-सतीश सिंह
बिहार में विधानसभा का चुनाव अब नजदीक आ चुका है। कुछ ही दिनों के बाद चुनावी सरगर्मियां तेज हो जायेंगी। सुगबुगाहट तो शुरु भी हो चुकी है।
इस बार चुनाव में सघन चुनाव प्रचार के लिए सबसे महत्वपूर्ण कारक बिहार के दूर-दराज इलाकों को जोड़ती हुई सड़कें और सेतुएं होंगी। इनके दम पर ही नेता जनता के बीच आसानी से पहुँच पायेंगे और अपनी-अपनी बातों को उनके सामने रख सकेंगे। हालांकि अभी भी कुछ लोग यह आरोप लगाते हैं कि हेमामालिनी के गाल के माफिक रोड सिर्फ पटना में ही बने हैं, लेकिन यह आधा सच है।
हमेशा से बेहतर सड़क और नदियों पर बने मजबूत पुल आधारभूत सरंचना को खाद और पानी देते रहे हैं। इस तथ्य को वर्तमान सरकार ने बखूबी समझा है और अपनी सोच को कार्यरुप देने के लिए वह अथक प्रयास भी कर रही है।
सरकार के प्रयासों को समझने के लिए हमें बागमती नदी के किनारे बसे हुए एवं नेपाल की सीमा पर अवस्थित नगर पंचायत बैरगनिया की कहानी को समझना होगा, जोकि बिहार के सीतामढ़ी जिला में पड़ने वाला भारत का अंतिम नगर पंचायत है।
साल के कई महीनों तक बागमती नदी में उफान रहने के कारण यहाँ के निवासियों को अनेकानेक परेशानियों से रुबरु होना पड़ता है। सबसे बड़ी समस्या रेल के ट्रैक में पानी भर जाने की वजह से उत्पन्न होती है। बारिश के दिनों में यह नगर पंचायत देश के अन्य भागों से कट जाता है। स्वास्थ व्यवस्था चरमरा जाती है। रसद की आपूर्ति बाधित होने के कारण लोगों को फ़ाकाकशी का सामना करना पड़ता है। किसी तरह से खाद्य पदार्थों की आपूर्ति नाव के सहारे की जाती है, पर दलालों के हाथों से गुजरने के बाद उसकी कीमत बढ़कर तीन से चार गुना हो जाती है।
बीमार होने पर नगरवासी या तो सीतामढ़ी के जिला अस्तपताल जा सकते हैं या फिर मुजफ्फरपुर। गंभीर बीमारी की स्थिति में उन्हें पटना ले जाना पड़ता है। अब तक कई लोग सही समय पर ईलाज नहीं उपलब्ध होने के कारण असमय ही काल-कवलित हो चुके हैं।
हालत के बद से बदतर होने और रोजगार के अवसरों के लगातार सिकुड़ने के कारण यहाँ के युवा नागालैंड या पंजाब रोजगार की तलाश में पलायन कर रहे हैं। नक्सलवाद का नासूर यहाँ भी फल-फूल रहा है, जिसके कारण शाम के 6 बजे के बाद पूरे नगर पंचायत में सन्नाटा पसर जाता है।
सालों-साल से पुल निर्माण के लिए यहाँ के निवासी संघर्ष कर रहे हैं। 1985 में पुल निर्माण संघर्ष समिति का भी गठन किया गया था। अब इस संघर्ष समिति का सपना साकार होने वाला है।
धेंग गाँव के नजदीक 600 मीटर लंबे पुल का निर्माण बागमती नदी पर पूरा हो चुका है, जिसका उद्धाटन जून, 2010 के अंत तक होने की संभावना है। इस पुल के बनने से बैरगनिया नगर पंचायत को एक नया पहचान मिल सकेगा। उल्लेखनीय है कि 1991 से कटऔंझा नदी पर बन रहे पुल का निर्माण भी 2007 में ही पूरा हुआ। इस पुल के बनने से सड़क मार्ग के द्वारा सीतामढ़ी से मुजप्फरपुर की यात्रा अवधि कई घंटे कम हो गई है।
कभी सड़क मार्ग से बिहार के एक छोर से दूसरे छोर तक की यात्रा करने के बाबत कोई सपने में भी नहीं सोच पाता था। अब लोगबाग धड़ल्ले से सड़क मार्ग से यात्रा कर रहे हैं और यात्रा की अवधि दिनों से सिमटकर घंटों में तब्दील हो चुकी है।
बावजूद इसके खासकरके बिहारियों से ईर्ष्या करने वालों को बिहार की यह सफलता पच नहीं पा रही है। कुछ बिहारी भी इस कवायद में गैर बिहारियों के साथ शामिल हैं, लेकिन सच तो सच ही है। बिहार सरकार द्वारा सार्वजनिक किया हुआ निम्नवत् आंकड़ा बिहार की बदलती हुई तस्वीर के बारे में बता रहा है:-
वित्तीय वर्ष
| बिहार के सड़क की कहानी किलोमीटर में
|
2004-05 | 384.6 |
2005-06 | 415.48 |
2006-07 | 984.04 |
2007-08 | 1913.19 |
2008-09 | 3106.03 |
2009-10 | 3474.77 |
स्रोत: बिहार सरकार
मुख्यमंत्री सेतु निर्माण योजना (एमएमएसएनवाई)
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एजेंसी
| योजनाओं की संख्या (जिसको अमलीजामा पहनाया गया है) | 2007-08 | 2008-09 | 2009-10 | कुल योग |
जिला प्रशासन
| 2,026 | 128 | 421 | 627 | 1,176
|
बिहार राज्य पुल निर्माण निगम (बीआरपीएनएन)
| 599 | 60 | 157 | 187 | 404
|
क्ुल योग
| 2,625
| 188
| 578
| 814
| 1,580
|
स्रोत: बिहार सरकार
सन्1967 में बिहार में भयानक अकाल पड़ा था। अकाल के दौर में चौथा आम चुनाव हुआ, तो बिहार में संविद सरकार बनी। उसमें कम्यूनिस्ट पार्टी भी शामिल थी। कम्यूनिस्ट नेता इंद्रजीत सिंह राजस्व के साथ ही अकाल मंत्री भी थे। उन्होंने सरकार के प्रखर आलोचक बाबा नागार्जुन को अकाल के इलाकों का दौरा करके राहत कार्यों के बारे में रिर्पोट देने की जिम्मेदारी दी थी।
अब भले ही बाबा नागार्जुन नहीं हैं, पर वास्तविकता को इसी तर्ज पर फिर से बिहार का भ्रमण करके देखा और समझा जा सकता है।
सफलता की इस इबारत को लिखने वाले शिल्पकार राज्य सड़क सचिव प्रत्यय अमृत की चर्चा के बिना यह कहानी अधूरी मानी जाएगी।
पुलों का निमार्ण करने वाली बिहार राज्य पुल निर्माण निगम में फिर से जान फूँकने का काम श्री अमृत ने ही किया है। श्री अमृत से पहले तक निगम पर राजनीतिज्ञों का कब्जा हुआ करता था।
निगम के कर्मचारी वेतन विसंगति और कार्यालय के घुटन भरे माहौल के कारण निष्प्राण हो चुके थे। लिहाजा निगम को रास्ते पर लाना आसान काम नहीं था। फिर भी इस चुनौती को स्वीकार करते हुए श्री अमृत ने निगम के कर्मचारियों को खुश करके 16-17 से सालों से अधर में लटके हुए परियोजनाओं को महज 2-3 सालों में पूरा करवा करके निष्चय ही एक मिसाल कायम किया है। यह श्री अमृत का ही कमाल था कि उन्होंने प्रत्येक परियोजना के लिए प्रति 100 करोड़ में से 13.5 करोड़ का मेहनताना निगम के लिए तय किया और राज्य सरकार ने उसे खुषी-खुषी मान भी लिया। बरसों से खराब हालत से गुजर रही निगम ने फिर से हैंडसम लाभ अर्जित करना शुरु कर दिया है।
”हम विष्वास का सेतु बनाते हैं” स्लोगन ने पूरे निगम में उत्साह और उर्जा का संचार कर दिया है। आज मुसलसल सभी परियोजनाओं की निगरानी की जा रही है। निगम के कर्मचारियों का एक निष्चित अवधि के अंतराल पर स्वास्थ परीक्षण किया जा रहा है। कर्मचारियों के लिए जिम व क्लब बनाये गये हैं। मनोरंजन केंद्र की भी स्थापना की गई है।
परियोजनाओं के विस्तृत रिर्पोटों को तैयार करने के लिए निजी संस्थाओं का सहारा लिया जा रहा है। ठेकदारों का पंजीकरण किया गया है। विषेषेज्ञों की सहायता ली जा रही है।
जिस निगम ने 30 सालों में राज्य में 317 पुलों का निर्माण करवाया था। उसी निगम ने ढाई साल में 500 पुलों के निर्माण का लक्ष्य रखा है। वित्तीय वर्ष 2004-2005 में निगम ने 42.62 करोड़ का लाभ अर्जित किया था, वह वित्तीय वर्ष 2008-09 में बढ़कर 768 करोड़ रुपया हो गया है।
जुलाई 2009 से श्री अमृत सड़क निर्माण में लग गये हैं। वित्तीय वर्ष 2004-2005 में जहाँ मात्र 384.60 किलोमीटर सड़क का निर्माण हुआ था, वह वित्तीय वर्ष 2009-2010 में बढ़कर 3,474.77 किलोमीटर हो गया है। इस सफलता में श्री अमृत की काबलियत, मेहनत और जिजीविषा को कम करके नहीं आंका जा सकता है।
बहुत सारे लोग नीतीश सरकार के प्रशासनिक सिपहलसार के बढ़ते प्रभाव को लेकर भी चिंतित हैं। लोगों का कहना है कि सत्ता के विकेंद्रीकरण की संकल्पना बिहार में टूट रही है। मुखिया और सरपंच कठपुतली बनकर रह गए हैं। उनकी आवाज को प्रखंड कार्यालय का लिपिक तक नहीं सुनता है। भ्रष्टाचार को व्यापकता मिल रही है। रिष्वत और दलाली का बाजार हर तरफ जवान है। पिछड़े और मुस्लिम समाज के पौढ़ और बुर्जर्गों का मानना है कि लालू प्रसाद ने उनकी पहचान को समाज में स्थापित किया था, पर इन्हीं वर्गों के नौजवान पीढ़ी की सोच एकदम से अलग है। वे बिहार में विकास के आगाज को बिहार के लिए शुभ संकेत मानते हैं। बावजूद इसके दिल्ली अभी भी दूर है।
राज्य में षिक्षकों और नर्सों की भी भारी संख्या में भर्ती की गई है, किन्तु उनको मिलनेवाला वेतन बढ़ती मंहगाई के साथ ताल-मेल बैठाने में पूर्ण से असफल साबित हो रहा है। इस तरह से देखा जाए तो सड़क और पुल के अलावा अस्तपताल और स्कूलों के उत्थान में राज्य सरकार की सक्रिय भूमिका रही है, किंतु उर्जा के क्षेत्र में विकास होना अभी भी बाकी है।
रोड और पुल से ही केवल विकास नहीं होता है। फिर भी राज्य में सड़क का निमार्ण कार्य लगातार चल रहा है। राज्य सरकार के खजाने से राष्ट्रीय राजमार्ग के मरम्मत का कार्य चल रहा है, परन्तु बिहार के सम्पूर्ण विकास के लिए विकास के सभी कारकों पर बराबर तवज्जो देना होगा।