शांत झील —-

lakeउस शांत झील को

जब देखा था

निर्झर

तब वह नदी होकर

कहीं कलकल बह निकलनें के प्रयास में थी।

उन पहाड़ी सीमाओं में

नदी उकता गई थी।

आस पास खड़े

सभी ऊँचें चीढ़ और देवदार

उसकी

इक्छाओं को देते रहते थे आकार

और उठाये रहते थे

उन्हें

अपने ऊपर बिना अनथक।

वे अनथक ऊँचें देवदार

निःशब्द ही रहतें थे

और

अर्थों के साथ आलिंगन बद्ध होकर

वे शब्दों को पहाड़ी अर्थों के

सुई धागे से सिलते रहते थे

यूँ ही बिना वजह।

सुई धागों को लिए झील की अंगुलियाँ

अपनी रोली गुलाल में सनी स्मृतियों के साथ

घूमती रहती थी चीड़ और देवदारों के वृक्षों पर यहाँ वहां

या उसकी

नई पल्लवित होती फुनगियों पर।

बह निकलनें का

उस झील का स्वप्न

अब भी आँखें मिचमिचाए

नींद के आगोश में ही ढूंढ़ता है अपनी चैतन्यता को।

 

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