समाज

जातिय आधारित जनगणना अर्थात समाज तोड़ अभियान

– लक्ष्मी प्रसाद जायसवाल

2011 के जनगणना में जातिय सूचनाएं भी संकलित की जाए इसके लिए विपक्षी दलों का दबाव पड़ रहा है। केंद्र सरकार असमंजस की स्थिति में है। क्योंकि सरकार के भीतर भी कुछ घटक या कांग्रेस के भी कुछ मंत्रियों की राय इसके समर्थन में है। इसी कारण इस विषय पर 27 मई को हुई कैबिनेट की मीटिंग में निर्णय नहीं लिया जा सका और इस विषय को मंत्री समूह को सुपुर्द कर दिया गया है। जनगणना में जाति भी पूछी जाए और उसकी संख्या दर्ज की जाए इसके लिए सबसे अधिक दबाव तीनो यादव नेताओं लालू यादव, मुलायम सिंह यादव तथा शरद यादव की ओर से है। यह कैसी विडंबना है कि ब्रिटिश काल में प्रचलित जातिय आधार पर जनगणना की प्रथा जो अंग्रेजों ने शुरु किया था स्वतंत्र भारत में बंद कर दिया गया था, उसे पुनः शुरू करने का प्रयास हो रहा है। 1901 में अंग्रेज सरकार ने जातीय ऊँच-नीच के आधार पर जनगणना करने का निर्णय लिया था। पत्रक में जातीय उच्चता या निम्नता का कॉलम रखा गया था। परंतु 1901 से 1930 तक लगभग हर जाति ने यह प्रतिवेदन दिया कि हम उच्च जाति के हैं, हमारी जाति में अमुक वीर हुए हैं, अमुक संत हुए हैं। कोई भी जाति निम्न कहलाने को तैयार नहीं था। आरक्षण की चर्चा 1931 में हुए पूना पैक्ट के बाद शुरू हुई। अब तो हर जाति अपने को अनुसूचित या पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल कराना चाहते हैं। इसके लिए संघर्ष भी हो रहे हैं। वास्तव में भारत में जातिय चेतना को जगाने का काम अंग्रेजों ने ”फूट डालो और राज करों” की नीति के अंतर्गत शुरू किया था। उसी का परिणाम है कि पौराणिक ग्रंथों में जहाँ केवल 15 जातियों का उल्लेख मिलता है वह अब आधुनिक भारत में बढ़कर 800 जातियों और 5000 उप जातियों तक पहुँच गई है। केबिन हाब्समैन ने अपने लेख में भारतीय जाति व्यवस्था के अंर्तगत ब्रिटिश प्रशासकों द्वारा 19वीं सदी के उतर्राद्ध और 20वीं शबाब्दी के पूर्वाद्ध में जनगणना परिकलन अवधि में स्थान, वंश गोत्र, प्रजाति, व्यवसाय आदि के आधार पर विभिन्न वर्गों को जातियों के रूप में चिन्हित करने का उल्लेख किया है। हाब्समैन के लेख से यह स्पष्ट होता है कि अधिकंाश जातियाँ ब्रिटिश काल में अस्तित्व में आयी है। वैदिक काल हिंदुत्व का स्वर्णिम काल था। वेद से बढ़कर हिंदू धर्म का कोई पवित्र ग्रंथ नहीं है। वैदिक युग में न कोई जाति थी न ही जातिवाद। महाभारत के शांति पर्व में उपलब्ध विवरणों से यह स्पष्ट होता है कि मूलतः सभी जातियां ब्राह्मण ही कही जाती थी क्यों कि सभी की उत्पत्ति ब्रह्मा से हुई है। ॠग्वेद के अनेक ॠचाओं में लकड़ी काटने वाला ब्राह्मण, ड्डषि कार्य करने वाला ब्राह्मण, बलि करने वाला ब्राह्मण इत्यादि वर्णन मिलता है। यह सि( करता है वेद काल में मानव को ब्राह्मण शब्द से सम्बोधित किया जाता था और वैदिक काल में जातियाँ नहीं थी। उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ। वस्तुतः सामाजिक और आर्थिक रुढ़ियों के प्रभाव के कारण जातियाँ न जाने कब और कैसे हमारे बीच आ गई। सच्चाई यह है कि शिक्षा के प्रचार-प्रसार और सामाजिक चेतना के जागरण के कारण भारत में जातिय भाव समाप्त हो रहा है। जाति का संबंध केवल विवाह तक सीमित रह गया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् केवल जनगणना में ही नही समस्त सरकारी दस्तावेजों, रजिस्टरों और नियुक्तियों व विद्यालयों में दाखिला हेतु आवदेन पत्रों से जाति का कॉलम हटा दिया गया। 1931 के बाद कभी भी जाति आधारित जनगणना नहीं हुई।

जनगणना-2011 में पुनः जातीय सूचना एकत्र करने का अर्थ है ब्रिटिश शासन काल के समाज तोड़क प्रतीकों को वापस लाना। अंग्रेजों ने ‘फूट डालो राज करो’ की नीति पर शासन चलाया। उसी का अनुकरण स्वतंत्र भारत में भी हो रहा है जातियों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। चुनाव में किसी क्षेत्र में किस जाति की कितनी संख्या है उसके अधार पर उम्मीदवारों का चयन किया जाता है। जाति के आगे बढ़कर गोत्र का भी विचार होने लगा है। राजनीति का केंद्र बिंदू जाति हो गया है। भारत में कई दलों तथा कई राजनीतिज्ञों का अस्तित्व जातिवाद पर ही टिका है। जातिवाद की आग को प्रज्जवलित करने में आरक्षण को पेट्रोल के रूप में प्रयोग किया जाता है। ‘जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी’ यह नारा देकर जातिवाद को उग्र बनाया गया। भारत के संविधान में अनुसूचित जाति और जनजाति को जिस भाव भावना से आरक्षण का लाभ दिया गया था वह समाप्त हो गया है। सभी जातियों में आरक्षण का लाभ लेने की होड़ सी मची है। जिसको हवा देने का काम राजनीतिक दल और राजनेता कर रहे हैं। राजस्थान में गुर्जर आंदोलन किस हद तक हिंसक हो गया था सभी ने देखा है। कोई दलित कार्ड खेल रहा है, कोई बैकवर्ड कार्ड खेल रहा है। कोई मुस्लिम कार्ड कोई इसाई कार्ड खेल रहा है। कोई अगड़ी जाति की राजनीति कर रहा है तो कोई पिछड़ी जाति की राजनीति कर रहा है। देश टूटता है तो टूट जाए समाज में विद्वेष फैलता है फैले, राजनीति की रोटी तो उसी विद्वेष की आंच पर सेंकनी है। शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, और लालू यादव पिछडे वर्ग के स्वयभूं नेता हैं, मायावती दलित समाज की स्वयंभू नेता हैं। इन सबके दबाव में केंद्र सरकार को विचार करने पर मजबूर होना पड़ रहा है। कंाग्रेस ने भी जातिवाद को बढ़ाने में कम भूमिका अदा नहीं किया है। हकीकत यह है कि इस देश की राजनीति में जातिवाद का बीजारोपण कांग्रेस ने ही किया है। सबसे बड़ा दुखद आश्चर्य है कि भारतीय जनता पार्टी जो देश की एकता और अखंडता में विश्वास करती है, ने भी जातीय जनगणना का समर्थन किया है। भाजपा भी ओछी वोट बैंक की राजनीति पर उतर आई है। उसे लगता है राजनीति की दौड़ में कहीं वह पीछे न रह जाए। भाजपा का वैचारिक अधिष्ठान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों के आधार पर निर्माण हुई है उसमें जातिवाद को कोई स्थान नहीं है। संघ के कार्यपद्धति में और संघ के व्यवहार में जाति बोध दूर-दूर तक नहीं है। संघ के कारण इस देश में जातिवाद जहाँ तक संघ का प्रभाव क्षेत्र है पूर्णतः समाप्त हो चुका है। इस तथ्य को गांधी जी जैसे लोगों ने भी स्वीकार किया हैं। भाजपा द्वारा जातिय जनगणना का समर्थन करना निंदनीय है और निराशाजनक भी है। लालू-मुलायम और शरद यादव ने गांधी, लोहिया और जयप्रकाश के सपनों को भी ध्वस्त किया है। लोहिया ने नारा दिया था ‘जाति तोड़ो समाज जोड़ो’। इस देश की संत परंपरा ने जाति प्रथा को समाप्त करने का महान कार्य किया है। संत रविदास जी ने कहा था ”जाति-पाति पूछे नहीं कोय, हरि को भजै सो हरि का होय”। जातीय जनगणना भारत के संविधान के मूल संकल्पना का भी उल्लंघन है। संविधान के प्रस्तावना में उल्लेख है हम लोग भारत को एक संप्रभु समाजवादी लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का संकल्प लेते हैं। केशवानंद भारती बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में मा. सर्वोच्च न्यायलय ने स्पष्ट कहा है संविधान के मूल ढाँचे में परिवर्तन नहीं हो सकता है। जातीय जनगणना लोकतंत्र या समाजवादी विचारधारा के विपरीत है। जातीय आधारीत जनगणना का क्या-क्या दुष्परिणाम हो सकता है इसका आकलन करने की आवश्यकता है। गृहमंत्रालय के सूत्र से अभी यह तथ्य प्रकाश में आया है कि मणिपुर में पिछली जनगणना में एक जनजाति विशेष ने योजनाबद्धढंग से अपनी जनसंख्या इतनी बड़ी मात्रा में दर्ज करवाया कि पूरे राज्य के आंकड़े निरस्त करने पड़े। जातीय आधारित जनगणना के पश्चात् सभी जातियों की ओर से अपनी संख्या कि अनुपात में आरक्षण की मांग बढ़ेगा। गृह युद्ध की सी स्थिति बन सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तक ही सीमित कर रखी है। इस सीमा का उल्लघंन करना पड़ेगा। मेरिट अर्थहीन हो जाएगा। वास्तव में आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए, यह मांग सभी दल और नेताओं को करनी चाहिए यदि वे वास्तव में समाज का उत्थान चाहते हैं। जिस जातिय वर्ग को आरक्षण की सुविधा प्राप्त है उस जाति या वर्ग के क्रीमी लेयर को आरक्षण की परिधि से बाहर निकाल शेष वंचित वर्ग को आरक्षण मिलना चाहिए। खेद है कि वोट बैंक के कारण मलाईदार परत को चिन्हित कर आरक्षण की परिधि से बाहर निकालने का काम पूरा नहीं किया जा सका है और न किया जा सकता है क्यों जो क्रीमी लेयर हैं वे ही तो राजनीति के धुरी हैं।

भले ही इस विषय को मंत्री समूह को सुपूर्द कर दिया गया है परंतु इसके अतिरिक्त मा. सर्वोच्च न्यायालय की राय भी आवश्य लेनी चाहिए। चिंतकों को राष्ट्रीय बहस छेड़नी चाहिए, तभी कोई निर्णय लेना उचित होगा।

* लेखक समाजसेवी तथा स्तंभकार हैं।