जानने का अधिकार तो दे दिया पर जानने न दिया

पूजा श्रीवास्तव

जी हां, मैं बात कर रही हूं भारत की तीसरी क्रांति के रूप में पहचाने जाने वाले सूचना के अधिकार कानून की स्थिति की……सन् 2005 में सूचना के अधिकार कानून का बनना सुशासन के इतिहास में भले ही एक अहम पन्ना जोडता है पर अगर ये कहा जाए कि ये कानून सफल रहा तो मुझे डॉ. अंबेडकर का ये कथन याद आता है कि केवल संविधान या कानून बना देना ही काफी नहीं है बल्कि उसका सख्ती से पालन करना भी जरूरी है।

ठीक इसी प्रकार सिर्फ आरटीआई कानून नाम के इस उन्नत किस्म के बीज बो देने से हमें फल नहीं मिलने वाला, इसके लिए जरूरी है सरकार के सही रवैये रूपी खाद की। 5 साल में लाखों की तादाद में आई याचिकाओं से ही इस कानून की पारदर्षिता साबित नहीं होती, पारदर्षिता साबित होती है कानून के क्रियान्वयन से, कानून के पालन से……

कानून लागू हुए 5 वर्ष बीत गए पर 15 फीसदी मामलों में ही लोकसूचना अधिकारी तय समय सीमा में जवाब दे पाते हैं। ये कैसा सूचना का अधिकार है और कैसी पारदर्शिता, जब इसे बनाने वाले ही इसकी अग्नि परीक्षा देने में न नुकुर करते है। ये कैसा सूचना का अधिकार है जहां एक आवेदक सुभाष चंद अग्रवाल को पी एम ओ से सूचना देने की मनाही कर दी जाती है। ये कैसा सूचना का अधिकार है जहां इस कानून को बनाने और सख्ती से पालन करने का निर्देश देने वाली न्यायपालिका के ठेकेदार अपनी संपत्ति का ब्यौरा न देने का कानूनी बहाना करते है।

जो लोग सूचना के अधिकार कानून में पारदर्शिता की बात करते है उन्हें ये जानकर गहरा आघात पहुंच सकता है कि इस सूचना के अधिकार कानून की सूचना देने में हमारी सरकार ने 2005 से 2009 तक मात्र 2 लाख रू ही खर्च किए है, जबकि जनता ने 2 लाख 80 हजार रू सूचना मांगने में लगा दिए।

आंकडें खुद बयां कर रहे है कि मंत्रियों के जन्मदिन व उपलब्धियों के प्रचार में करोडों फूंकने वाली सरकार के पास इस कानून के प्रचार करने के लिए बजट ही नहीं है।

और एक बात जिस पर मैं ध्यानाकर्षण चाहूंगी कि जिन अरूणा राय व अरविन्द केजरीवाल को मेरे विपक्षी वक्ता इस कानून से संबंधित आदर्श मानते है उन्हीं के द्वारा इस कानून की पारदर्षिता पर कई प्रश्‍न खडे किए गए है। प्लेटो का एक स्टेटमेंट है देर से मिलने वाला न्याय, अन्याय होता है । पर राज्य के सूचना आयोग इस बात को सिरे से नकारने की कवायद में जुटा हुआ है। तभी तो सूचना देने में 180 दिन की मांग कर रहा है। ये आंकडें बताते है कि इस कानून से जुडे लोग खुद प्रषासन में पारदर्षिता नहीं चाहते। और जो इस तरफ अपने कदम बढाता है उसे अपनी जान से भी हाथ धोना पड सकता है। गुजरात के अमित जेटवा, पुणे के सतीश शेट्टी मुंबई की नैना कठपालिया का बलिदान इस बात की चीख चीख कर गवाही देता है कि ये कानून पारदर्शी नहीं है। आलम तो इस कदर हो चुका है कि सच कहने को जी तो करता है, पर क्या करें हौसला नहीं होता……….

हकीकत हम सभी के सामने है…आर टी आइ के कुछ उदाहरणों को छोड दे तो ये तस्वीर नजर आती है कि ये सरकार का जनता को धोखे में रखकर अपना उल्लू सीधा करने का तरीका है। अब अगर हम इस सच्चाई से मुंह फेरना चाहे तो वो बात अलग है।

(देश की संस्कृति, भाषा और सभ्यता से जुड़े मुद्दों पर लिखना पसंद करने वाली पूजा माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रिकारिता विश्विद्यालय में एम जे 3rd सेमेस्टर की छात्रा है. )

2 COMMENTS

  1. पूजा जी का कहना बिलकुल सही है की कानून बन जाने से कुछ नहीं होता उसका लक्ष्य पूरा हों महत्वपूर्ण है

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