राजनीति

भाजपा में पनपे मोदीवाद को झटका

प्रमोद भार्गव

भाजपा के वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी द्वारा तीन पदों से इस्तीफा देना नरेंद्र मोदी के लिए ‘सिर मुडाते ही ओले पड़ने’ की कहावत को चरितार्थ करने वाला फैसला है। जाहिर है, भाजपा में तेजी से पनप रहे मोदीवाद को झटका लगा है। हालांकि इस झटके का असर अर्से तक नहीं रहेगा। क्योंकि आडवाणी ने राजनाथ सिंह को लिखे त्याग-पत्र में व्यक्तिवादी अजेंडे को आगे बढ़ाने की जो बात कही है, अंततोगत्वा इसी व्यक्तिवाद को आडवाणी भी बढ़ावा देते रहे हैं। मोदी जिस व्यक्तिवादी आचरण में ढलकर राष्ट्रीय फलक पर उभरे हैं, उसे एक हद तक अंदरुनी शह और मुखर प्रोत्साहन आडवाणी से ही मिला है। यही वजह रही कि जब गुजरात में नरेंन्द्र मोदी के बढ़ते व्यक्तिवादी अजेंडे का केशूभार्इ पटेल ने विरोध किया, तब आडवाणी अपने कानों में अंगुली ठूंसे रहे। आज जब यही व्यक्तिवाद आडवाणी के राजनीतिक वर्चस्व और प्रधानमंत्री बन जाने की महत्वाकांक्षा के बरक्ष संकट बनकर उभरा, तब यह अजेंडा पार्टी का अजेंडा कैसे हो गया ? दरअसल यह तो एक बहाना है, असल में तो इस्तीफे के जरिए इस दिग्गज नेता की कुंठा ही उजागर हुर्इ है। जिसकी हानि आडवाणी को ही उठानी होगी। उनकी हालत धीरे-धीरे त्रिशंकु में तब्दील होती चली जाएगी।

लोकतंत्र की स्वस्थ परंपरा के लिए जरुरी है कि किसी भी दल की राजनीति व्यक्ति केन्द्रित न हो? लेकिन हमारे यहां चाहे राष्ट्रीय दल हों अथवा क्षेत्रीय सभी की भूमिका व्यक्ति केन्द्रित मंशा से फलीभूत हो रही है। भाजपा में मोदी तो कांग्रेस में राहुल को लेकर इसी भाव को आगे बढ़ाया जा रहा है। क्षेत्रीय दलों में भी बसपा में मायावती, सपा में मुलायम, राजद में लालू, नेशनल कांफ्रेस में फारुक अब्दुल्ला, तृणमूल कांग्रेस में ममता, अन्ना द्रमुक में जयललिता, तेलेगुदेशम में चंद्रबाबू नायडू और जद सेकुलर में एचडी देवगौड़ा ऐसी ही व्यक्ति केन्द्रित राजनीति के प्रतीक हैं। यह राजनीति वंशवाद को भी बढ़ावा देती है। मुलायम, देवगौड़ा और फारुक वंशवादी राजनीति को ही आगे बढ़ा रहे है। इस एकतंत्रीय राजनीति के हठधर्मी और तानाशाह हो जाने के भी खतरे हैं। इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल में इसी तानाशाही प्रवृतित की परछार्इं थी। यह स्थिति इसलिए भी मजबूत हो रही है, क्योंकि साम्यवादी दलों को छोड़, सभी में आतंरिक लोकतंत्र की पुनीत व्यवस्था खत्म हो गर्इ है। दलों में निर्वाचन प्रक्रिया को संविधान सम्मत बनाने की जरुरत है। मोदी की अब तक की जो कार्यशैली रही है, उसमें एकतंत्री हुकूमत ऐन-केन-प्रकारेण प्रोत्साहित करने की हठधर्मिता परिलक्षित है। भाजपा का जो विधान है, उसमें ऐसा कोर्इ प्रावधान नहीं है कि बाकायदा एक चुनाव अभियान समिति का कार्यकारिणी की बैठक में गठन हो और उसका अध्यक्ष मनोनीत किया जाए ? लेकिन मोदी का कद बढ़ाने और उन्हें देशव्यापी स्तर पर महिमामंडित करने की दृष्टि से संघ के कहने पर राजनाथ सिंह ने विधान विरुद्ध फैसले को अंजाम तक पहुचाया।

इसमें कोर्इ दो राय नहीं कि भाजपा को राष्ट्रीय फलक पर खड़ा करने और उसे 2 से 182 सांसदों की पार्टी बनाने का श्रेय आडवाणी को जाता है। हालांकि इस जीत की पृष्ठभूमि में हिंदुत्व और राम मंदिर निर्माण जैसे संघ के  मुददे ही अंगड़ार्इ ले रहे थे। आडवाणी के कद का आदमकद में जो विस्तार हुआ, उसे हिुदंत्व की कटटरता से ही उर्जा मिली। बार-बार रथयात्रा निकालकर वे व्यक्तिवादी अजेंडे को ही आगे बढ़ाने के उदाहरण पेश करते रहे। इसलिए लिहाज से इस लौहपुरुष का यह कहना कि पार्टी आदर्शो से किनारा करके व्यक्तिवाद को बढ़ावा दे रही है, शोभा नहीं देता। दरअसल इस इस्तीफे की पृष्ठभूमि में उनकी अपनी पहचान का संकट खड़ा हो जाना है, जिसे वह आजीवन बनाए रखना चाहते है। देश को अल्पसंख्यकवाद, छदम धर्मनिरपेक्षतावाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे मुहावरे देकर जनता को झकझोरने वाले आडवाणी प्रखर बौद्धिकता के धनी-मानी व्यक्ति हैं, इसमें कोर्इ संदेह नहीं? लेकिन बौद्धिकता की परिणति चालाकी में कैसे बदलती है, यह आडवाणी के त्याग-पत्र से साफ होता है। उन्होंने अपने सारे पत्ते अभी भी नहीं खोले हैं। उन्होंने संसदीय दल के अध्यक्ष, प्रचार समिति और भाजपा कार्यकारिणी से तो इस्तीफा दिया है, लेकिन वे रहस्यमयी ढंग से राजग गठबंधन के अध्यक्ष, पार्टी के सांसद और प्राथमिक सदस्य अभी भी हैं। पार्टी की प्राथमिक सदस्यता किसी दल में बने रहने की पहली बुनियादी शर्त है। इससे यह अर्थ निकलता है कि मान-सम्मान और एकाध अपनी शर्त मनवाने की गारंटी के साथ आडवाणी पार्टी में बने रहेंगे। राजनाथ सिंह ने भी कार्यकारिणी की बैठक में उनका इस्तीफा नामंजूर करके साफ कर दिया है कि पार्टी आडवाणी को किसी भी हाल में छोड़ना नही चाहती।

नरेंद्र मोदी ने चुनाव अभियान की कमान जरुर संभाल ली है, लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनने का रास्ता अभी भी साफ नहीं है। वैसे भी यह नियुकित न तो भाजपा के विधानुसार है और न ही भाजपा संसदीय दल का फैसला है। यह सिर्फ संघ के दबाव और उनकी लोकप्रियता को भुनाने की दृष्टि से लिया फैसला है। मोदी राष्ट्रीय फलक पर अपनी लोकप्रियता को वोट में कितना बदल पाते है, यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही प्रमाणित होगा ? फिलहाल तो भाजपा में प्रधानमंत्री पद को लेकर बढ़ता अंतर्कलह, सूत न कपास, जुलाहों में लटठम लटठा, कहावत को चरितार्थ कर रहा है। इसके परिणाम राजग गठबंधन को बिखरा देने की हद तक पहुंच सकते हैं। यह घटनाक्रम भाजपा के लिए अहितकारी भी साबित हो सकता है। क्योंकि आडवाणी की यदि यथास्थिति बनी रहती है तो मोदी विरोधी तमाम दलों के लामबंदी के नए अवसर खुल जाएंगे। तीसरा मोर्चा भी वजूद में आने की फिराक में जुट जाएगा। हालांकि संध-मोदी और राजनाथ का समीकरण जिस अंदाज में काम कर रहा है, उससे यह कयास भी निकाला जा सकता है कि मौजूदा राजग गठबंधन की चिंता करने की बजाए भाजपा के बूते ही लोकसभा की लगभग 200 सीटें जीत ली जाएं और इस चुनाव परिणाम के बाद सत्ता प्राप्ती के लिए तात्कालिक परिस्थितियों के अनुरुप नया गठबंधन बनाया जाए। इस आशय की पुशिट संघ प्रमुख मोहन भागवत के इस बयान से भी होती है कि आडवाणी को मनाया तो जाए, लेकिन मोदी को चुनाव प्रचार की जो कमान सौंपी गर्इ है, उसकी वापिसी की शर्त पर कतर्इ नहीं। संघ प्रमुख का यह बयान आडवाणी को त्रिषंकु बनाए रखने का भी संकेत देता है।

संघ बनाम भाजपा का चरित्र अपने द्वारा ही गढ़ी मूर्तियों को भंजक करने का भी रहा है। केषूभार्इ पटेल, कल्याण सिंह और उमा भारती मूर्तिभंजन के प्रतीक हैं। इसी दिशा में आडवाणी बढ़ रहे हैं। मोदी पर लिए फैसले को बदलने से इंकार करने का मतलब है, संघ बनाम भाजपा का टेसू यहीं अड़ा। इस टेसू को चुनौती देकर कल्याण सिंह, उमा भारती और केषूभार्इ पटेल का क्या हश्र हुआ, सब जानते हैं। यह दुखद है कि आडवाणी जैसे दिग्गज भी उम्र के अंतिम पड़ाव पर जगहंसार्इ के इसी रास्ते पर है ? भाजपा में ही नहीं कमोबेश सभी राजनीतिक दलों में व्यक्तिवादी अजेंडे को आगे बढ़ाने की परंपरा रही है। इंदिरा गांधी ने मोरारजी देसार्इ को दरकिनार कर खुद को आगे बढ़ाया और प्रधानमंत्री बनीं। पीवी परसिंहराव को अलग-थलग कर सोनिया गांधी ने इसी रीति को आगे किया। एनटीरामराव को अपदस्थ कर उन्हीं के दामाद चंद्रबाबू नायडू ने आंध्रप्रदेश की सत्ता हथिया ली थी। कांशीराम को नीम बेहोशी का लाभ उठाकर मायावती बसपा सुप्रीमो बन बैठी। सत्ता की शकित की ऐसी अनेक बानगियां हैं। आखिरकार सत्ता संगठन प्रमुख के ही हाथ बाजी होती है। आडवाणी अब आदर्श और नैतिकता की दुहार्इ चाहे जितनी दे लें, उनके अर्थ उनकी महत्वाकांक्षा से ही जोड़ कर देखें जाएंगे। भीष्म पितामह की राजनीति का सूर्य उत्तरायण को प्राप्त हो, इससे पहले उन्हें बड़पन्न दिखाने की जरुरत है। क्योंकि  राजनीति के पटल पर लोकप्रियता के उभरने और लुपत होने में ही कोर्इ बहुत ज्यादा समय नहीं लगता ?