खानदान का, खानदान द्वारा, खानदान के लिए

-वीरेन्द्र सिंह परिहार-
religion & Politics

अभी गत दिनों पूर्व सांसद एवं म.प्र. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुफराने आजम ने कहा कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी दस साल में न तो भाषण देना सीख पाए और न ही राजनैतिक सोच विकसित कर पाए। उन्होंने कहा कि राहुल किसी भी दृष्टि से राजनीति में फिट नहीं है। तभी तो कोई उन्हें पप्पू और कोई बच्चा कहता है। गुफराने आजम ने आरोप लगाया कि राहुल गांधी ने कांग्रेस पार्टी को प्रयोगशाला बना रखा है, जिसका खामियाजा लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भुगतना पड़ा। उन्होंने सोनिया गांधी को लिखे पत्र में कहा कि कांग्रेस पार्टी को डूबने और समाप्त होने से बचाने के लिए पार्टी को राहुल को अपने हाल पर छोड़कर आगे बढ़ना चाहिए। श्री आजम ने तो अपने लिखे पत्र में यहां तक कहा है कि कांग्रेस में चाटुकारों और लालचियों की संख्या बढ़ रही है, और खुशामदी लोगों ने ईमानदार लोगों को पीछे ढकेल दिया है। उन्होंने यहां प्रश्न भी उठाया कांग्रेस पार्टी के संविधान में उपाध्यक्ष पद का कोई भी प्रावधान नहीं है, फिर राहुल गांधी उपाध्यक्ष कैसे बने हैं? इतना ही नहीं, उन्होंने सोनिया गांधी को भी सीधे निशाने पर लेते हुए लिखा है कि वह सीडब्ल्यूसी द्वारा निर्वाचित अध्यक्ष है, जबकि उन्हें एआईसीसी द्वारा निर्वाचित होना चाहिए। कांग्रेस संस्कृति का दिग्दर्शन कराते हुए आजम ने म.प्र. के संदर्भ में यहां तक कह दिया कि यहां कांग्रेस में 4-5 क्षत्रप हैं, और उनमें किसी न किसी का गुलाम बनकर ही कोई कांग्रेसी जिंदा रह सकता है।

यद्यपि गुफराने आजम ने यह भी कहा कि इन मुद्दों को लेकर वह बराबर पत्र लिखते रहे हैं। पर इसके पहले उन्होंने ऐसे पत्रों को सार्वजनिक करने का साहस नहीं किया। अब इसके दो ही कारण हो सकते हैं। पहला तो यह कि कांग्रेस कम-से-कम केन्द्र में सत्ता में थी, जिसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष लोग गुफराने आजम को भी मिलता रहा होगा। दूसरे अब कांग्रेस इस स्थिति में नहीं है कि ऐसी बातें कहने पर चापलूस एवं चाटुकार सीधे हमला बोल दे और कांग्रेस पार्टी से निकाल फेंक दिया जाए। जहां तक गुफराने आजम की बातों का सवाल है, वह सौ फीसदी सच है। इसकी तस्दीक कुछ दिनों पूर्व खानदान के विशेष वफादार, दिग्विजय सिंह भी यह कहकर कर चुके हैं कि राहुल गांधी चुनावी राजनीति के लिए फिट नहीं है। अब यह बताने की जरूरत नहीं कि लोकतंत्र की राजनीति चुनावों पर ही आधारित होती है। और इस तरह से दिग्विजय के कहने का आशय यही था कि राहुल गांधी राजनीति के लायक नहीं हैं। हकीकत भी यही है कि अपने भाषणों से मतदाताओं में न तो वह कोई प्रभाव छोड़ पाते और न अपने कृत्यों से ही कोई जन-समर्थन जुटा पाते हैं। अन्ना आन्दोलन और निर्भया प्रकरण में क्रमशः 2011, 2012 में जब पूरा देश सड़कों में आ जाता है तो उनका कहीं पता नहीं चलता। अक्टूबर 2013 में वह दागियों को बचाने वाले अध्यादेश को एक ओर कूडे़ में फेंकने लायक बताकर फाड़ते है, तो दूसरी तरफ मूलतः जिन लालू यादव को बचाने के लिए यह बिल लाया जा रहा था, उन्हीं लालू यादव से लोकसभा चुनाव में बिहार में समझौता कर लेते हैं। आदर्श घोटाले के आरोपी महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चण्हाण को लोकसभा का टिकट दे देते हैं। जीजा रॉबर्ट वाड्रा कैसे 1 लाख रूपये से तीन साल में 300 करोड़ के स्वामी हो जाते हैं, इस पर वह देश को कुछ भी बताने की जरूरत नहीं समझते। अक्सर तो वह चुनावी सभाओं में बाहें चढ़ाते दिख जाते थे, पर लोकसभा में जहां उनकी प्रभावी उपस्थिति दिखनी चाहिए, वहां वह हाल के बजट भाषण में लोगों को सोते नजर आते हैं। कांग्रेस पार्टी में वह लोकतंत्र की बातें करते हैं, कुछ जगह चुनाव भी कराते हैं, पर गुफराने आजम का यह कहना सही है कि अपने संदर्भ में वह चुनाव का फार्मूला लागू नहीं करते। वह यह भी कहते हैं कि पूरे देश में लोग निर्णय-प्रक्रिया में भागीदार बनें। पर उन्होंने कभी भी यह नहीं बताया कि वह किस निर्णय-प्रक्रिया के तहत पूरी कांग्रेस पार्टी एवं देश को हांक रहे हैं। यह बात भी सच है कि यदि यह वंशवाद की उपज न होते तो बहुत पहले राजनीतिक परिदृश्य से विलुप्त होकर राजनीतिक वियाबान में खो जाते। बहुत ज्यादा सभावना यही थी कि राजनीतिक परिदृश्य पर दिखते ही नहीं। पर चाहे वह बिहार विधानसभा बुरी तरह से हारे, उत्तर प्रदेश विधानसभा बुरी तरह से हारे और अब लोकसभा में कुछ इस अंदाज से हारे, जिसे औंधे मुंह गिरना कहा जा सकता है। इस तरह से देश ने भले उनसे पीछा छुड़ा लिया हो, पर कांग्रेस के भविष्य और सर्वेसर्वा तो वहीं हैं। गुफराने आजम जब कांग्रेस को डूबने और समाप्त होने से बचाने के लिए ‘राहुल मुक्त कांग्रेस’ की बातें करते हैं तो क्या वह यह बता सकते हैं कि आखिर में सोनिया गांधी किस लोकतांत्रिक प्रक्रिया की उपज है? अहम सवाल यह कि यदि वह भूतपूर्व प्रधानमंत्री की विधवा न होती तो क्यों वह पन्द्रह वर्षों से समूची कांग्रेस पार्टी को अपनी जेब से रख पाती और साथ ही ऐसा प्रधानमंत्री बना पाती जो पूरी तरह से उनके हुकूम का ताबेदार था।

गुफराने आजम का दर्द है कि म.प्र. में किसी छत्रप का गुलाम बनकर ही कोई कांग्रेसी जिंदा रह सकता है। क्या उन्हें यह पता नहीं कि कांग्रेस पार्टी की यह हालात सिर्फ मप्र में नहीं पूरे देश में है। जहां आम कार्यकर्ता क्षत्रपों के गुलाम है, तो ये जो क्षत्रप कहे जाते हैं, वह खानदान के गुलाम हैं। और कांग्रेस पार्टी की यह स्थिति हाल की नहीं बल्कि इंदिरा गांधी के समय से ही है। कहने में बुरा भले लगे, पर कांग्रेस पार्टी को यदि गुलामों की फौज कहा जाए तो कोई अयुक्ति न होगी। समस्या सिर्फ इतनी थी कि इन गुलामों की जब तक थोडी-बहुत सत्ता की मलाई खाने को मिलती रही, तब तक तो सब ठीक। पर अब जब उससे वंचित होने का वक्त आया तो सच कहने का साहस कहीं-न-कहीं दिख रहा है। जबकि बड़ी और निर्णायक सच्चाई यही है कांग्रेस चाहे रहे, चाहे बुरी तरह भारत के राजनीतिक नक्शे से विलुप्त हो जाएं, इतिहास की वस्तु बन जाएं। लेकिन जब तक कांग्रेस पार्टी का वर्तमान ढांचा है, जिसमें वंशवाद के आधार पर ही नेतृत्व तय होता है, तब तक सोनिया गांधी के पश्चात् राहुल ही सब कुछ होंगे। इब्राहीम लिंकन ने प्रजातंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था- ‘प्रजातंत्र जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए।’ ठीक यही बात कांग्रेस के संदर्भ में ऐसे कही जा सकती है कि ‘कांग्रेस खानदान की, खानदान द्वारा और खानदान के लिए।’ ऐसी स्थिति में गुफराने आजम जैसे लोगों को राहुल मुक्त कांग्रेस की जगह, नरेन्द्र मोदी के अनुसार ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की बात करना क्या उचित नहीं होगा? क्या ऐसे लोग यह समझने का प्रयास करेंगे कि नरेन्द्र मोदी का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा कितना सही एवं सार्थक था?

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