खत्म होते ग्लेशियर और जमती हुई धरती

मनोज श्रीवास्तव ”मौन”

वैश्विक चिन्तन के विषय के रूप में एक नया अध्याय इस धरती ने स्वत: ही जुड़ गया है क्योंकि सदैव ही हरी भरी दिखने वाली धरा वैश्विक तापवर्द्धन के चपेट में आ गयी है। जिससे धरा की हरितिमा नष्ट होने को अग्रसर है साथ ही 1 अरब 95 करोड़ 58 लाख 85 हजार 112 वर्ष बीत जाने पर पुन: अति ताप से एक बार हिम युग की ओर गतिमान हो रही है। धरती के स्वर्ग कहलाने वाले काश्‍मीर झील और बर्फिली चोटियों के रूप में अपनी पहचान रखते है परन्तु वह हिमालय की चोटियों से बर्फ के गायब होने और झील के सतह पर बर्फ के जम जाने से आज अपनी पहचान और आकर्षण खो रहा है। वहां की झील में बर्फ जमने से बच्चों के खेल के मैदान की शक्ल लेकर हमारी पर्यावरण संरक्षण के प्रेम को मुह चिढा रही है।

भारतीय ग्लेशियरों पर निगरानी करने की दृष्टि से अहमदाबाद स्थित स्पेश एप्लीकेशन सेन्टर में एक ग्लेकिस्कोलॉजी परियोजना चलायी जा रही है। यहां उपग्रह की मदद से अतिसंवेदी ग्लेशियरों पर लगातार नजर रखी जाती है। इस परियोजना के प्रमुख डा. अनिल वी. कुलकर्णी द्वारा काफी चौंकाने वाले तथ्य पहली बार ठोस सबूत के साथ पेश किए गये है। हिमाचल प्रदेश के वसपा बेसिन स्थित 4 ग्लेशियर तबाही की ओर बढते पाये गये और बाकी 15 ग्लेशियर भी खस्ता हालात में पहुंच चुके है। डा. कुलकर्णी के अनुसार जहां ग्लेशियरों की बर्फ वैश्विक ताप से पिघल रही है वही दूसरी ओर उन स्थानों पर प्रदूषण के कारण जाड़ों में बर्फ जमने नहीं पा रही है। इस ग्लेशियरों की सत्यता यह है कि वर्ष 2000 से वर्ष 2002 के दौरान ही ग्लेशियरों ने 0.2347 क्यूबिक बर्फ लुप्त हो गयी हैं। बर्फ के क्षरण की यह दर वैश्विक स्तर पर अवश्‍य ही चिन्तादायक है।

भारत से हटकर यदि इस विषय में वैश्विक दृष्टिपात किया जाए तो ध्रुव प्रदेश भी इस कड़ी में मर्माहत ही दिखायी पड़ रहे है। पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव की अपेक्षा दक्षिणी ध्रुव अधिक ठंडा होता है यहां समुद्र तल पर बर्फ की मोटी चादर लगभग पूरे वर्षभर बनी रहती है। पृथ्वी के बर्फ का कुल 10वां हिस्सा दक्षिणी ध्रुव में ही रहता है। शिकागो विश्‍वविद्यालय के प्रो. टार्वफोर्न ने ग्लोबल कूलिंग के विषय में चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि धरती का दो तिहाई भाग पानी से भरा है जो कभी भी बर्फ में बदल सकता है। टार्वफोर्न के अनुसार ध्रुव प्रदेशों में सबसे ऊंची सतह पर बर्फ की मोटाई लगभग 14 हजार फुट आंकी गयी है जिसके पिघलने और प्रदूषण के कारण पुन: न जमने की प्रक्रिया ठीक तरह से होने पर धरती अवश्‍य ही हिम युग में पहुंच जाएगी।

अमेरिका के मध्य पश्चिम राज्यों में बर्फिले तूफान से पिछले पखवाड़े में जन जीवन ठप हो गया है और हर प्रभावित इलाकों में लगभग 2 फुट बर्फ का जमाव बना हुआ है। उत्तरी यूरोप में भारी बर्फबारी और कड़ाके की ठंड से विभिन्न दुर्घटनाओं में 28 लोगों की मौत हो गयी। ब्रिटेन के हीथ्रो, गैवाटिक, पेरिस, एम्सटर्डम, बर्लिन आदि स्थानों पर बर्फबारी के कारण विभिन्न उड़ानों को रद्द करना पडा जिससे इन देशों को काफी आर्थिक क्षति भी उठानी पड़ी है। बाल्कन देशों में अल्वानिया, बोस्निया, मोन्टेनेगो, और सार्विया आदि क्षेत्र में बाढ़ की विभिषिका के कारण हजारों लोग प्रभावित हो गये है। शीत के कारण विगत जनवरी में चीन के मंगोलिया प्रान्त में पिछले 6 दशकों की सबसे ज्यादा बर्फबारी हुई जिसमें एक रेलगाड़ी 6.5 फुट मोटी बर्फ की चादर में लिपट गयी इसमें 1400 आदमी को मौत से करीब 30 घन्टे तक जूझना पड़ा। ब्रिटेन के यार्कशायर में एक पब में सात लोग फंसे रहे, वहां पर 16 फुट मोटी बर्फ से पब के सभी खिड़की और दरवाजे बन्द हो गये। ब्रिटेन में आज तक बर्फ गिरने का सिलसिला जारी है। साइप्रस माउन्टेन पर आयोजित होने वाले अर्न्तराष्ट्रीय स्नोबोर्डिंग खेलों का आयोजन बर्फ की कमी के कारण निरस्त करना पड़ा जिसके कारण लगभग 20 हजार टिकट को रद्द करने पड़े थे। आयोजकों को काफी नुकसान झेलना पड़ा। यह खेल भी पर्यावरण प्रदूषण की भेंट चढ गया।

वैश्विक स्तर पर हो रहे हिमपात, बर्फीले तुफान धीरे-धीरे अपने पैर पसार रहे है और इस तरीके से विभिन्न देश आर्थिक नुकसान को दिन प्रतिदिन महसूस कर रहे है। मैक्सिको स्थित कानकुन सम्मेलन में 194 देशों के मंत्री शामिल होकर केवल एक कोश ही बनाने पर ही राजी हो पाये लेकिन को कोश कहां से आये इसपर सहमति नहीं बना पायी। कोपेनहेगेन और कानकुन जैसे सम्मेलनों के आयोजक देश जब तक दृढ निश्‍चयी भाव से और एक मत होकर गम्भीर चिन्तन के साथ, सहयोग भाव से काम नहीं करते तब तक वैश्विक ताप पर नियंत्रण, कार्बन की मात्रा पर्यावरण से नियंत्रित करने की बात पूरी नहीं हो सकती।

ध्रुव प्रदेश की सिकुड़ती हुई बर्फ निश्‍चय ही अन्य स्थानों पर बर्फ का जमाव कभी भी कर सकती है। बढ़ती हुई वैश्विक ताप पहाड़ों पर बर्फ को पिघला रही है और बढ़ता प्रदुषण ताप के घटने पर भी पहाड़ों पर बर्फ को जमने नहीं दे रहा है। ध्रुव प्रदेशों की पिघलती हुई बर्फ समुद्री जलस्तर को ऊपर बढ़ा रही है और जिससे समुद्र तटीय शहर डूबने की दिशा में लगातार अग्रसर है। वहीं इससे हटकर जो इलाके बर्फ से सदैव दूर रहते थे वो इलाके भी धीरे धीरे बर्फबारी की चपेट में आते जा रहे है जिनसे सामान्य जन जीवन अस्त सा हो रहा है और विभिन्न राष्ट्रों को इसके चलते आर्थिक हानि हो रही है जो उन देशों की अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुंचा रही है।

हमारे द्वारा नित पर्यावरण के साथ किया जाने वाला खेलवाड़ हमें कभी बाढ़ तो कभी गर्मी तो कभी ठंडक से मार रही है। ऐसे में भारत में प्रचलित कहावत कि ” दैव न मारै खुद मरे ” अर्थात हमारी विकास की नीतियों की खामिंया ही हमसे हमारी धरती को हिमयुग की ओर भेजने और हमसे छीनने की कोशिश कर रही है और हम असहाय से एक दूसरे का मुह देखते नजर आ रहे है।

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मनोज श्रीवास्‍तव 'मौन'
जन्म 18 जून 1968 में वाराणसी के भटपुरवां कलां गांव में हुआ। 1970 से लखनऊ में ही निवास कर रहे हैं। शिक्षा- स्नातक लखनऊ विश्‍वविद्यालय से एवं एमए कानपुर विश्‍वविद्यालय से उत्तीर्ण। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में पर्यावरण पर लेख प्रकाशित। मातृवन्दना, माडल टाइम्स, राहत टाइम्स, सहारा परिवार की मासिक पत्रिका 'अपना परिवार', एवं हिन्दुस्थान समाचार आदि। प्रकाशित पुस्तक- ''करवट'' : एक ग्रामीण परिवेष के बालक की डाक्टर बनने की कहानी है जिसमें उसको मदद करने वाले हाथों की मदद न कर पाने का पश्‍चाताप और समाजोत्थान पर आधारित है।

11 COMMENTS

  1. मौन जी आपने मुहावरे का प्रयोग करके लेख में जान डाल दी है.

  2. श्री मनोज जी ने बहुत अच्छा लेख लिखा है. लिखते रहिये. ग्लेशियर की रक्षा जरूरी है

  3. हिमालय संस्कृत के हिम तथा आलय से मिल कर बना है जिसका शब्दार्थ बर्फ का घर होता है। हिमालय भारतीय योगियों तथा ऋषियों की तपोभूमि रहा है । हिमालय मे कैलास पर्वत पर भगवान शिव का वास है । भगवान शिव अपनी जटा में गंगा को धारण किए हुए हैं । सदियों पहले से पुराणो मे वर्णित ये प्रतिक आज के विज्ञान के तथ्यो से कितना साम्य रखते हैं ।

    हिमालय पर हिमनद अपने मे अथाह पानी को धारण किए हुए हैं । किसी हिमनद के फुटने से वह अथाह जलराशी प्रलयंकारी रुप से बह निकलेगी । इतना ही नही, अगर हिमालय की आधी बर्फ भी पिघल जाए तो समुन्द्र की सतह कई हजार फिट उपर हो जाएगी और बंगलादेश जैसे निचले भुखंड जलमग्न हो जाएंगे ।

    हमारे वेद पुराणो मे वर्णित तथ्य हमे वातावरण और पर्यावरण की जांनकारी हीं नही देते, अपितु उनके महत्व को भी बताते हैं। जरुरत है उन प्रतिको को समझने की । अगर हम श्रद्धा रखेंगे तो यह प्रतिक खुद-ब-खुद अपने अर्थ प्रकाशित कर देंगे । पर्यावरण का कहर वास्तव मे शिव का कोप है । हम अपने पर्यावरण के साथ खिलवाड करेगे तो ऐसे कोप सहने ही पडेगे ।

    शिवलिंग पर हम जल चढाते है । शिवलिंग को शीतल रखने का प्रयास करते है । क्या यह प्रतिक रुप से हमे ग्लोबल वार्मिंग की और संकेत कर रहा है ? ग्लोबल वार्मिंग से बचने के लिए हमे क्या करना है, यह महत्वपुर्ण प्रश्न है ?

  4. श्री मनोज जी ने बहुत अच्छा लेख लिखा है. वाकई अस्तित्व का सवाल है. अभी भी समय है विनाश को रोकने का. वैसे प्रकृति खुद को स्वयं संतुलित कर लेती है.

  5. कैलाश पर्वतवासी भगवान शिव ने अपनी जटा मे गंगा को धारण कर रखा है. इस जटा को आप ग्लेशियर कहें या हिमनदी कहें या और कुछ.

    हम अपने पुर्वजो को आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से अविकसीत भले मान ले, लेकिन उन की समझ की अभिव्यक्ति भिन्न थी. उस ज्ञान को आस्था और प्रतिको मे व्यक्त किया गया. आज की समस्या के उत्तर भी उनके ज्ञान सागर में ढुढें तो सहज रास्ता मिल सकेगा.

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