समाज को तोड़ती जातियां

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निर्भय कर्ण

जाति एक ऐसा मुद्दा जिससे कोई भी देश अब तक अछूता न रह सका है। कहीं यह धर्म के रूप में तो कहीं समुदाय के रूप में तो कहीं यह क्षेत्रवाद के रूप में निकल कर आता है लेकिन उपरोक्त इन तीनों में सभी प्रकार के जाति निवास करती है। एक समय ऐसा भी आता है जब एक ही क्षेत्र,एक ही समुदाय व धर्म की दो जातियां दो भागों में विभक्त हो जाती है जिसमें केवल और केवल द्वेष , तृष्णा, बदला एवं अन्य निरर्थक व विनाशकारी भावनाओं का जन्म होता है। इस दौरान मानव यह भूल जाता है कि सभी एक इंसान है चाहे वह किसी जाति, धर्म व समुदाय का हो और इन विनाशकारी भावनाओं के कारण केवल और केवल अपना और दूसरों का नुकसान ही होता है। ऐसे में लोगों के जेहन में यह सवाल उठता है कि आखिर वह क्या वजहें हैं जिसके कारण लोग एक-दूसरे के जान के प्यासे हो जाते हैं।

जातीय अहंकार और दंभ के कारण निर्दोश व कमजोर लोग निरंतर उपेक्षा, अपमान और नागरिक अधिकारों से वंचित होते रहते हैं जिसका सबसे ज्यादा असर श्रमशील तबकों पर पड़ता है। याद रहे कि मेहनतकश लोगों के श्रम की बुनियाद पर ही समाज-व्यवस्था टिकी होती है। भारत में ही छः हजार जातियां है जिसमें 80 फीसदी से अधिक दबी-कुचली जी रही जातियां है। आज भी यह माना जाता है कि जाति-प्रथा से पीड़ित तबकों के सुधार में असफलताओं की गणना संभव ही नहीं है चाहे इसके लिए लाख व्यवस्था कर ली जाए। एक अनुमान के मुताबिक वैश्विक स्तर पर 26 करोड़ आबादी जाति व्यवस्था के कारण कष्टकारी जीवन व्यतीत करने को मजबूर है।

नेपाल में जातिय विभेद को समाप्त करने के उद्देश्य से ही प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को जातियविभेद विरूद्ध दिवस मनाया जाता है। लेकिन यहां भी इस दिवस के मौके पर देश के कोने-कोने में कई प्रकार के कार्यक्रम किए जाते हैं जिसका एकमात्र उद्देश्य होता है देश में फैली जातिय द्वेष को कम किया जा सके और किसी भी प्रकार के जातिय विभेद की समस्या को रोका जा सके जिससे सभी मिलजुल कर इंसानियत की जिंदगी को जी सके।

देखा जाए तो, 2001 में नेपाल में हुए जनगणना में मधेश में 50 से अधिक जातियों की पहचान की गयी और विभिन्न जातियों में द्वेश जगजाहिर है। नेपाल हो या भारत या कोई अन्य देश सभी जगह जातियों के आधार पर शोषण का मामला भी आए दिन मीडिया की सुर्खियां बनती रहती है। नेपाल में ही लगभग 45 लाख दलित आबादी उच्च वर्गों के आगे शोषित नजर आती है। निम्न जाति पर जुल्मों सितम आज के आधुनिक युग में भी जारी है। कहीं मंदिर में प्रवेश के नाम पर तो कहीं उसके द्वारा छुए गए पानी के नाम पर निम्न जातियों के साथ प्रताड़ना की जाती रहती है। ऐसा नहीं है कि इसे रोकने के लिए नियम-कानून नहीं है। देखा जाए तो समय के साथ-साथ ऐसे शोषण को रोकने के लिए कई कानून भी बने लेकिन इन कानूनों की धज्जियां उड़ना भी आम बात सी हो गयी है। गौर किया जाए तो देश में डायन (बोक्सा/बोक्सी) के नाम पर भी लोगों को प्रताड़ना दी जाती रहती है जिसमें महिलाओं को अधिकतर इससे दो-चार होना पड़ता है। डायन के नाम पर महिलाओं के साथ छेड़छाड़ व मार-पीट की घटना भी सरेआम होती रहती है।

आरक्षण के बदौलत भी निम्न जातियों की स्थितियों में कुछ सुधार आया है, खासकर वे लोग जो शिक्षा से जुड़ पाए। लेकिन अभी भी अधिकतर निम्न जातियों के बच्चे शिक्षा से जुड़ने में असफल हैं और हो भी रहे हैं। इसलिए हर बच्चे को शिक्षा से जोड़ना न केवल आवश्यक है बल्कि अनिवार्य भी जिससे वे अपनी स्थिति को मजबूत कर सके। दलितों व गरीबों के साथ जातिय विभेद की घटना इस बात की ओर इशारा करती है कि यदि ये जातियां गरीबी का शिकार न हों तो उनके साथ शोषण की घटना बहुत ही कम होती है। उच्च वर्ग में भी यदि कोई गरीब है तो उसे भी काफी शोषण से दो-चार होना पड़ता है। यथार्थ कि यदि कोई शैक्षिक व आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो तो वह दलित भी उच्च श्रेणी में आ जाता है।

आज के युग में दलितों की परिभाषा बदल देना चाहिए। मेरे नजरिए में दलित व निम्न जाति वो है जो शिक्षित नहीं है व मानसिक रूप से दकियानुसी सोच के बदौलत सामाजिक कुरीतियों को दूसरे पर थोपने पर उतारू रहते हैं। साथ ही जो लोग आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो गए हैं उसे निम्न वर्ग नहीं बल्कि उच्च श्रेणी में मान्यता दे देनी चाहिए।

जातियविभेद की घटना समाज को न केवल तोड़ती है बल्कि जाति-जाति में विभक्त भी कर देती है। इसलिए समाज में व्याप्त इस जाति विभेद की समस्या को जड़ से उखाड़ने की आवष्यकता है जिससे कि पूरा समाज सशक्त और एकजुट हो ताकि किसी तरह की समस्या उत्पन्न होने पर सामाजिक सौहार्द के तहत उसे सुलझाया जा सके।

2 COMMENTS

  1. किसी बड़े कार्यालय में विभाग बनाए जाते है, जिस से काम अच्छे ढंग से हो. समाज में जातीगत वर्गीकरण से लाभ हुआ है, लेकिन वर्तमान समय में उससे अधिक नुक्सान हो रहा है.

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