(मधुगीति १८०८१४ अ)
ब्रज की सुधि हौं ना विसरावहुँ,
जावहुँ आवहुँ कान्हा भावहुँ;
वाल सखा संग प्रीति लगावहुँ,
साखन सुरति करहुँ विचलावहुँ !
सावन मन भावन जब आवतु,
पावन जल जब वो वरसावत;
वँशी की धुनि हौं तव सुनवत,
हिय हुलसत जिय धीर न पावत !
झोटा लेवत सखि जब गावत,
ब्रह्मानन्द उमगि उर आवत;
शीरी वायु गगन ते धावत,
ध्यानावस्थित मोहि करि जावत !
श्याम- शाम शीतल सुर करवत,
गान बहाय श्याम पहुँचावत;
तानन तिरिया पियहिं बुलावत,
मात पिता ग्रह अमृत घोलत !
पूछत कुशल भाव बहु भीने,
चीन्हे अनचीन्हे सुर दीन्हे;
‘मधु’ माखन गोकुल कौ खावहुँ,
मधुवन में मुरली सुनि जावहुँ !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
वाह! वाह ! गोपाल जी कविता में आप ने भाव भरा भाषा का मधु घोल दिया ! भाषा के शब्द गेंद जैसे आगे बढते बढते, बिना प्रयास दौडते हैं. धन्यवाद.