चलती चिता बनती बसें: निजी परिवहन की अंधी दौड़ और बेबस यात्रियों की चीखें


अशोक कुमार झा


15 मई 2025 की वह सुबह लखनऊ के लिए एक और मनहूस सुबह बनकर आई, जब बिहार के बेगूसराय से दिल्ली की ओर जा रही एक प्राइवेट स्लीपर बस (संख्या: UP17 AT 6372) लखनऊ के मोहनलालगंज क्षेत्र में किसान पथ पर आग का गोला बन गई। इस भीषण हादसे में पांच निर्दोष यात्रियों की ज़िंदा जलकर मौत हो गई – जिनमें दो बच्चे, दो महिलाएं और एक पुरुष शामिल थे। जिस बस में सपनों की यात्रा शुरू हुई थी, वह कुछ ही क्षणों में चलते-चलते श्मशान बन गई।
एक किलोमीटर तक जलती रही बसभाग गए चालक और परिचालक
घटना के चश्मदीद बताते हैं कि बस में आग लगने के बावजूद वह करीब एक किलोमीटर तक दौड़ती रही, जिससे आग की लपटें और विकराल हो गईं। चालक और कंडक्टर बस रोकने की जगह मौके से भाग निकले, यात्रियों को उनकी किस्मत पर छोड़कर। जब तक दमकल की गाड़ियाँ पहुंचतीं, तब तक आग अपने चरम पर थी। बस की खिड़कियों के शीशे तोड़कर स्थानीय लोगों और पुलिस ने किसी तरह 80 यात्रियों में से अधिकांश को बचाया, लेकिन पाँच लोगों को बचाया न जा सका।


विफल होती प्रणाली और सुरक्षा का मज़ाक
यह हादसा कोई अकेली घटना नहीं है। पिछले एक दशक में स्लीपर बसों में आग लगने की सैकड़ों घटनाएं सामने आ चुकी हैं, जिनमें सैकड़ों जानें जा चुकी हैं। सवाल यह है कि इन घटनाओं से हमने क्या सीखा? क्या बसों में फायर अलार्म, अग्निशमन यंत्र और आपातकालीन निकास जैसे मानकों का पालन किया जाता है? कड़वा सच यह है कि नहीं।
निजी बस ऑपरेटर सिर्फ मुनाफे की दौड़ में लगे हैं। वे ओवरलोडिंग करते हैं, वाहनों की नियमित जांच नहीं कराते, और ड्राइवरों की ट्रेनिंग या अनुभव की भी अनदेखी करते हैं। ऐसे में यह पूछना लाज़िमी है: क्या हमारी ज़िंदगियाँ 700 रुपये के बस टिकट से भी सस्ती हैं?


प्रशासनिक निष्क्रियता: क्या सिर्फ मुआवज़े से भर जाएगा यह खालीपन?
हादसे के बाद प्रशासन हर बार की तरह मुआवज़े की घोषणा करता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी मृतकों के परिजनों को 5 लाख और घायलों को 50 हजार रुपये देने की घोषणा की है। लेकिन क्या यह पर्याप्त है? मुआवज़े का अर्थ न्याय नहीं होता।
हमें यह सोचना होगा कि जिनकी लापरवाही से यह हादसा हुआ, वे क्या सिर्फ फरार होकर बच जाएंगे? क्या परिवहन विभाग की भूमिका केवल नंबर प्लेट और रजिस्ट्रेशन तक सीमित रह गई है? जब बसों की फिटनेस रिपोर्टें महज़ ‘फॉर्मेलिटी’ बन जाएं और सुरक्षा निरीक्षण कागज़ों तक सीमित रह जाए, तो हादसे टलेंगे कैसे?


यात्रा नहींयंत्रणा बनती हैं ये रातें
स्लीपर बसों का चलन पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से बढ़ा है, खासकर उन रूट्स पर जहाँ रेल सेवाएँ सीमित हैं लेकिन यही सुविधा, असंगठित और लापरवाह संचालन के कारण मौत का पर्याय बनती जा रही है। बंद खिड़कियों, पतली गलियों और ऊपरी बर्थ में फंसे यात्री किसी भी आपातकाल में सबसे पहले शिकार बनते हैं। और जब आग लगती है, तो यह बस नहीं जलती – इंसानी चीखें, परिवारों की उम्मीदें और ज़िंदगी की संपूर्णता राख में बदल जाती हैं।
आगे क्या?
इस भयावहता को दोहरने से रोकने के लिए सिर्फ संवेदना और सांत्वना नहीं, संकल्प और सख्ती की ज़रूरत है। कुछ जरूरी कदम जो हमें तुरंत उठाए जाने चाहिए:

1.  सभी बसों में फायर डिटेक्शन और सप्रेसन सिस्टम अनिवार्य हों।

2.  निजी ऑपरेटरों के परमिट की समय-समय पर समीक्षा और निरीक्षण।

3.  ड्राइवरों और कंडक्टर्स का मेडिकल और तकनीकी प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाए।

4.  हर यात्री बस में GPS आधारित इमरजेंसी बटन और CCTV अनिवार्य हों।

5.  प्रत्येक हादसे में सिर्फ ड्राइवर नहींकंपनी प्रबंधन भी उत्तरदायी ठहराया जाए।

व्यवस्था को अब जगना होगा
हर हादसा हमें कुछ सिखाने आता है – बशर्ते हम सीखने को तैयार हों। लखनऊ की इस घटना में पाँच निर्दोष जानें गई हैं, लेकिन यह आंकड़ा नहीं है। ये पाँच परिवार हैं, पाँच भविष्य, पाँच अधूरी कहानियाँ।
जरूरत इस बात की है कि हम इस हादसे को सिर्फ एक खबर बनाकर न छोड़ें। इसे एक नया मोड़ बनाएं – जहाँ से सड़क सुरक्षा, यात्री सम्मान और प्रशासनिक जवाबदेही की दिशा तय हो।
इस बार सिर्फ मोमबत्तियाँ न जलाएं, व्यवस्था की आंखें खोलें।

अशोक कुमार झा

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