि यात्रा में जाने पर हम जहां जायें वहां के बारे में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करें। वहां जो सबसे अधिक ज्ञानी व्यक्ति हों, उनसे मिले। उनके जीवन का निचोड़ जाने और उन्हें सम्मान व कुछ द्रव्य देकर तथा कृतज्ञता पूर्वक उनसे विदा लें। वहां सामान्य व सभी लोगों के सम्पर्क में आकर उन्हें अधिक से अधिक जानने का प्रयास करें। उनके अनुभवों से लाभ उठायें व अपने अनुभव उन्हें बतायें जिससे यात्रा का उद्देश्य भली-भांति पूरा हो सके।

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