कविता

लहू में घुले कांटे

-मनु कंचन-

Blood_Spatter-300x195 हवा टकरा रही थी,

मानो मुझे देख मुस्कुरा रही थी,

सूखे पत्ते जो पड़े थे,

संग अपने उन्हें भी टहला रही थी,

मेरे चारों ओर के ब्रह्माण्ड को,

कुछ मादक सा बना रही थी,

मैं भूला वो चुभे कांटे,

जो पांव में कहीं गढ़े थे,

अब तो शायद,

वो लहू के संग रगों में दौड़ पड़े थे,

हवा की छुअन मुझे सहला रही थी,

चर्म के पोरों से बहते पानी के संग,

उन काटों को रिसवा रही थी,

लहू लाल होता फिर दिख रहा था,

कित भी, तभी नींद टूटी आँख खुल गई,

वास्तविकता कुछ अकड़े सामने खड़ी हुई,

उसने मानो फिर कांटे घोल दिए,

रंग लहू के वापिस मोड़ दिए,

वो हवा फिर मिली नहीं,

वो मादकता ब्रह्माण्ड में फिर घुली न हीं,

हम अब कभी आराम से ना रह पाते हैं,

यूँ की हवा नहीं अब हमें कांटे टकराते महसूस हो जाते हैं