काव्यों में ब्रज की होली है-प्रेम और सौन्दर्य का दिव्यधाम

आत्माराम यादव पीव

    ब्रजभूमि की होली देश के अन्य तमाम हिस्सों से अप्रतिम सौन्दर्य के दिव्यधाम की अनुभूति का आनन्द देने वाली है जहाॅ गोप-गोपिकाएॅ,गोपकुमार,गाय-बछड़े,वन के पशु पक्षी को इस प्रेमोत्सव के अवसर पर मूर्तिमान विग्रह माना है जो राधा-कृष्ण, नन्द-यशोंदा के प्रेम भक्ति का सबसे अनूॅठा प्रमाण है। टूेसू के फूलोंसे बने रंग से भरी पिचकारी यहाॅ की प्राचीनतम पहचान है। राधाकृष्ण की होली को याद करते हुये सूरदासजी,रसखान जी से लेकर अनेक कवि हुये है जिन्होंने अपने काव्य में राधाकृष्ण को प्रेरणास़्त्रोत मानकर अपनी भावनाओं में अनेक पदों का सृजन किया है। ब्रजमण्डल में राधाकृष्ण के प्राचीन मंदिरमें बरसो नंन्दगाूव के हुरियारांें की टोलियाॅ घमासान मचाते हुये गगन मण्डल को लाल कर देती है और शाम को ब्रजभूमि पर होली के गीत गाये जाते है तब कवि ने ब्रज गोपियों का रंग गुलाल के प्रति भाव मिलता है कि वे रंग-गुलाल तो सह लेती है लेकिन वे कृष्ण के मतवारे नयनों की चोट नही सह सकती जिससे बचने के लिये उन्हें घूंघट की ओट का सहारा लाना होता है-
मत मारो दृगन की चोट, रसिया होरी में मेरे लग जायेगी
अबकी चोट बचाय गयी हॅूं, करि घूॅंधट की ओट।
सास सुने मेरी ननद लडैगी, तुममें भरे बड़े खोट।
ब्रजमण्डल में कृष्ण होली पर एक ही स्थान पर नहीं दिखते इसलिये रसखान उन्हें गाॅव के भीतर होली खेलते अपने काव्य लिखते है वहीं पर सूरदास जी उन्हें कालिन्दी के तट पर होली खेलते हुये अपने भाव व्यक्त करते है जिसमें रंगों के साथ वे एक दूसरे पर रसभरी गालियाॅ शामिल करते है वहीं कृष्ण के हाथ में सोने की पिचकारी है और वे मिश्रित रंग-गुलाल उड़ाते दिखते है-
होरी खेलत यमुदा के तट कुंजनि तट बनवारी
दूत सखियन की मण्डल जोरे श्री बृषभान दुलारी।
होड़ा-होड़ी होत परस्पर देत है आनन्द गाली।
भरे गुलाल कुम-कुम केसर कर कंचन पिचकारी।।
वृन्दावन में गुलाबों के फूलों की पंखुड़ियों से राधाकृष्ण होेली खेलते है तो नन्दगाॅव-बरसाना की होली लठमार होली के रूप में प्रचलित है। होरी में जहाॅ प्राचीन समय के अनेक कवियों के भाव देखने को मिलते है वहीं पर आधुनिककाल में हास्यकवि काका हाथरसी भी होली पर अपनी मुस्कान बिखेरना नहीं भूलते है व्यंग में कहते है कि औरतें लटठ चला रही है और त्रिपाठी जैसे पात्र पिट रहे है -
बरसाने की होली देखों, हुरियारों की टोली देखों
टेसू के बंसती रंग में, भींगे लहंगा चोली देखों
त्रिया चलाती लाठी देखों, पिटते पूत त्रिपाठी देखों
ब्रजअंचल की प्रथा पुरानी, होली की परिपाटी देखों।।
होली की उत्पत्ति होलिका दहन तक ही सीमित थी जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने मार्धुयमय बनाने के लिये उसे रंगों का स्वरूप दिया। इसे लेकर ब्रजमण्डल में एक कथा प्रचलित है जिसमें होली के दिन कृष्ण ने पूतना नाम की राक्षसी को मारा था तब समूचे ब्रजमण्डल में खुशी की लहर दौड गयी थी और तब गोप-गोपिकाओं ने रासलीला करते हुये नाचते गाते ख्ुाशियाॅ मनाते हुये आकाश को रंगों से भर दिया तभी से यहाॅ होली पर इस पर्व की अनॅूठेपन का यश जगत में फैल गया औरा बृजमण्डल के पात्रों एवं महानायक राधाकृष्ण के बिना होली कल्पना अधूरी है। कृष्ण की परमभक्त मीराबाई भी होली के अवसर पर लिखने से नहीं चूकीं और उन्होंने पद लिखा -
मुरली चंग बजत डफ न्यारो, संग जुवति ब्रजनारी
चंदन केसर छिरकतमोहन अपने हाथ बिहारी 
भरि भरि मूठ गुलाल लाल चहुॅ देत सबन पै डारी 
छैल छबीले वन कान्ह संग स्यामा प्राण पियारी।।
 होली की बात हो और ईसुरी की फागों को याद न किया जाये यह अन्यायपूर्ण ही है, आज के इस दौरमें ईसरी जिनका नाम ईश्वरप्रसाद था के काव्य को बुन्देलखण्ड के जनमानस के मस्तिष्क से अलग नहीं किया जा सकता है। बुन्देलखण्ड, मालवांचल में आज भी होली के समय ईसुरी की फागों को गाकर रंग-गुलाल खेले जाने की परम्परा है। श्रृंगार रस में पारंगत ईसुरी ने जहाॅ सूर्य के प्रकाश और राधा जी के मुख की उपमा का उदाहरण देते हुये हीरों के ढेर के समक्ष रखे सोने का रंग की किरणें राधा के मुख पर पड़कर फीके पड़ने की सुन्दर प्रस्तुति की है देखें ईसुरी लिखते हैः-
जग में होय उजेरो जीकौ, राधा का मुख नीकौ।
उतै हिराब परब हीरन की, कुंदन को रंग फीकौ।।
जौ रंग रूप पाईयेै काॅ से, बिरन करेजो झीकों।
ईसुर सदा स्वाद वानी लॅय, सुख सनेह अमीको।
भूय बल रात राधिका जी को, करें आसुरो नीकौ।।
रसखान कवि होली के अवसर पर सॅध्याकाल का वर्णन करते हुये बरसाने की गोपियों एवं कृष्ण के होली खेलने का चित्रण करते है और विशाखा सखि के द्वारा वर्णन में लिखते है कि जैसे ही फागुन ला पूरे ब्रजमण्डल में धूम मच गयी है और एक भी गोपी इससे अूछूती नहीं रही है चाहे वह गोपी नयी नवेली वधु ही क्यों न हो, साॅझ के समय भी रंग गुलाल का जादू छाया हुआ है-
फागुन लाग्यो सखी जब तै तब तैं ब्रजमण्डल धूम मच्यों है।
नारि नवेली बचे नहीं एक विसेख यहै सबै प्रेम अच्यो है।।
साॅझ सकारे वहीं रसखानि  सुरंग गुलाल लै खेल रच्यो है।
को सजनी निलजी न भई अब कौन भटू जिहिं मान बच्यो है। 
रंग का पर्व होली मादकता लिये होता है। राधाकृष्ण ही नहीं गोप-गोपियों व पूरे  ब्रजमण्डल में इसकी मादकता चर्मोत्कृटता पर देखने को मिलती है। भारतेन्द्र हरिश्चन्द जैसे महाकवि भी इस अवसर पर होली का वर्णन करते समय श्रीकृष्ण केसरयुक्त रंग से अपनी पिचकारियों में रंग भरकर नख से शिख तक भिगोने के गोपी के आनन्द का अवर्र्णीय चित्र रखते है-
चहुं ओर कहत सब होरी हो हो होरी 
पिचकारी छूटत उड़त रंग की  झोरी 
मधि ठाढे सुन्दर स्याम साथ लेै गौरी
बाढ़ी छवि देखत रंग रंगीली जोरी 
गुन गाय होत हरिश्चन्द दास बलिहारी
वृन्दावन खेलत फाग ब़ढी छवि भारी ।। 
ब्रजमण्डल के इस होली पर्व पर जहाॅ अनेक कवियों के भाव देखने को मिलते है वही हनुमानप्रसाद पोद्दार की विस्मरण करना बेमानी होगी। भक्तिकाव्य की अनंत धारा के कवि, लेखक,साहित्यकार मानस मर्मज्ञ ज्ञानशिरोमणि श्री पोद्दार राधा-कृष्ण एवं गोप-गोपियों के बीच रंग की रसधारा में होली पर जो भाव व्यक्त करते है वह इस पर्व की महानता को और अद्वितीय बनाता है-
खेलत स्यामा-स्याम ललित ब्रज में रस होरी
राधा-संग सखी-सहचरि सब मिलि केसर-रॅग-धोरी।
सुन्दर स्याम-बदन पर डारत भरि-भरि कनक-कटोरी
प्रेम-रस-रंॅग-बिभोरी।
हेरि-हेरि-हरि-मुख पिचकारी छाॅड़ि रही चहुॅ ओरी।
पकरि हाथ सखियन मलि दीन्हीं मुॅह गुलाल अरू रोरी। 
भारत-वर्ष के हर शहर-गाॅव,कस्बे में फागुन आते ही होली के गीत गाने की परम्परा एक सप्ताह पहले शुरू हो जाती है जो होली के पाॅच दिन बाद रंगपंचमी तक देखने को मिलती है। होली पर रसिया गाने की होड़ में कहीं स्त्रियाॅ आगे होती है तो कहीं पुरूष, जिनके कण्ठलहरियों से प्रवाहित गीत-रसिया, हल्की की सूरज की चुभन आने के बाद वातावरण को आर्द बनाती है और बसंत का उन्माद देखते बनता है।कही कहीं पर दिन में होली के गीतों के समा बॅधते है तो कहीं पर देर रात तक राधा-कृष्ण की होली को विस्तार से वर्णित किया जाकर अबीर,गुलाल और पिचकारी का उल्लेख होता है। कुछेक ग्रामीण क्षैत्र में राधाकृष्ण की होली के बहाने और भी रंगरलियाॅ भरे गीत आ जाते है जिनमें उग्र और ओजमय तीव्र स्पन्दनों का संचार मदहोश करता है वही रंगों के साथ भाॅग आदि पदार्थो का सेवन गाने-बजाने एवं सुनने वाले के यौवनांग में उत्ताल संचालन होली को यादगार बनाते की सदियों से आ रही परम्परा को जीवित रखने के सहभागी होते है। 

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