बिहार चुनावः अग्निपरीक्षा किसकी ?

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संजय द्विवेदी

बिहार का चुनाव वैसे तो एक प्रदेश का चुनाव है, किंतु इसके परिणाम पूरे देश को प्रभावित करेंगें और विपक्षी एकता के महाप्रयोग को स्थापित या विस्थापित भी कर देगें। बिहार चुनाव की तिथियां आने के पहले ही जैसे हालात बिहार में बने हैं, उससे वह चर्चा के केंद्र में आ चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां तीन रैलियां कर चुके हैं। एक खास पैकेज भी बिहार को दे चुके हैं। वहीं दूसरी ओर यह चुनाव नीतिश कुमार और लालू प्रसाद यादव के लिए भी जीवन-मरण का प्रश्न है। मोदी तो केंद्र में हैं और प्रधानमंत्री रहेंगें किंतु अगर लालू-नीतिश की सेना हारती है तो उनके लिए केंद्र में तो जगह है नहीं, राजनीतिक जमीन भी जाएगी।

कसौटी पर है टीम मोदी का राजनीतिक कौशलः

बदले राजनीतिक परिदृश्य में कभी नीतिश कुमार की सहयोगी रही भारतीय जनता पार्टी अब दुश्मन नंबर वन है। मोदी के भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आते ही नीतीश कुमार और जनता दल यू के साथ रिश्ते बिगड़ गए थे। इन अर्थों में मोदी और नीतिश कुमार पुराने राजनीतिक प्रतिद्वंदी हैं, जो लोकसभा चुनाव के बाद फिर विधानसभा चुनाव में भी एक-दूसरे के सामने है। राज्य में किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार धोषित न करके भाजपा ने मोदी के नेतृत्व और चेहरे को ही आजमाने का फैसला किया है। यह फैसला भी कम साहसिक नहीं है। भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह वैसे भी अपने राजनीतिक दुस्साहस के लिए ख्यात हैं। दिल्ली राज्य के प्रयोग में असफलता के बावजूद उनका आत्मविश्वास चरम पर है। बिहार चुनाव दरअसल मोदी के साथ शाह के संगठन कौशल की भी परीक्षा है। संभावित चुनाव के चलते ही मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में भाजपा के पांच और सहयोगी दलों के 2 मंत्रियों को जगह दी थी। यह संयोग मात्र नहीं है कि भाजपा के रविशंकर प्रसाद, राजीव प्रताप रूढ़ी, राधामोहन सिंह, गिरिराज सिंह, रामकृपाल यादव और सहयोगी दलों के रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा केंद्र में मंत्री हैं। बावजूद इसके अनंत कुमार और धर्मेंद्र प्रधान जैसे दो अन्य मंत्री भी बिहार के मैदान में उतारे गए हैं। इसके साथ ही राष्ट्रीय महासचिव भूपेंद्र यादव और गुजरात के सांसद सीआर पाटिल भी बिहार में सक्रिय हैं। शाहनवाज हुसैन को भागलपुर रैली का प्रभारी बनाया गया तो जदयू में रहे साबिर अली को ऐन चुनाव के पहले पार्टी ने प्रवेश दिया। जबकि पहले उठे विवाद में उन्हें पार्टी में शामिल कर तुरंत हटा दिया गया था। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को राजग में लाकर भाजपा अध्यक्ष ने एक बड़ा दांव चला है। इसके साथ ही सवाल यह भी है कि क्या भाजपा अपने संगठनात्मक आधार पर ही यह चुनाव लड़ेगी या संघ परिवार के स्वयंसेवक भी उसके साथ मैदान में उतरेगें। दिल्ली में हुयी कड़वाहटों के बाद अगर समन्वय बन सका तो संघ एक बड़ी ताकत भाजपा को दे सकता है। लोकसभा चुनाव में जिस प्रतिबद्धता से संघ के स्वयंसेवक मैदान में उतरे, क्या वह तेजी संघ दिखाएगा यह आज भी एक बड़ा सवाल है।

biharशाह चूके तो उठ खड़े कई होंगें शांता कुमारः

नरेंद्र मोदी और अमित शाह की कार्यशैली से परंपरागत नेतृत्व तो आहत है ही तमाम लोग गुस्से से भरे हैं। दिल्ली चुनाव के बाद अगर बिहार चुनाव में भी पराजय मिलती है तो शाह के लिए कदम-कदम पर शांता कुमार जैसे लोग दिखेंगें। बिहार में शत्रुध्न सिन्हा और कीर्ति आजाद तो अपनी असहमतियां जताते ही रहते हैं। बिहार चुनाव के नकारात्मक परिणाम अमित शाह के लिए भारी पड़ सकते हैं। जबकि अगर भाजपा बिहार जीत जाती है तो अमित शाह का डंका एक बार फिर बज सकता है और उनके विरोधी हाशिए लग सकते हैं। भाजपा ने रामविलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी की पार्टियों से तालमेल कर दलितों-पिछड़ों की गोलबंदी बनाने की कोशिश भी की है, जिसमें वह अपने वोट आधार को मिलाकर एक बड़ी ताकत बनना चाहती है। बिहार के लोकसभा चुनावों के परिणामों से वह आत्मविश्वास से भरी भी है, किंतु यह मानने में संकोच नहीं करना चाहिए कि यह राज्य का चुनाव है और इसके मुद्दे बहुत अलग हैं। इस मायने में बिहार का चुनाव देश की राजनीतिक दिशा तय करने वाला चुनाव भी है।

दांव पर है सामाजिक न्याय की शक्तियों का भविष्यः

बिहार अरसे से सामाजिक न्याय की शक्तियों की लीलाभूमि रहा है लालूप्रसाद यादव और नीतिश कुमार इसके प्रमुख चेहरे बने। किंतु टूट-फूट और बिखराव ने इस सामाजिक शक्ति को कई खेमों में बांट दिया है। भाजपा ने भी अपने सामाजिक आधार का विस्तार करते हुए, हर समाज में नेता खड़े कर दिए हैं। आज भाजपा के पास राज्य में भी सुशील कुमार मोदी और नंदकिशोर यादव जैसे पिछड़े वर्ग से आने वाले चेहरे हैं, तो गठबंधनों के माध्यम से उसने अपना सामाजिक आधार मजबूत ही किया है। इस अर्थ में लालू और नीतिश कुमार के लिए यह चुनाव अस्तित्व की परीक्षा भी हैं। शायद इस गंभीर खतरे को भांपकर ही दोनों साथ आए हैं। अब वे केजरीवाल को साथ लाकर अपने सामाजिक आधार को व्यापक करने की कवायद में हैं। यह देखना भी गजब है कि लालू यादव के साथ नीतिश कुमार व केजरीवाल वोट मांगने निकले हैं। राजनीति इसीलिए संभावनाओं का नाम है और यहां ऐसे प्रयोगों की सफलता काफी मायने रखती है। बिहार का चुनाव इस अर्थ में खास है कि अगर यह प्रयोग सफल हुआ तो भाजपा के खिलाफ अन्य राज्यों में विपक्षी पार्टियां इसी तरह गोलबंद होंगीं। दिल्ली वाया बिहार नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्षी दलों की यह एकजुटता एक अलग लहर पैदा कर सकती है, जिसके परिणाम उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में एक अलग दृश्य खड़ा कर सकते हैं। कुल मिलाकर बिहार में जो भी होगा वह मोदी-शाह और नीतिश-लालू के लिए एक बड़ा सबक होगा। बिहार की जमीन से निकला संदेश भारतीय राजनीति के वर्तमान चित्र को एक नई दिशा देने वाला साबित हो सकता है। हां गजब यह कि कांग्रेस इस राज्य में अरसे अप्रासंगिक है, आने वाले चुनाव में उसका कोई बड़ा रोल नहीं है। नीतिश को भी सोनिया-राहुल के बजाए अरविंद केजरीवाल ज्यादा उपयोगी दिख रहे हैं। एक राष्ट्रीय दल की इस बेबसी पर दया आती है। किंतु इतना तय है कि बिहार में यदि नीतिश कुमार जीतते हैं तो कांग्रेस उसे अपनी जीत मानकर खुश हो  लेगी। खासकर उप्र और बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस के पराभव की यह कहानी जारी रहनी है किंतु मोदी का अश्वमेघ यदि बिहार ने रोक लिया तो भाजपा में भी भारी उथल-पुथल की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

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