बुरहान वानी की मौत से क्यों फिर सुलग उठा कश्मीर

burhanशैलेन्द्र चौहान

आन्दोलनों के मामले में दक्षिण कश्मीर का एक लंबा इतिहास रहा है. फिर बात चाहे अहमदिया सम्प्रदाय की हो या जमात-ए-इस्लामी की, ये सभी मज़हबी आंदोलन दक्षिण कश्मीर से शुरू हुए. यहां तक की वामपंथी आंदोलन भी कश्मीर के इसी हिस्से पैदा हुआ था. कश्मीर के इसी दक्षिणी हिस्से में हिज़्बुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी की बीते शुक्रवार 08 जुलाई को मुठभेड़ में मौत हो गई. इसके बाद कश्मीर एक बार फिर उबल पड़ा जिसके बाद घाटी में हुई हिंसक झड़पों में 32 लोगों की मौत हो चुकी है. अब घाटी में उग्र विरोध प्रदर्शनों का एक नया दौर उभरकर सामने आया है.

नेशनल कॉन्फ्रेंस का विकल्प पेश करने वाली पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी भी कश्मीर के इसी हिस्से में पैदा हुई. दक्षिण कश्मीर में सुरक्षाबलों के साथ हिंसक झड़पों में शामिल होने वाले युवकों ने वर्ष 2014 में विधानसभा चुनाव के लिए जमकर मतदान किया. ये वो युवा थे जो उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली पिछली सरकार से नाराज़ थे. इन युवकों ने वर्ष 2010 का ख़ूनी प्रदर्शन देखा था जिसमें 100 से अधिक लोग मारे गए थे जिनमें अधिकतर युवा थे. तब युवा शक्ति ने नेशनल कॉन्फ्रेंस को सत्ता से बेदख़ल करने का फ़ैसला किया. उनके पास पीडीपी की शक्ल में बस एक विकल्प था जिसने नरेंद्र मोदी की पार्टी बीजेपी के खिलाफ़ मोर्चा खोल रखा था. लेकिन चुनाव के बाद उन्होंने दोनों दलों को गले मिलते देखा. उन्होंने उमर अब्दुल्ला को बेदख़ल करके पीडीपी का समर्थन किया, लेकिन बदले में उन्होंने ख़ुद को ‘छला हुआ’ महसूस किया क्योंकि पीडीपी ने उनके मुताबिक ‘गुजरात में मुसलमानों पर ज़ुल्म करने वालों’ के साथ गठजोड़ कर लिया था. लेकिन यहां ये सवाल हमारे सामने है कि बुरहान वानी आख़िर कौन था जिनकी मौत से कश्मीर इस तरह से उबल पड़ा है.

राजधानी श्रीनगर से लगभग 50 किलोमीटर दूर त्राल कस्बे से सटा एक गांव हैं शरीफ़ाबाद, जिसे पहले अरीगाम के नाम से जाना जाता था. 22 वर्षीय बुरहान वानी का ताल्लुक इसी अरीगाम से था. उस पर जमात-ए-इस्लामी का गहरा असर था. बुरहान का परिवार भी जमात की विचारधारा से प्रभावित था. सो बुरहान ने ने उसी संस्था में तालीम हासिल की थी जिसका संचालन जमात समर्थकों के हाथ में था. बुरहान ने बंदूक़ के साथ ग्लैमर को जोड़ा, ‘प्रतिरोध और शहादत’ को भी ग्लैमर का चोला पहनाया. इसके साथ ही उसके ‘चाहने वाले’ बढ़ते चले गए. असंतुष्ट और गुमराह युवाओं से बुरहान ने यूट्यूब, ट्विटर और फेसबुक के ज़रिया सम्पर्क साधा और उन्हें एक अलग तरह का रास्ता बताया. जिस रास्ते में कोई चुनाव नहीं होता, मुख्यधारा का कोई नेता नहीं होता. ये उग्रवाद की एक अलग विचारधारा थी जहां बुरहान की शक्ल में, युवा नजरों में, एक ‘सफ़ल व्यक्ति’ बाहें फैलाकर उनका स्वागत कर रहा था. बुहरान वानी ने सोशल मीडिया का सहारा लेकर मज़हब से प्रेरित अपनी राजनीतिक विचारधारा को बढ़ावा दिया. बुरहान सोशल मीडिया की ताक़त को पहचानता था और जानता था कि नई उम्र के अधिकतर कश्मीरी नौजवान सोशल मीडिया पर हैं. इसी बात का बुरहान ने फायदा उठाया और बड़ी होशियारी के साथ सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हुए युवाओं के बीच ख़ासा प्रभावशाली बन गया.

बुरहान कश्मीरी युवाओं को बड़ी संख्या में उग्रवाद की ओर लुभाने में भले ही क़ामयाब न हो पाया हो लेकिन उसने इन युवाओं को इतना तो प्रभावित ज़रूर कर दिया कि वे भारत और हर उस चीज़ से नफ़रत करने लगें जो भारतीय है. बुरहान पर एक तरफ़ जमात का मज़हबी असर था, वहीं दूसरी तरफ़ वो 21वीं सदी का युवक था जो सोशल मीडिया के असर से भली-भांति वाक़िफ़ था. इन दोनों प्रभावों ने बुरहान को हिज़्बुल का कमांडर बनने में मदद की. यह कतई आश्चर्य की बात नहीं है कि उसकी मौत पर पूरी घाटी ख़ासतौर पर युवा पीढ़ी शोक मना रही है. कश्मीर की मौजूदा तनावपूर्ण स्थिति, जिसमें अब तक 32 लोगों की मौत की ख़बर है, के बाद ऐसा लग रहा है कि कश्मीर की जनता, भारत के ख़िलाफ़ उठ खड़ी हुई है, जिसमें कोई व्यवस्था काम नहीं कर रही है. हर कुछ साल बाद कश्मीर में तनाव की स्थिति, अब एक बदरंग सच्चाई बन चुकी है. दिल्ली में राजनीति के अभिजात्य तबक़े की सोच कश्मीर को सुरक्षा प्रतिष्ठानों के हवाले करने की रही है. चाहे वो 2008 के तनाव की बात हो या फिर 2010 के या फिर 2013 में अफ़ज़ल गुरु को फांसी देने का उदाहरण हो, ये सब दिखाते हैं कि किस तरह दिल्ली कश्मीर को केवल सुरक्षा के चश्मे से देखती है. इस नीति की मुश्किल यही है कि आप एक विरोधी को तो दबा सकते हैं लेकिन आप अगली पीढ़ी के विरोधी होने के बीज भी डाल रहे होते हैं. 2010 में 112 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई थी, इनमें ज़्यादातर पत्थर फेंकने वाले लड़के थे, जो किशोरावस्था में थे या फिर 20 साल से कुछ ज़्यादा उम्र होगी उनकी. इसकी शुरुआत एक निर्दोष लड़के की हत्या से हुई थी. संघर्ष भरे इतिहास को जानने के बाद ये युवा इस संघर्ष से जुड़ने को अपना दायित्व समझने लगे थे. दिल्ली की सरकार ने सेना के दम पर उस वक़्त के तनाव को दबाया, योजना बद्ध तरीक़े से अफ़ज़ल गुरु की फांसी के बाद की स्थिति पर क़ाबू पाया, कर्फ्यू का सहारा लिया लेकिन इन सब प्रक्रिया में एक और पीढ़ी कट्टरपंथी बन गई. सैन्य प्रतिष्ठानों ने अपने नज़रिए से पत्थर फेंकने वालों को चरमपंथी में तब्दील कर दिया. बुरहान वानी की उम्र 2010 में महज 16 साल थी. सैन्य प्रतिष्ठानों के लिए उसे न्यूट्रल बनाना ज़्यादा ज़रूरी थी, क्योंकि उसका व्यक्तित्व और उसके वीडियो कश्मीरी युवाओं को बड़े पैमाने पर प्रभावित करने लगे थे. रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के पूर्व प्रमुख एएस दुलत ने इस चक्र को तोड़ने के लिए राजनीतिक दख़ल की मांग की है. कश्मीर एक राजनीतिक समस्या है जिसे राजनीतिक तौर पर हल किए जाने की ज़रूरत है. लेकिन नई दिल्ली में, चाहे वह बीजेपी का शासन हो या फिर कांग्रेस का, ये कश्मीर को बस सुरक्षा और ज़्यादा से ज़्यादा हुआ तो आर्थिक समस्या मानते हैं. दुलत ने कश्मीर की समस्या के हल के लिए केवल एक मंत्र दिया है सिर्फ और सिर्फ बातचीत का. अगर हजारों लोग, जिन्हें भारत अपना शहरी बताता है, किसी चरमपंथी की हत्या का दुख मनाने के लिए घरों से बाहर निकलें और आज़ादी के नारे लगाएं तो समस्या तो है. , यह स्थानीय विद्रोह है, उन लोगों के ज़रिये जिनके बच्चे इसके लिए ख़ुद को क़ुर्बान करने को तैयार हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर यह दावा करते रहे हैं कि वे इच्छाशक्ति और नज़रिए वाले नेता हैं. फर्स्ट शब्द का इस्तेमाल करना भी उन्हें ख़ूब पसंद है. वे जो भी करते हैं, उसके बारे में बताते हैं कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. अगर वे इसी नज़रिए से कश्मीर के मौजूदा हाल को देखें तो वे इसे कश्मीर में हिंसा ख़त्म करने के अवसर के तौर पर देख सकते हैं. लेकिन ऐसे हालात में कश्मीर की बिगड़ती स्थिति पर केंद्र सरकार उच्च स्तरीय बैठक कर रही है और प्रधानमंत्री चिंता जता रहे हैं. लेकिन यह पर्याप्त नहीं है. कश्मीर की समस्या इतनी सरल नहीं है यह बात उन्हें भी मालूम है. अब वक़्त इससे आगे कुछ करने का है. वरना हालात आगे और भी ख़राब होंगे।

2 COMMENTS

  1. कविता नहीं, बस एक कहानी है| उर्दू में लिखी होती तो कश्मीरी आतंकवादी और पाकिस्तानी पाठक भी रुचि से पढ़ते!

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