समाज

बुर्के पर सेक्युलर सोच क्या हो?

-के. विक्रम राव

बुर्के पर प्रतिबंध के मुद्दे पर भारत के प्रगतिषील और सेक्युलर समझवाले लोग, विषेषकर समाजवादी और माक्र्सवादी पार्टियों के पुरोधाजन, चुप्पी साधे हैं। उनकी सोच दुहरी है, दबाव वोट का है। मसलन भारत के सोशलिस्ट भी अपने फ्रेंच हमराहियों की भांति बुर्के की बात पर निर्विकार हो गये हैं। वर्ना इस मौजूं मसले पर उनकी भावना अब तक उभर आती। पेरिस की पार्लियामेन्ट में बुर्के पर प्रतिबंध वाले बिल पर मतदान मे सोशलिस्ट सदस्य हाजिर नहीं रहे। हालांकि कम्युनिस्ट सांसद आन्द्रे गैरीन ने दक्षिण पंथी सार्कोजी सरकार का पुरजोर समर्थन किया। उन्होंने बुर्का को चलता-फिरता ताबूत करार दिया।

यूँ वोट की चाहत में भारत के सोशलिस्ट बुर्का के आलोचकों पर तोबा तिल्ला मचाते। खवातीनों के खातिर काफी कुछ कर गुजरने का ऐलान कर डालते। अत: आवश्यक और समीचीन है कि उनके प्रणेता राममनोहर लोहिया की बात स्मरण कराई जाय। लोहिया घूंघट तथा बुर्का को पुरुष की दासता का प्रतीक मानते थे। भारतीय पति को वे पाजी कहते थे जो अपनी संगिनी को पीटता है, दबाये रखता है। लोहिया ने कहा था, ”जब बुर्का पहने कोई स्त्री दिखती है, तो तबियत करती है कि कुछ करें।” नरनारी की गैर बराबरी खत्म करना उनकी सप्तक्रान्ति के सोपान पर प्राथमिक तौर पर थी। भारतीय पुरुष की इस दोगली दृष्टि के बारे में लोहिया ने कहा कि तैराकी और बालीबाल के महिला मौचों को देखने कई लोग जाते है और खिलाड़ियों की जांघ और नितम्ब को लपलपाती नजर से घूरते हैं मगर इन्हीं पुरुषों को अपने घर की महिलाओं के सौंदर्य का दूसरे पुरुष द्वारा निहारना नागवार लगता है। राजनीति में महिला के परिवेश में लोहिया ने सुझाया था कि समाज की कुछ भद्दी रस्में और आत्मा के कुछ अंधेरे कोने मिलकर स्त्री को ऐसे क्षेत्र में बदल देते हैं जहां समाजवाद की सबसे अधिक जरूरत है।

आज ऐसे ही अंधेरे कोने को रौशन करने की दरकार है कयाेंकि इमाम बुखारी सरीखे दकियानूसो ने महिला अधिकारों की योध्दा शबाना आजमी को नाचने-गाने वाली की संज्ञा दी थी। शबाना बुर्का नही पहनती। सदियों पूर्व रजिया सुलतान ने बुर्का फेंककर शमशीर उठाया था। रजिया की झलक दिखती है कलकत्ता की उस अध्यापिका में जिसे अदालत ने जबरन बुर्का पहनाने वालों के खिलाफ गत माह राहत दी थी। हालांकि बंगाल के मर्ाक्सवादी शासन ने शुरू मे उसकी मदद से इन्कार किया था।

आखिर कौन हैं वे लोग जो महिलाओं को ढके रखना चाहते हैं? उनके तर्क क्या हैं ? मजहबी और सकाफती पहचान के लिए उनकी अवाधारणा है कि बुर्का आवश्यक है। उनका दावा है कि चेहरा खुला न रहे तो कोई भी हानि नहीं होगी। दिमाग खुला रहना चाहिए, फिर तर्क पेश आया कि बुर्का इस्लामी अस्मिता का प्रतीक भी है। दोजख में वह औरत जलती रहेगी जो चेहरा उभारकर रखती है। भले ही लखनऊ-दिल्ली की तपती धूप में काले लबादे से गर्मी इन बेचारियों को और अधिक सतायें। तब यातना तो इसी धरती पर मिल गई। यह भी बुर्का के पक्ष में कहा गया कि पर्दानशीन महिला में पाकीजगी अधिक होती है। तो बेपर्दा स्त्रियां बेहया हैं? और क्या गारन्टी की चारदीवारी के भीतर बुर्कानशीन महफूज रहती हैं। एक अकाटय तर्क प्रभावित करता है कि बुर्के के कारण नारी शरीर के कटाव और उभार पर लालची पुरुषों की कुदृष्टि नहीं पड़ती। आज का आधुनिक समाज जहां अंगप्रदर्शन ही विकृत सफलता का पासपोर्ट हो गया, हो पर्दा ही सुरक्षाकवच है। अमरीका के विश्वविद्यालयों में एक लतीफा भी मशहूर है कि जो महिला अध्यापिकायें चुस्त, कसे हुए, तंग परिधान पहनती हैं वे सब बेहतर भूगोल पढ़ाती हैं क्योंकि रेखांकन अच्छा कर लेती हैं। निहारने वाले की नजर का आशय कैसा भी हो मुद्दा तो यही बनता है कि लम्बा चोगा पहनें तो ऐसी दृष्टि से बचा जा सकता है। लेकिन ऐसा तर्क नितान्त सारहीन और भद्दा कहलाएगा। पुरुष जो चाहे, जैसा भाये, वह पहने मगर महिलायें पोशाक की गुलामी ढोती रहें।

फ्रांस और पश्चिमी युरोप, खासकर समाजवादी सरकार वाले देशों को मजहबी तर्क का सामना करना पड़ा था जब उनकी संसदों ने बुर्का पर पाबन्दी लगा दी थी। इस पर काफी अन्तर्राष्ट्रीय बहस हुई है। इस्लाम का एक सर्वग्राही सिध्दान्त है ”ला इक्फिद्दीन” अर्थात मजहब किसी जबरन बात की इजाजत नहीं देता। तो फिर बुर्का पहनने का फतवा क्यों? अभी हाल में एक धर्मकेन्द्र ने फतवा दे डाला कि कार्यालयों में पुरुष की उपस्थिति में कामकाजी महिलायें चेहरा ढकें, अर्थात् बुर्का पहने। क्या ऐसा वातावरण उत्पादकता बढ़ाने में सहायक होगा। अगर इस फतवे को मुस्लिम महिला मानती है तो उनका प्रबंधक नोटिस दे सकता है कि वे घर से निकलने की जहमत न करें। ऐसे प्रगतिविरोधी फतवों का सामुदायिक प्रतिकार होना चाहिए। अभियान चलाना चाहिए।

अब विचार कीजिए जब तमिलनाडु के मोहम्मद अजमल खान ने सर्वोच्च न्यायालय में गत फरवरी में याचिका दायर कर दी थी कि वोटरों के पहचानपत्र में फोटो लगाने से मुस्लिम महिलाओं को इस्लाम के आचारणवाले नियमों का उल्लंघन करना पड़ता है। अर्थात् फोटो परिचयपत्र या तो न हो वर्ना बुर्का पहने फोटो लगवाया जाय। मद्रास उच्च न्यायालय में इस याचिका का गैरवाजिब कहकर खारिज कर दिया था। निर्वाचन आयोग ने भी तर्क दिये कि संविधान की धारा 25 के अनुसार इस्लाम धर्म का पालन करने के लिए यह निर्दिष्ट नहीं है कि मतदाता पर्दानशीन रहे। पर्दा की प्रथा का आधार मजहबी नहीं माना जा सकता। आयोग का निर्णय था कि प्रथा बनाने के लिए उसका प्राचीन, तर्कसम्मत, निश्चित तथा बिना व्यवधान का मान्य हो ना जरूरी है। पर्दा प्रथा में ऐसे तत्व नहीं है अत: उसे चुनाव आयोग ने खारिज कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय में मोहम्मद अजमल खान के वकील ने लम्बी जिरह की कि चेहरा छिपाना अर्थात् बुर्का पहनना एक मजहवी अधिकार हैं भारत को प्रथम दलित प्रधान न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन ने निर्णय दिया कि पर्दा इस्लाम का अन्तरंग सिध्दान्त नहीं माना जा सकता। न्यायमूर्ति ने कहा जिन मुस्लिम महिलाओं को फोटो पहचानपत्र बनाने में हिचक हो वे घर पर ही रहें और वोट न डालें। अजमल खां की याचिका खारिज हो गई। मगर एक टीस दे गई कि क्या सेक्युलर गणराज्य में कोई संप्रदाय-विशेष इस प्रकार मजहब की ओट में लैंगिक तथा सामाजिक विषमता फैला सकता है? यूँ भी दहशतगर्दी और दकियानूसीपन से भारती समाजवादी सेक्युलर गणराज्य चरमरा रहा है। पिछले वर्षों की अखबारी रपट पर ध्यान दें। अफगानिस्तान का तालिबानी सरगना हाजी याकूब अमरीकी हम्ले के समय बुर्का पहनकर भागते समय मारा गया। लाहौर की मस्जिद में एक आतंकवादी बुर्का पहनकर भागते हुए सुरक्षाकर्मियों द्वारा पकड़ा गया। फिदायीन दस्तें बुर्का का बेशर्मी से इस्तेमाल करते हैं। इन हालातों में दहशतगर्दों को खुली छूट मिलेगी यदि सुरक्षा जांच के समय मजहब के दबाव में बुर्का पहने व्यक्ति के साथ मुरव्वत की जाय।

यदि फिलवक्त मान लें कि पुरातनपंथी, सनातनी, प्रतिक्रियावादी, साम्प्रदायिक हिन्दू बहुसंख्यक द्वारा बुर्का विरोध अपनी मुसलमान-विरोधी सोंच के कारण होता हैं तो विश्व के इस्लामी राष्ट्रों का उदाहरण देख ले जहां पर्दा लाजिमी नहीं है। संसार का एकमात्र राष्ट्र जो इस्लाम के आधार पर स्थापित हुआ, पाकिस्तान में देंख लें। टीवी पर, संसद में, कराची और इस्लामाबाद के बाजारों में बेपरदा महिलायें दिखती हैं। सीरिया ने तो हाल ही में विद्यालयों में बुर्का पर कानूनी पाबन्दी लगा दी है। राजधानी में दमिश्क में पुरानी मस्जिद है जहां पैगम्बरे इस्लाम ने नमाज अदा की थी। इस इस्लामी सीरिया के शिक्षा मंत्री धाइथ बरकत ने कहा कि निकाब हमारे नैतिक मूल्यों के खिलाफ है। सीरिया अब बाथ सोशलिस्ट गणराज्य है जहां बुर्का कम नजर आता है। काहिरां के मशहूर इस्लामी शिक्षा केन्द्र अल अजहर में काफी देखने ढूंढने के बाद भी मुझे बुर्का एक आवश्यक पोशाक के रूप में नहीं दिखा। इस्लामी ब्रदरहुड सरीखे अतिवादियों की धमकी के बावजूद राष्ट्रपति होस्नी मुबारक ने बुर्का को अनिवार्य पोशाक नहीं बनाया। प्रतिष्टित इस्लामी विद्वान सय्यद तन्तावी ने निकाब को अनावश्यक बनाया। यह इस्लामी नहीं है, कहा उन्होंने। युर्दान (जोर्डन) में दो वर्षों में पचास अपराधियों द्वारा 170 वारदातें करने के बाद बादशाह ने निकाब पर पाबन्दी लगा दी। मजहब का प्रश्न ही नहीं उठा। इसी परिवेश में दो प्राचीन इस्लामी राष्ट्रों का उल्लेख अधिक प्रभावोत्पादक होगा। अफ्रीकी गणराज्य टयूनिशिया ने बुर्का, निकाब, हिजव और तमाम मजहवी चिन्हों पर प्रतिबंध लगाया है जो इस समाजवादी, सेक्युलर गणराज्य को मजहवी बना देते हैं अलजीरिया तथा टयूनिशिया आदर्श राष्ट्र हैं जहां नब्बे प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। जब फ्रांसीसी केथोलिक ईसाइ्र साम्राज्यवाद के विरूध यहां की जनता स्वतंत्रता संघर्ष कर रही थी तो उनके राष्ट्रनायक अहमद बेनबेल्ला, युसुफ बेनखेड्डा, हबीब बोर्गिबा आदि का सपना था कि शोषित राष्ट्र में स्वाधीनता के बाद विकास की नकि दकियानूसी राजनीति चलेगी। ऐसा ही हुआ। धर्मप्रधान शियाबहुल ईरान भी जब रजाशाह पहलवी के शासन में था तो महिलाओं को परिधान की पूरी स्वतंत्रता थी। मगर जब अयानुल्ला रोहल्ला खेमेनी ने खूनी क्रान्ति कर इस्लामी गणराज्य बना लिया तो औरत गुलाम से बदतर हो गईं। कभी मुहावरा होता था कि पर्शियन ब्यूटी (ईरानी सौन्दर्य) को देखकर चान्द भीर् ईष्या करता था। खुमेनी के ईरान में कालिमा ही गहरी हो गई।

लेकिन एक मुस्लिम राष्ट्र जिसे आज देखकर संताप, ग्लानि और क्लेश होता है, वह है ईराक। बाथ सोशलिस्ट नेता राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन अलटिकरेती ने बुर्का का खात्मा कर दिया था। स्कर्ट तथा ब्लाउज साधारण परिधान बन गए थे। नरनारी की बराबरी बढ़ती गई। सद्दाम हुसैन नमाजी था, धार्मिक था, मगर नारी स्वातंन्नय का पुरजोर समर्थक था। इन तमाम इस्लामी राष्ट्रों को एक ओर रख दें। देंखे पड़ोसी बांग्लादेश को जहां गत माह ढाका उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मोहम्मद हुसैन तथा सइदा अफसर जहां ने निर्णय दिया कि बुर्का अनिवार्य लिबास इस्लाम के तहत नहीं है। एक प्राध्यापिका की निकाब-विरोधी याचिका को न्यायमूर्ति-द्वय ने स्वीकार कर लिया। लेकिन कट्टरपंथी पाकिस्तानी मुसलमान अपने इन पूर्व के पूर्वीपाकिस्तानी बंगालियों को इस्लाम मतावलम्बी नहीं मानते हैं। किसान नेता मौलाना भासानी, जो मोहम्मद अली जिन्ना के करीबी थे, ने घृणा और आक्रोश में कहा था, ”दुनिया में सबसे अधिक मस्जिदें ढाका में हैं। हम पांच बार नमाज अदा करते हैं। फिर भी ये पंजाबी पाकिस्तानी हम बंगालियों को मुसलमान नहीं मानते। तो क्या हमारा धर्म सिध्द करने के लिए हमें तहमत उठानी पड़ेगी?” आज ढाका में बुर्का के बिना महिलाएं दिखती हैं। दोनों बेगमें हसीना तथा खालिदा बुर्के से कोसों दूर हैं।

लेकिन सेक्युलर भारत में इस बुर्के पर बहस ने एक अनावश्यक, अप्रासांगिक और विभाजक माहौल पैदा कर दिया था। मुस्लिम महिलायें भी नहीं उठ रही हैं यह कहते कि वे मुल्लाओं की जागीर नहीं हैं जिनपर फतवा थोपा जाय। मगर शिकायत होती है शायरों से, दानिश्वरों से कि उनमे जुनून क्यों नही जगा बुर्का के विरोध में ? अगर बुरका रहेगा तो फिर नागिन से गेसू, चान्द सा चेहरा, झील सी आखें, कयामती ओंठ और आरिज, सब शब्दकोष के अंदर ही रह जाते। शायरी शुष्क हो जाती। काली और अन्धेरी बुर्के की भांति।