कविता

दोनो बराबर हैं

नारी विमर्श नारी उत्थान,करते करते,

पुरुष पंहुच गया हाशिये पर,

उसे पता भी न चला कि नारी ने,

कब बना दिया उसे बेचारा!

लड़की को लक्ष्मी कहने वाला समाज,

उसे पैदा नहीं होने देता,

या उसके होने पर रोता है,

क्योकि  यहाँ घाटा है।

लड़का पैदा हुआ तो ढ़ोल बजते हैं।

फ़ायदे का सौदा है!

जितना ज़्यादा पढ लेगा,

उतना मंहगा बिक लेगा,

बेरोज़गार भी बिकता है,

लाख दो लाख मे,

सुरक्षित निवेश है।

बेटी तो लेकर ही जायेगी,

काम क्या आयेगी,

ससुराल के बोझ तले,

दब कर रह जायेगी!

कहने को कह देते हैं,

बेटियाँ सदा अपनी रहती हैं,

पर बेटियों का दिया यहाँ,

किसे पचता है!

बेटा चुपड़ी रोटी खायेगा,

निवेश है बाद मे काम आयेगा,

बेटी सूखी रोटी मे पल जायेगी,

पर बिना दहेज़ के न चल पायेगी।

पढ़ाना तो दोनो को है…

बेटी के लियें नर्सरी मे पांइट है,

दाखिला मिल जायेगा,

पर बेटा कहाँ प्रवेश पायेगा?

पढ़ते पढ़ाते बारहवीं भी हो गई।

लड़की के लियें इतने कौलिज है,

नम्बरों की छूट है ,

दाख़िला मिल जायेगा,

लड़का दर दर ठोकर खायेगा।

दोनो ने कैसे न कैसे एम.बी.ए. कर लिया,

नौकरी भी लग गई,

लड़का बिका पचास मे,

लड़की ले गई पचास।

दो बच्चों के बाद,

छोड़ दी नौकरी लड़की ने,

काश! वो एम. बी. ए. की सीट,

बर्बाद न करती,

किसी होनहार युवक की,

ज़िन्दगी बनती!

बच्चे होने पर,

तीज त्योहार पर,

कभी पायल कभी झुमकी,

देकर विदा की बेटी,

बीमार मां को भी देखने आई,

तो साड़ी के बिना न हुई बिदाई।

बेटे को देखा तो मकान की मरम्मत,

याद आई।

अस्पताल के बिल याद आये,

क्या नहीं ये सच्चाई!

लड़का घिस रहा है जूते,

कभी बौस की,

कभी मां की, कभी पत्नी की,

सुनता है।

सबको ख़ुश करने के लियें,

ख़ुद को भूल जाता है।

वो भी तो इंसान है,

पर उसकी किसे परवाह है।

अब आया वक़्त,

पैतृक संपत्ति के बटवारे का,

बड़ी शान से हमने कहा,

बेटा बेटी दोनो बराबर हैं!