जाति जनगणना और राजनीति 

शम्भू शरण सत्यार्थी

बिहार में चुनाव के मद्देनजर जातिगत जनगणना कराने का सियासी दाव खेला गया. बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना कराई भी है और विपक्ष लगातार माँग करते रहा  कि जाति आधारित जनगणना पूरे देश में कराई जाय.भारतीय जनता पार्टी का शीर्ष नेतृत्व यह समझ गया कि जाति आधारित जनगणना का मुद्दा चुनाव में जोर शोर से उठेगा .इसकी वजह से प्रधानमन्त्री  नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई केंद्रीय कैबिनेट की राजनीतिक मामलों की समिति ने आगामी जनगणना के साथ जाति की गिनती कराने का फैसला सुना दिया.सूचना प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा जनगणना केंद्र के अधिकार क्षेत्र में है लेकिन कुछ राज्यों ने सर्वे के नाम पर ग़ैरपारदर्शी तरीके से जनगणना करा दी जिससे समाज में संदेह पैदा हुआ.

कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा कि बिहार के चुनाव को ध्यान में रखकर सरकार ने जातिगत जनगणना की घोषणा की है. ये बिहार के लिए नया नहीं है, बिहार में जातिगत सर्वे हो चुका है. बिहार में 65% आरक्षण दिया गया है। तेलंगाना में भी आरक्षण दिया जा रहा है.  सुप्रीम कोर्ट में 28 सितंबर 1962 का एक मशहूर केस है -एम आर बालाजी बनाम स्टेट ऑफ मैसूर, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार कहा कि पचास प्रतिशत आरक्षण की सीमा होनी चाहिए.

ऐसा संविधान में नहीं लिखा हुआ है और न ही संविधान निर्माता बाबा साहेब ने ऐसा कहा. 

16 नवंबर 1992 को इंदिरा साहनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया का एक और महत्वपूर्ण फैसला आया जिसके बाद मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू हुईं. 

ये संविधान की बुनियादी संरचना के खिलाफ नहीं है लेकिन एक शर्त रखी कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग का आरक्षण 50% से अधिक नहीं होगा.

1992 के बाद कई राज्यों ने आरक्षण बढ़ाया, 50% की सीमा को पार किया. तब एक मात्र राज्य तमिलनाडु का आरक्षण कानून को 9वीं सूची में शामिल किया गया.

9वीं सूची का मतलब है कि ये न्यायालय से संरक्षित है, न्यायालय इसमें बदलाव नहीं ला सकते हैं. 

तमिलनाडू में आरक्षण 69% है, लेकिन वो गैर-संवैधानिक नहीं है. वो हमारे संविधान के द्वारा सुरक्षित है.

आरक्षण के 50% की सीमा को हटाने की मांग खरगे जी और राहुल जी ने इसलिए कही क्योंकि सुप्रीम कोर्ट इसे गैर-संवैधानिक कहेगा. 

बिहार में जद यू-आर जे डी की सरकार ने जातिगत सर्वे कराया था और 65% आरक्षण लागू किया जिसे हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया, सुप्रीम कोर्ट में मामला अभी लंबित है.

 अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार जाकर आरक्षण के बारे में कुछ भी कहें, लेकिन सच्चाई ये है कि जब तक 50% की सीमा को नहीं हटाया जाएगा, तब तक बिहार में कुछ नहीं हो सकता.  

सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक सिद्धार्थ रामु ने कहा कि थोड़ा ठहर कर जश्न मनाइए. जाति जनगणना साध्य नहीं, साधन है. इसका इस्तेमाल दलित, अन्य पिछड़े वर्गों और आदिवासियों के खिलाफ भी हो सकता है- यह दोधारी तलवार है.

बहुजनों की लंबे समय से चली आ रही जाति जनगणना की मांग राजनीतिक और सैद्धांतिक तौर पर पूरी हो गई है. भाजपा के अलाव सभी राजनीतिक शक्तियां इसकी मांग कर रही थीं, अब भाजपा भी सहमत हो गई है, यह बहुजन आंदोलन की एक बड़ी जीत है, यह उन संगठनों-व्यक्तियों की बड़ी जीत है जो करीब दो दशकों से इसके लिए संघर्ष कर रहे थे.

खुशी और जश्न के बीच अनिवार्य तौर पर रेखांकित कर लेना चाहिए. जाति जनगणना अपने आप में भारत के बहुसंख्यक वंचित समुदायों को कुछ दे देगा, ऐसा बिलकुल नहीं. हां, कौन वंचना का शिकार है और किसका देश के संसाधनों और अवसरों पर कब्जा है और वह किसी सामाजिक समूह या वर्ण-जाति का है, यह तथ्य जरूर सामने ला देगा, अगर ठीक से जाति जनगणना हुई तो.

लेकिन जाति जनगणना से सामने आने वाले तथ्यों और उससे निकलने वाले निष्कर्षों का इस्तेमाल दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों के खिलाफ भी किया जा सकता है. 

यह कैसे और किस तरह किया जा सकता है और इसका इस्तेमाल वंचित समूहों के खिलाफ करने के लिए कौन-कौन से तरीके इस्तेमाल किए जा सकते हैं.

पहली बात भारतीय संविधान से लेते हैं, अपनी कमियों-कमजोरियों के बाद भी भारत का संविधान न्यायपूर्ण, समतामूलक, बंधुता आधारित, सबकी स्वतंत्रता और गरिमा का सम्मान करने वाला लोकतांत्रिक भारत बनाने का एक मजबूत आधार मुहैया कराता है लेकिन क्या भारत का संविधान ऐसा करने में सफल हुआ, उत्तर होगा नहीं.

इसकी वजह क्या संविधान की कमी-कमजोरी या खराबी थी, इसका उत्तर है, बिलकुल नहीं, तो वजह क्या थी. इसका जवाब डॉ. आंबेडकर के संविधान संबंधी इस कथन में मिलता है कि संविधान चाहे कितना ही अच्छा क्यों न हो, वह अपने आप में कुछ नहीं कर सकता. सब कुछ निर्भर करता है कि संविधान द्वारा सृजित संवैधानिक संस्थाओं संसद, कार्यपालिका, न्यायपालिका, चुनाव आयोग के नियंत्रकों और संचालकों पर. अच्छे से अच्छे संविधान का उसके नियंत्रक-संचालक बदत्तर से बदत्तर इस्तेमाल कर सकते हैं.

अंबेडकर ने इससे आगे की बात भी कही हैं, उन्होंने यहां तक कहा है कि सापेक्षिक तौर पर खराब संविधान का भी अच्छे लोग अच्छा इस्तेमाल कर सकते हैं.

भारतीय संविधान का इस्तेमाल इसका उदाहरण हैं. सिर्फ एक- दो उदाहरण लेते हैं. इस संविधान का इस्तेमाल करके वी. पी. सिंह कि सरकार ने मंडल कमीशन की रिपोर्टे लागू कर ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दे दिया, इसी संविधान का दुरूपयोग करके नरेंद्र मोदी की सरकार ने संविधान की भावना-प्रावधानों और आरक्षण के बुनियादी सिद्धांत का उल्लंघन करके आर्थिक आधार पर द्विज-सवर्णों के लिए ई डब्लू एस के नाम पर 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया.

इसी संविधान का इस्तेमाल करके ओबीसी के आरक्षण को करीब 45 वर्षों तक कांग्रेस और उसके पहले की अन्य सरकारों ने रोके रखा. इसी संविधान का इस्तेमाल करके एससी-एसटी एक्ट बना. इस संविधान का इस्तेमाल करके सुप्रीमकोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था. ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं.

यह हाल अमेरिकी, फ्रांसीसी, जर्मन और अन्य संविधानों का भी हुआ था. उसी अमेरिकी संविधान का इस्तेमाल करके लंबे समय तक नीग्रों और महिलाओं को वोटिंग के अधिकार से वंचित रखा गया, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर रखा गया और उसी संविधान का इस्तेमाल करके उन्हें वोटिंग का अधिकार मिल गया, समान स्तर के नागरिक का दर्जा प्राप्त हुआ. यही फ्रांस-ब्रिटेन में भी हुआ.

हिटलर ने जर्मनी के संविधान का इस्तेमाल करके फासीवाद ला दिया, लाखों लोगों का कत्लेआम किया. आजकल ट्रंप इसका उदाहरण हैं कि कैसे वे अमेरिकी संविधान का इस्तेमाल कर रहे हैं. 

जैसे भारत के शानदार संविधान का इस्तेमाल द्विज-सवर्ण वर्चस्व बनाए रखने के लिए किया गया है, उसी तरह जाति गणना का भी किया जा सकता है.

मूल बात पर आतें हैं. कैसे जाति जनगणना दोधारी तलवार है, इसका इस्तेमाल सामाजिक और आर्थिक तौर पर वंचित लोगों को उनका हक-हकूक और वाजिब हिस्सेदारी के लिए किया जा सकता है और इसका इस्तेमाल उनके वाजिब हक-हकूक से वंचित रखने के लिए भी किया जा सकता है.

जाति जनगणना कैसे वंचित तबकों को उनका वाजिब हक-हकूक दिलाने वाली चीज बन सकती है?

यह गणना पूरे देश की समग्र तस्वीर क्या है और इसमें अलग-अलग सामाजिक समूहों- वर्गों और जातियों की क्या स्थिति है, इसको सामने लाएगी.

यह सर्वे एक समाजिक समूह की तुलना में दूसरे सामाजिक समूह की क्या स्थिति, एक जाति की तुलना में दूसरे जाति की क्या स्थिति है, इसकी पूरी तस्वीर समाने रखेगा.

बिहार, तेलंगाना और कर्नाटक आदि में हुई जाति जगणगना ने यह साबित किया है कि देश के संसाधनों और अवसरों पर तथाकथित द्विज-सवर्ण जातियों का कब्जा है. 

15 प्रतिशत से भी कम द्विज-सवर्णों और अन्य शासक जातियों ने संपत्ति-संसाधनों, नौकरियों और अन्य अवसरों पर करीब 80 से 60 प्रतिशत तक कब्जा जमा रखा है, अलग-अलग मामलों में यह प्रतिशत अलग-अलग है, लेकिन उनकी आबादी के अनुपात में उनकी हिस्सेदारी 5 गुना, 4 गुना, 3 गुना, दो गुना तक है.

जैसे बिहार के करीब 0.6 प्रतिशत कायस्थों का बिहार की सरकारी नौकरियों के करीब 6 प्रतिशत पर कब्जा है और बिहार की आबादी के करीब 5 प्रतिशत मुसहरों (मांझी ) लोगों की सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी 1 प्रतिशत भी नहीं है.

यह सर्वे गरीबी-अमीरी-मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समूहों की वास्तविक स्थिति को भी  सामने  लाएगा. गरीब-अमीर के बीच की खाई को प्रस्तुत करेगा. गरीबी-अमीरी की जातिगत स्थिति क्या है, यह भी इस सर्वे से सामने आएगा.

संभावित सर्वे के आधार पर इस देश के सबसे वंचित सामाजिक समूहों और आर्थिक समूहों को एकजुट करके इस बात के लिए संघर्ष चलाया जा सकता है कि उनकी वंचना खत्म हो और उन्हें आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी-भागीदारी जीवन के सभी क्षेत्रों में मिले. 

करीब तय सी बात है कि सबसे वंचित समूहों के रूप में दलित, ओबीसी और आदिवासी और उनकी भीतर की जातियां- उपजातियां सामने आंएगी. आदिवासियों में जाति तो नहीं है, लेकिन उनके बीच काफी बंटवारा है.

ये समूह एकजुट होकर अपनी वंचना के खिलाफ और अपने हक-हकूक आबादी के अनुपात में पाने के लिए संघर्ष कर सकते हैं और यह संघर्ष अगर ठीक से चले तो आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी-भागीदारी भी हासिल कर सकते हैं.

यह तभी हो सकता है, जब दलित,आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग एकजुट होकर सही अर्थों में बहुजन बन जाए और इन बहुजनों के सामाजिक हितों के लिए कोई पार्टी या पार्टियों का गठजोड़ निर्णायक संघर्ष करे. 

ऐसा एजेंडा, पार्टी, ढांचा, नेतृत्व और संघर्ष (कम से कम तमिलनाडु जैसा) जिसमें बहुजनों की सभी जातियों और समूह यह महसूस कर पाएं कि फला पार्टी या पार्टियों का गठजोड़ उनके साथ न्याय कर रहा है, सबसे हितों का समान रूप में प्रतिनिधित्व कर रहा है. 

किसी एक जाति या समूह का विशेषाधिकार और वर्चस्व नहीं कायम हो रहा है. उनके बीच का कोई एक सामाजिक समूह ( दलित,आदिवासी, अन्य पिछड़ा वर्ग या अति पिछड़ा वर्ग) किसी दूसरे समूह का हक नहीं मार रहा है. कोई एक जाति दूसरे जाति का हक नहीं मार रही है.

चूंकि आदिवासियों  को छोड़कर दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग विभिन्न जातियों-उपजातियों में बंटा हुआ है. इसलिए यह जरूरी होगा कि अलग-अलग जातियों-उपजातियों को भी लगे कि उनके वाजिब हितों की रक्षा हो रही है. उनका हक कोई दूसरी जाति या उपजाति नहीं मार रही है.

इसके लिए वंचित वर्ग  दलित,आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग हितों के लिए पूरी तरह समर्पित पार्टी और नेतृत्व की जरूरत होगी. जिस पार्टी या जिन पार्टियों के गठजोड़ के साथ खड़े होने में  वंचित समूह के भीतर के विभिन्न सामाजिक समूहों और जातियों-उपजातियों को थोड़ा भी शक-सुबहा न हो, उन्हें लगे और वास्तव में हो भी, कि यह पार्टी या पार्टियों का गठजोड़ सभी के हितों के प्रति समान रूप से समर्पित है. 

पार्टी या गठजोड़ किसी एक सामाजिक समूह,जाति या उपजाति को विशेष तरजीह नहीं दे रहा है और न ही बहुसंख्य गरीब मेहनतकश बहुजनों की उपेक्षा कर रहा है.

यह एक बड़ी चुनौती है, लेकिन इस चुनौती  को स्वीकार करके और जमीन पर उताकर ही जाति जनगणना के तथ्यों और निष्कर्षों का इस्तेमाल दलितों,आदिवासियों और अन्य पिछड़ों वर्गों की वंचना को दूर करने और आबादी के अनुपात में उनकी हिस्सेदारी-भागीदारी के लिए किया जा सकता है. इस प्रक्रिया में समतामूल, न्यायपूर्ण, बंधुता आधारित आधुनिक लोकतांत्रिक भारत का सच्चे अर्थों में निर्माण किया जा सकता है.

कैसे जाति जनगणना का इस्तेमाल वंचित समूहों  आदिवासियों, दलितों और ओबीसी और उनके भीतर की विभिन्न जातियों-उपजातियों के खिलाफ किया जा सकता है ?

इस सवाल का जवाब देने से पहले इस तथ्य को रेखांकित कर लेना जरूरी है कि इस देश की द्विज-सवर्ण जातियां और अन्य शासक वर्गी जातियां जैसे गुजरात में पटेल अपने सामूहिक हितों के लिए पूरी तरह संगठित हो गई हैं. यहां तक द्विज-सवर्ण जातियों के भीतर के तीन वर्णों  ब्राह्मणों, क्षत्रिय और वैश्य पूरी तरह अपने सामूहिक हितों या वर्गीय हितों के लिए एकजुट हैं. उनके बीच में वर्तमान समय में कोई आपसी प्रतियगिता नहीं चल रही है. अगर चल भी रही है, तो दलितों,आदिवासियों और अन्य पिछड़ा वर्ग से मुकाबले में पूरी तरह एकजुट हो जाते हैं.

द्विज-वर्ण-जातियां सिर्फ संगठित ही नहीं, उनका देश के दो तिहाई संसाधनों पर कब्जा है. आज की सबसे ताकतवर शक्ति कार्पोरेट उन्हीं से बना है. 

विचारों की दुनिया विश्वविद्यायलों से लेकर मीडिया तक उनका पूरा का पूरा नियंत्रण हैं. देश की संवैधानिक संस्थाओं  नौकरशाही, सुप्रीमकोर्ट, चुनाव आयोग, ईडी, सीबीआई आदि पूरी तरह उनके हाथ में है. तथाकथित चौथा स्तंभ मीडिया पर कार्पोरेट के माध्यम से इनका नियंत्रण ही नहीं, मालिकाना भी है.

यहां तक कि वे राजनीतिक प्रतिधिनित्व के मामले में हमारी जाति का ही व्यक्ति हमारा प्रतिनिधि हो ,यह आग्रह वे छोड़ चुके हैं. पिछले कुछ चुनावों में यूपी में सपा और बसपा ने कई सारे ब्राह्मण उम्मीदवार खड़ा किए, इस उम्मीद में कि ब्राह्मण उन्हें वोट देंगे, लेकिन 10 प्रतिशत ब्राह्मणों ने उन ब्राह्मण उम्मीदवारों को वोट नहीं दिया. उसकी जगह उन्होंने गैर-ब्राह्मण,अधिकत्तर ओबीसी उम्मीदवारों को वोट दिया. यही बात अन्य द्विज-सवर्णों की जातियों के बारे में भी दिखी.

जाति जनगणना के बाद भी वंचित समूहों  दलित, आदिवासी और ओबीसी-बहुजन का मुकाबला इसी संगठित समूह से होगा. यह वंचित समूह उनका मुकाबला अपने वोट की ताकत के आधार पर एक हद तक कर सकता है. 

सवाल यह है कि क्या बहुजन समाज अपनी अपने भीतर के मोटे-मोटे बंटवारों और विभिन्न जातियों-उपजातियों के बीच के बंटवारों को पाटने लायक एजेंडा तैयार कर पाएगा ? 

ऐसी पार्टी या पार्टियों का गठजोड़ प्रस्तुत कर पाएगा, जो सचमुच में सभी बहुजनों का प्रतिनिधित्व करती हों, जिसमें अलग-अलग जातियों और उपजातियों का प्रतिनिधित्व भी शामिल हैं.

फिलहाल इस मामले में वर्तमान स्थिति निराशाजनक है. तमिलनाडु को यदि छोड़ दिया जाए तो बहुजन समाज बुरी तरह विभिन्न सामाजिक समूहों और जातियों में विभाजित है. यह विभाजन कम होने की जगह बढ़ रहा है, इसका सबसे बदत्तर उदाहरण बिहार है जो कभी सामाजिक न्याय का सबसे बड़ा गढ़ रहा है. 

वहां बहुजन पूरी तरह सामाजिक समूहों और जातियों में राजनीतिक तौर पर बंटे हुए हैं. बहुजन गोलबंदी जातियों की गोलबंदी में बदल चुकी है. बहुजनों की विभिन्न जातियां सामूहिक हितों की रक्षा के लिए एकजुट होने की जगह आपस में प्रतियोगिता कर रही हैं, जिसकी आगे की गति भी इसी दिशा में दिखाई दे रही है.

जाति जनगणना सभी जातियों की गणना करेगी और उनकी हिस्सेदारी का तथ्य समाने लाएगी. इस स्थिति का इस्तेमाल  अन्य पिछड़े वर्गों की हजारों जातियों और दलितो के बीच की कई सारी जातियों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने के लिए किया जा सकता है.

            अगर बहुजन समाज के लोग और इनके नेतृत्वकर्ता नहीं जागे तो आगे आने वाले दिनों में मिला हुआ अधिकार भी धीरे धीरे समाप्त हो जाएगा.

     

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