धर्म-अध्यात्म

बज्रयानी सिद्ध आदि कवि सहरपाद का जन्म सहरसा में – मुक्तेश्वर मुकेश

जब बौद्ध धर्म 8वीं शताब्दी में बज्रयान के रूप में विकसित हुआ तब धीरे-धीरे इसमें तंत्रयान का समा वेश हो गया। तंत्रयान में बौद्ध भिक्षुणियाँ गुह्य गुफा में तांत्रिक क्रिया में रहने लगे। उस समय जनमानस में अपने दैहिक रोग मुक्ति के लिए तंत्रयानी भिक्षुकों का सहारा लेना अनिवार्य दिखने लगा। वे लोग तांत्रिक होम यज्ञ के शिकार हो गये। इसमें बज्रयानियों की कठिन साधना और स्त्री प्रयोग के कारण बुराइयाँ उत्पन्न हो गईं। इन बुराइयों को समाज में फैलने से रोकने हेतु 84 सिद्धों में छठे स्थान पर विराजमान सहरपाद एक नया बौद्ध दर्शन प्रस्तुत कर बज्रयान को सहज बनाने के उपक्रम में लग गए।

सहरपाद का मूल नाम राहुल श्रीभद्र था। कहीं-कहीं उनके नाम सरोजबज्र, शरोरूहबज्र पद्म या पद्माबज्र पुकारे गये हैं। ये पाल शासक धर्मपाल (770-815) के समकालीन थे। सहरपाद के जन्म स्थान के बारे में विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के अनुसार उनका जन्म स्थान उड़ीसा बताया गया है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और पूर्व राज्ञीनगर दोनों ही बताया। ‘राज्ञीनगर’ को भंगल (भागलपुर) या पुण्ड्वर्ध्दनभुक्ति में अनुमान किया गया है। इस आधार परर् वत्तमान सहरसा जिला का रकिया (राज्ञी) ग्राम भी उनका जन्म स्थान माना जाता है। जनश्रुति के अनुसार जन्म स्थल पंचगछिया को भी कहा गया है। सहरपाद को बौद्धधर्म के ‘बज्रयान’ और आगे चलकर ”सहजयान” शाखा का प्र्रवत्तक आदि सिद्ध माना जाता है। वे ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी ब्राह्मणवादी वैदिक विचारधारा के विरोधी थे। ‘नालंदा विहार’ में उनकी शिक्षा हुई थी तथा अध्ययन के उपरांत वे वहीं के प्रधान प्राचार्य भी बने फिर विक्रमशिला में बज्रयान से जुड़े और अंत में सिद्धि प्राप्त कर कटसरह के नाम से विख्यात हुए। गुटूंर (आंध्रप्रदेश) को उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र बनाया। नालंदा और विक्रमशिला में शिक्षा के बाद उन्होंने बज्रयान के गुह्य तांत्रिक साधना का अनुभव किया। उन्होंने एक दलित को अपनी ”महामुद्रा” बनाया जो सर (तीर) बनाती थी इसलिए राहुल श्रीभद्र से ‘सरह’ कहलाए। सर्वप्रथम महामुद्रा के रूप में उन्होंने जातिप्रथा तोड़ी। गुह्यसाधना के तहत जब काम भावना से अनुप्रेरित विभिन्न कामुकर् मुत्तियां गढ़ी जाने लगीं, तब इन कामोद्दीपक प्रतिमाओं से ‘सहरपाद’ ने ‘सहज’ और आसान साधना को फैलाने और उसका प्रचार-प्रसार करने के लिए ‘बज्रयान’ से ‘सहजयान’ का प्रवर्तन किया। सहजयान में तांत्रिकों से मुक्त कराने का प्रयास किया गया और क्षेत्र में बोली जाने वाली मूल भाषा का विकास हुआ। इन्हें मैथिली भाषा का आदि कवि भी कहा जाता है। इनका ‘दोहा कोष’ साहित्य की अमूल्य निधि है। उनके द्वारा लिखा गया। सहज ग्राह्य काव्य प्रारंभिक हिंदी कही जाती है जो गेय है एवं इस क्षेत्र में गाया जाता है। यह पाली लिपि से हिंदी में परिवर्तन हेतु भी जाना जाता है। सहजयान बौद्धधर्म की नयी शाखा थी। तांत्रिक पद्धति के दुरूह यौगिक साधना साधारण लोगों के लिए मुश्किलें पैदा कर रही थी। जादू-टोना, दैहिक रोग निवारण का साधन बन गया था। परिणामस्वरूप ‘मंत्र’ और ‘ध्यान’ के बोधगम्य रूप को सिद्ध गुरुओं ने ‘दोहा’ (पदावलियों) के रूप में रखा। ऐसे सिद्धों ने जो शून्य का अनुभव किया था, मार्ग निर्देश करने में रूचि दिखायी। यही बज्रयान के अंदर ‘सहजयान’ था। इसमें शक्ति और बोधिसत्वों की मूर्ति पूजा का विरोध किया गया। इन लोगों ने कहा कि भगवान बुद्ध तो सबों के अंतर्मन में हैं।

तंत्रयान में ऐसा माना गया था कि गुरु की कृपा से हठयोग या ध्यान की निर्धारित पद्धति के अनुसार (महामुद्रा) से युग्म क्रियाओं द्वारा नैसर्गिक आनंद की प्राप्ति होती है। इसके लिए काम प्रतीकों (नग्न मूर्ति आकृतियों) जिसमें संभोग की अनेक मुद्राएं होती थीं, सहारा लिया जाता था। इन युग्म क्रियाओं में साधकों और महामुद्राओं को उभय रूप में ‘चरमसुख’ और संतोष देती थी। यह चरम सुख महानिर्वाण से प्राप्त होने वाले सुख का अनुभव था। बहुत से अंधविश्वासी साधक भी उस समय देखे जाने लगे जो एक ही कंबल में स्त्री पुरुष लिपटे हुए घूमते थे। वे कंबल के अन्दर पूर्ण नग्न होते थे। इसी तंत्रयान की कुरूपता के चलते सिद्धपुरुषों ने कहा -निर्वाण प्राप्ति के लिए वाह्य उपादान की आवश्यकता नहीं बल्कि साधक अपने को ‘शक्ति’ के साथ अभिन्न रूप से एकाग्र होकर लीन हो जाए तो वह ‘शून्य’ के साथ एकाकार करता है। सहरपाद के समान ही सहजयान के प्रचार में अपने ‘पदावलियों’ के साथ तिलोपाद (तेलहर ग्राम में कुटिया), कंहपाद (कंदाहा ग्राम में कुटिया), लुइपाद, धम्मपाद, भुसुकपाद (रहुआ के निकट भुसवरडीह में कुटिया) 1.शांतिपाद 2.कुक्करीपाद 3.तांतीयपाद 4.दारिकपाद 5.नरोपाद (पंचगछिया के नरई में कुटिया)। 11वीं सदी में प्रसिद्ध सहज सिद्ध निर्गुणया हुए जो 84 सिद्धों में 57वां थे। इस प्रकार सहरसा क्षेत्र के 26 सिद्ध पुरुषों के कारण यह क्षेत्र समृद्ध संस्कृति को विरासत के रूप में प्राप्त किया है।