राजनीति

भाजपा का पराभव

-के. विक्रम राव

राज्य सभा के चुनाव तथा झारखण्ड में गत माह सत्ता की होड़ में भाजपा के बर्ताव से उसके आचार की शालीनता और सिद्धांन्तों की शुचिता क्षुण्ण हुई है। मात्र भाजपा का उल्लेख इसलिए कि वह अपने को जुदा मानती है। अत: उसे परखना समीचीन है। भाजपाइयों ने शायद शेक्सपियर को अत्यधिक पढ़ लिया है। इस अंग्रेजी कवि ने लिखा था कि अन्तरात्मा मनुष्य को कायर बना देती है। अत: झारखण्ड की राजनीति में भाजपाई बड़े सूरमा बनकर उभरे। लेशमात्र भी कायर नहीं। रांची में राजसत्ता हथियानी हो अथवा राज्यसभा की सीट हासिल करनी हो, भाजपा की चाल तिरछी रही। वे जानते हैं कि अन्तरात्मा साफ होती है, अत: सुबोध भी। हालांकि बड़ी मृदुल होती है, अत: आसानी से घोंटी जा सकती है। भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व अब बहुर्मुखी हो गया है, अत: ज्यादा व्यवहारिक भी। आदर्शवादिता उसके लिए अभिलषित थी, अब आवश्यक नहीं रही। कहीं कुछ अन्दर की बात तो नहीं ?

भाजपा द्वारा झारखण्ड में की गई हरकतों को बेहतर समझने हेतु इस पार्टी के इतिहास पर सरसरी दृष्टि डालें। आरंभ छ: दशक पूर्व से करना होगा जब अद्वितीय राष्ट्रभक्त डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी। तब नवस्वतंत्र भारत की राजनीति एक बेदाग कली जैसे दिखती थी। लेकिन जवाहरलाल नेहरू की महात्वाकांक्षा ने उस निष्कलंक छवि धूमिल कर डाली। पाकिस्तान से आये शरणार्थीजन की सुरक्षा और राहत के बजाय नेहरू-लियाकत संधि पर हस्ताक्षर कर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से सौदेबाजी हुई। कश्मीर में आक्रमणकारी घुसपैठियों के तुष्टिकरण हेतु युध्दबन्दी की असामयिक घोषणा कर दी जिससे एक तिहाई कश्मीर छिन गया। पड़ोसी नेपाल में सत्तासीन राजाओं के विरूद्ध और कैदी राजा त्रिभुवन के समर्थन में कोइराला बन्धुओं की अगुवाई में चले जनयुध्द का विरोध करना आदि ऐसी नेहरूवादी हरकतें थीं जिनसे आक्रोशित होकर डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नई पार्टी बनाई। उसकी सोंच और नीति राष्ट्रवादी थी। नेहरू काबीना में मंत्रीपद तजकर उन्होंने भारतीय जनसंघ बनाया था। आधारशिला नैतिकता पर टिकी थी। सत्ता और स्वार्थ के बजाय लोक-कल्याण और राष्ट्रहित पार्टी के पथप्रदर्शक स्तंभ थे। इसी पृष्ठभूमि में जनसंघ की आत्मजा भारतीय जनता पार्टी का झारखण्ड की राजनीति में रोल जांचें तो दिखता है कि भाजपा ने वीरांगना और वारांगना के मध्य का फर्क मिटा दिया। भाजपा का एकमात्र लक्ष्य झारखण्ड में सरकार बनाना है। कीमत और माध्यम चाहे जैसे हो। इसीलिए भाजपा को शिबू सोरेन से हमबिस्तर होने में भी हिचक नहीं हुई। शिबू सोरेन जिनकी सत्यवादिता घड़ी की सुई तथा कैलेण्डर के पन्नों की भांति गतिमान और परिवर्तनशील रहती है, भाजपा से लुकाछिपी खेल चलाते रहे, बेझिझक और बेशर्मी से। उन्होंने अपनी सरकार में भाजपा को शामिल किया। उसके सदस्यों को फुसलाया, लुभाया और अन्त में दुतकारा। भाजपा द्वारा सरकार बनाने में समर्थन की घोषणा की। खुश होकर भाजपा भी मुंगेरीलाल वाले सपने देखने लगी। अर्जुन मुण्डा, यशवन्त सिंन्हा और कुछ नाम मुख्य मंत्री के लिए चले। शिबू सोरेन ने भाजपा को गच्चा दिया। ठीक उसी भांति जब कटौती प्रस्ताव पर लोकसभा में भाजपा को वादा कर सोनिया कांग्रेस का साथ दिया। बहाने बनाये कि वोटिंग बटन का अन्दाज नहीं हो पाया। एक के एक बाद झूठ। मगर तरस तो भाजपा पर आती है कि वह दूध से जली मगर फिर भी गर्म दूध पीने से बाज नहीं आई। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा द्वारा झांसा खाती रही। सत्ता की मोहिनी रिझाती रही आतुर भाजपाइयों को। और नजारा वहीं दिखा जो अठारहवी सदी की फ्रेंच अभिनेत्री लूसी डोरोथी ने कहा था, ”कामिनी के हृदय नहीं होता, और वह पुरूष को मूर्ख बनाती है, क्योंकि आसक्त की मति मारी जाती है।” राजसत्ता की आसक्ति से झारखण्ड के भाजपाइयों की सैध्दानिक शुचिता भंग हो गई थी। मौकापरस्ती आ गई थी।

अब प्रश्न उभरता है कि आखिर झारखण्ड में सरकार बनाने को चूहादौड़ में केन्द्रीय भाजपाई नेतृत्व भी क्यों शामिल हो गया था? इसके लाभदायी और वाणिज्यीय कारण हैं। झारखण्ड में खनिज पदार्थ अपरिमित हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां माओवादियों को रिश्वत देकर अपना काम निकाल रही हैं। भाजपा के एक चोटी के नेता के पुत्ररत्न भी खनिज उद्योग में तकदीर चमकाने हेतु दांव चल रहे थे कि पार्टी सरकार में शामिल हो जाय। यशवन्त सिन्हा जिन्होंने भारत का सोना लन्दन की गलियों में बिकवाया था, भी सरकार बनवाना चाहते थे। जब सिन्हा साहब ठाकुर चन्द्रशेखर सिंह के मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री (1992) थे तो घर के सोने की बोली विदेश में लगवा दी थी। भारत के गांव में दिवालिया ही अपनी पत्नी का सोना बेचता है। यही यशवन्त सिन्हा साहब भाजपाई मंत्री बने। झारखण्ड में उनकी नजर सरकार के माध्यम से खनिज पदार्थ पर पड़ी रही है। इस पूरे चक्रव्यूह में कर्नाटक के एक सवर्ण भाजपाई पुरोधा तथा नवनियुक्त राष्ट्रीय अध्यक्ष भी लिपट गये थे। वर्ना ताज्जुब होता है कि इतने छोटे से राज्य में इतने बड़े पैमाने पर इतनी विशाल राष्ट्रीय पार्टी जोंक की भांति चिमट जाय। चूसने की इतनी चाहत?

भला हो राज्यपाल का कि कांग्रेस तथा भाजपा को दरकिनार रखा। शिबू सोरेन की नौटंकी खत्म करा दी। और अब राज्यसभा। राम जेठमलानी जैसे बेपेंदी के लोटे को तमाम विरोध के बाद भी टिकट देने का आखिर कया सन्देश जाता है? वही जेठमलानी, जिन्हें चन्द्रशेखर के एक चेले ने उनके आवास के सामने धरना देने पर थप्पड़ मारे थे; वहीं जेठमलानी, जिन्होंने अटल बिहारी बाजपेयी जैसे व्यक्तित्व के विरूध्द लखनऊ से कांग्रेस प्रत्याशी बनकर लोकसभा चुनाव में ताल ही नहीं ठोंकी, अनर्गल प्रलाप की सारी हदें तोड़ दी थी, वहीं जेठमलानी, जो इन्दिरा गान्धी के हत्यारों की न्यायालय में पैरवी करते नहीं थके और मोहम्मद अफजल को फाँसी के बजाय जन्मकैद दिये जाने की वकालत सुप्रीम कोर्ट में करते रहे? हालांकि राज्यसभा निर्वाचन में जो धनबल का दुरूपयोग हुआ, वह कोई रोक नहीं पाया। लेकिन भाजपा सरीखी पार्टी जिसे अभी इतिहास की लम्बी पारी खेलनी है, अगर सुधरी नही ंतो आन्तरिक विरोधों से ग्रसित होकर टूट जाएगी। उपाय, बल्कि उपचार केवल अन्तरात्मा की आवाज सुनने तथा मानने में है। क्योंकि अन्तरात्मा को आत्मरक्षा की आवश्यकता नहीं पड़ती। मगर अपराध बोध हमेशा बचाव के उपकरण तलाशता है। अत: हर संस्कारी, खासकर भाजपा सरीखी भिन्नता वाली पार्टी को अपनी सिद्धान्तप्रियता हेतु अमरीकी पत्रकार नाथानियल हावथोर्न की बात माननी चाहिए कि यदि अन्तरात्मा एक बार कचोटे तो वह चेतावनी है। यदि फिर कचोटे तो समझ लें कि दोषी करार दिये गये है। झारखण्ड की राजनीति से अब टीस ही नहीं उठती है। ग्लानि होती है। पश्चाताप होना चाहिए भाजपा को। देर हो गई तो प्रायश्चित करना पड़ेगा। इसे तय भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व को करना होगा।