राजनीति

नीतिश बाबू के बिहार में भाजपा की दुविधा

-डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

नीतिश बाबू पिछले चार वर्षो से बिहार के मुख्यमंत्री हैं। इससे पहले भी वे एक बार एनडीए के पुण्यप्रताप से बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। परन्तु कुछ दिनों के बाद विधानसभा में बहुमत न होने के कारण उन्हें त्यागपत्र देना पडा था। लेकिन अबकी बार उन्हें मुख्यमंत्री का पद संभाले निरंतर चार वर्ष हो गए हैं। साधारण आदमी के लिए चार वर्ष की काफी होते हैं। नीतिश बाबू धीरे-धीरे बिहार को अपनी जागीर मानने लगे हैं। उनकी कुर्सी वहां भारतीय जनता पार्टी के सहारे ही टिकी हुई है। परन्तु उनकी मानसिकता धीरे-धीरे भाजपा को आदेश देने की होती जा रही है। भाजपा के चुनाव अभियान में नीतिश कुमार ही तय करते हैं कि भाजपा का कौन सा नेता बिहार में पैर रखेगा और कौन सा नहीं। पिछले चुनावों में उन्होंने तय किया कि भाजपा के नरेन्दा्र मोदी बिहार में भाजपा के लिए चुनाव अभियान में नहीं आएंगे। भाजपा के आम कार्यकर्ता को हैरत हुई जब नरेन्द्र मोदी सचमुच ही बिहार में नहीं आए। पिछले दिनों भाजपा की बिहार की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक थी। मोदी का स्वागत करते हुए बिहार के कुछ व्यवसायियों ने स्थानीय समाचार पत्रों में विज्ञापन दे दिए। नीतिश बाबू का गुस्सा भडकने के लिए इतना की पर्याप्त था। उन्होंने भाजपा नेताओं को अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित कर रखा था, लेकिन अब गुस्से से भरे नीतिश बाबू ने उन्हें संदेश भिजवाया कि हमारे घर भोजन करने के लिए आने की जरुरत नहीं है। उनका गुस्सा इतने पर ही शांत नहीं हुआ। कभी गुजरात सरकार ने बिहार में आई कोसी नदी में बाढ से पीडित लोगों की सहायता के लिए 5 करोड रुपये भेजे होंगे। नीतिश बाबू ने इतने सालों बाद वे रुपये भी गुजरात के लोगों को वापिस कर दिए। नीतिश बाबू अपने आप को चर्म धर्मनिरपेक्ष वादी बताते हैं। वे गुजरात को 5 करोड रुपये तो लौटा सकते हैं, लेकिन उनमें इतना साहस नहीं कि यदि भाजपा उनकी ह्ष्टि में सचमुच साम्प्रदायिक है तो उसके साथ सत्ता में भागीदारी करने के स्थान पर कुर्सी छोडकर वापिस जनता के पास जाए और नया जनादेश प्राप्त करें। ‘गुलगुलों से आशिकी और गुड से परहेज’। नीतिश बाबू चाहते हैं कि बिहार के लोग उन्हें सिद्धांतवादी स्वीकार करें। इसलिए वे बीच-बीच में समाजवाद, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया इत्यादि का नाम भी उच्चारित करते रहते हैं। परन्तु भाजपा को लेकर उनका व्यवहार यही सिद्ध करता है कि उनके खाने के दांत और हैं और दिखाने के और।

अपने इस व्यवहार से नीतिश बाबू तो खिसियाकर खंभा नोचते दिखाई दे ही रहे हैं। परन्तु भाजपा की स्थिति और भी विचित्र बनी हुई है। भाजपा नीतिश के हाथों इस प्रकार का अपमान सहकर भी धैर्य और संतोष की पंचतंत्रीय कहानियां पढने और पढाने में मशगूल है। भाजपा का कहना है कि बिहार में सरकार तभी बन सकती है यदि नीतिश बाबू का जनता दल (यू) और भाजपा इकट्ठे मिलकर चलें। लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि भाजपा आखिर बिहार में सत्ता प्राप्त क्यों करना चाहती है। भाजपा उन राजनीतिक दलों की तरह का राजनीतिक दल नहीं है जिनके लिए सत्ता ही उनका अंतिम ध्येय है। भाजपा के लिए सत्ता साधन है, साध्य नहीं। भाजपा एक वैचारिक अनुष्ठान है और इसी वैचारिक धरातल पर वह नए समाज का निर्माण करना चाहता है। मुख्य प्रश्न यह है कि बिहार में नीतिश बाबू के साथ सत्ता में भागीदारी करके क्या भाजपा पिछले चार सालों से इस वैचारिक अनुष्ठान की दिशा में एक कदम भी चल पाया है। नीतिश बाबू ने भागलपुर के दंगों की नए सिरे से तथाकथित जांच करवाकर मुस्लिम तुष्टिकरण का ऐसा घटिया उदाहरण प्रस्तुत किया है जो वहां के समाज को साम्प्रदाय के आधार पर बांटने का घृणित कदम ही कहा जाएगा। बिहार सरकार प्रदेश में अरबी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए करोडों रुपये खर्च रही है। वहां अरबी भाषा के विकास के लिए स्थापित विश्वविद्यालय को करोडो रुपये का बजट आवंटित किया गया है। आखिर बिहार में अरबी किन लोगों की भाषा है? मुसलमान भी बिहार में अरबी का प्रयोग नहीं करते। क्योंकि बिहार के मुसलमान अरब से आए हुए नहीं है, बल्कि स्थानीय हिन्दुओं से ही मतांतरित होकर ही मुसलमान बने हैं। अत: उनकी मातृभाषा भी अरबी नहीं है। अब तक बिहार में जिन लोगों ने मुस्लिम तुष्टिकरण का निकृष्ट उदाहरण भी प्रस्तुत किया है, वे भी मुसलमानों को खींच-खांच कर उर्दू तक ही ले जा सके हैं। लेकिन नीतिश बाबू तो मुस्लिम तुष्टिकरण के मामले में सब पर भारी पडे हैं और सीधे अरबी भाषा पर छलांग रहे हैं। यहीं बस नहीं, वे किशनगंज में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय खोलना चाहते हैं। खोलना क्या चाहते हैं, उन्होंने इसकी मुक्कमल तैयारी कर ली है। नीतिश बाबू मुस्लिम तुष्टिकरण के ये विचित्र कारनामें इसीलिए कर पा रहे हैं क्योंकि उन्होंने भाजपा के कंधों पर अपने पैर मजबूती से टिकाए हुए हैं। ताज्जुब है कि वे भाजपा के कंधों पर सवार होकर भाजपा की वैचारिक प्रतिबद्धतता को तार-तार भी कर रहे हैं और उन पर जोर-जोर से गुर्रा भी रहे हैं।

भाजपा की दुविधा शायद सत्ता में बने रहने की दुविधा है। इस प्रकार की दुविधा तभी पैदा होती है जब किसी राजनैतिक दल में वैचारिक प्रश्न गौण होने लगते हैं। शायद बिहार में भाजपा उसी स्थिति को झेल रही है। परन्तु भाजपा का यह सौभाग्य है कि भाजपा का सामान्य कार्यकर्ता विचार से जुडा हुआ है सत्ता से नहीं। इसलिए वह आमतौर पर वैचारिक प्रश्नों पर समझौता नहीं करता बल्कि उससे उद्वेलित होता है। वह प्रश्न भी करता है और उसके सही उत्तार भी तलाशता है। बिहार में नीतिश बाबू के चरित्र और चाल दोनों से ही आहत भाजपा का सामान्य कार्यकर्ता अपमानित महसूस कर रहा है। इसलिए उसके प्रश्नों में तल्खी भी है और आक्रोश भी। भाजपा नेतृत्व कार्यकर्ता से उदासीन नहीं हो सकता क्योंकि भाजपा की पूंजी उसके विचारवान कार्यकर्ता ही हैं। यह अलग बात है कि अन्य राजनीतिक दलों की तरह भाजपा में भी कुछ गणित के विशेषज्ञ पहुंच गए हैं। उनके लिए सत्ता प्रतिष्ठान में विचार के लिए कोई स्थान नहीं है बल्कि यह विशुध्दा जोड-तोड के गणितीय सूत्रों से प्राप्त होने वाला मीठा फल है जिसका रसास्वादन हर स्थिति में किया ही जाना चाहिए। यही कारण है कि बिहार में भाजपा वर्तमान दुविधा का शिकार हो रही है। भाजपा के स्वास्थ्य के लिए भी और बिहार की समग्र उन्नति के लिए भी यह जरुरी है कि भाजपा इस दुविधा से जितनी जल्दी हो सके निकले।