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भारतीय अर्थव्यवस्था पर ट्रम्प प्रशासन के 50% टैरिफ का कोई असर नहीं

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अमेरिका के ट्रम्प प्रशासन द्वारा भारत से अमेरिका को होने वाले विभिन्न उत्पादों के निर्यात पर 50 प्रतिशत की दर से टैरिफ लगाया गया है। ट्रम्प ने वैसे तो लगभग सभी देशों से अमेरिका को होने विभिन्न उत्पादों पर अलग अलग दर से टैरिफ लगाया है परंतु भारत द्वारा विशेष रूप से रूस से सस्ते दामों पर कच्चे तेल की खरीद के चलते भारत से अमेरिका को होने वाले निर्यात पर 25 प्रतिशत का अतिरिक्त टैरिफ भी लगाया हुआ है। विभिन्न देशों से अमेरिका को होने वाले उत्पादों के निर्यात पर टैरिफ को लगाए हुए अब कुछ समय व्यतीत हो चुका है एवं अब इसका असर विभिन्न देशों की अर्थवस्थाओं एवं अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर दिखाई देने लगा है। यह हर्ष का विषय है कि 27 अगस्त 2025 से लगाए गए 50 प्रतिशत टैरिफ का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर लगभग नगण्य सा ही रहा है। माह सितम्बर 2025 में भारत से अमेरिका को विभिन्न उत्पादों का निर्यात लगभग 12 प्रतिशत कम होकर केवल 550 करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर पर नीचे आ गया है। परंतु, भारत का अन्य देशों को निर्यात लगभग 11 प्रतिशत से बढ़कर 3,638 करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुंच गया है जो पिछले वर्ष इसी अवधि में किए गए निर्यात से लगभग 7 प्रतिशत अधिक है। सितम्बर 2025 माह में भारत से 24 देशों को निर्यात की मात्रा बढ़ गई है। इस प्रकार, भारत द्वारा अमेरिका को कम हो रहे निर्यात की भरपाई अन्य देशों को निर्यात बढ़ाकर कर ली गई है।       सितम्बर 2025 माह में न केवल निर्यात में पर्याप्त वृद्धि दर्ज की गई है अपितु भारत में अक्टूबर 2025 माह में   प्रारम्भ हुए त्यौहारी मौसम, धनतेरस एवं दीपावली उत्सव के पावन पर्व पर, 6,800 करोड़ अमेरिकी डॉलर मूल्य के विभिन्न उत्पादों एवं सेवाओं की बिक्री भारत में हुई है, जो अपने आप में एक रिकार्ड है। हर्ष का विषय यह है कि इस कुल बिक्री में 87 प्रतिशत उत्पाद भारत में ही निर्मित उत्पाद रहे हैं। भारत में स्वदेशी उत्पादों की बिक्री का रिकार्ड कायम हुआ है।भारत में स्वदेशी उत्पादों को अपनाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पिछले 100 वर्षों से लगातार प्रयास कर रहा है। इसके  साथ ही प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने भी भारतीय नागरिकों का स्वदेशी उत्पादों को अपनाने का हाल ही में आह्वान किया था। इस आग्रह का अब भारी संख्या में भारतीय नागरिक सकारात्मक उत्तर दे रहे हैं। भारत में लगातार बढ़ रहे उपभोक्ता खर्च के चलते वस्तु एवं सेवा कर के संग्रहण में भी लगातार वृद्धि दृष्टिगोचर है, जो अब लगभग 2 लाख करोड़ प्रति माह के स्तर पर पहुंच गया है।   भारतीय पूंजी बाजार भी सकारात्मक परिणाम देता हुआ दिखाई दे रहा है। सितम्बर 2025 के अंत में सेन्सेक्स 80,267 के स्तर पर था जो 21 अक्टोबर 2025 को बढ़कर 84,426 के स्तर पर पहुंच गया। इसी प्रकार निफ्टी इंडेक्स भी सितम्बर 2025 के अंत में 24,611 के स्तर से बढ़कर 21 अक्टोबर 2025 को 25,868 के स्तर पर पहुंच गया। दीपावली के पावन पर्व पर रिकार्ड तोड़ व्यापार होने एवं पूंजी बाजार के अपने पिछले 52 सप्ताह के लगभग उच्चत्तम स्तर पर पहुंचने के पीछे मुख्य रूप से तीन कारक जिम्मेदार माने जा रहे हैं। (1) भारतीय उपभोक्ताओं में भारतीय उत्पादों के प्रति विश्वास निर्मित हुआ है और वे अब भारत में निर्मित उत्पादों को चीन अथवा अन्य विकसित देशों में निर्मित उत्पादों की तुलना में गुणवत्ता के मामले में बेहतर मानने लगे हैं। (2) विभिन्न भारतीय कम्पनियों द्वारा हाल ही में सितम्बर 2025 को समाप्त तिमाही के घोषित परिणाम काफी उत्साहजनक रहे हैं। (3) साथ ही, अक्टूबर 2025 माह में विदेशी संस्थागत निवेशकों की भारतीय पूंजी बाजार में वपिसी हुई है। वर्ष 2025 में सितम्बर 2025 माह तक विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारतीय पूंजी बाजार से लगभग 2 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि की निकासी की थी, जबकि अक्टूबर 2025 माह में विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा अभी तक लगभग 7,300 करोड़ रुपए का नया निवेश किया गया है।  ट्रम्प प्रशासन द्वारा भारत से अमेरिका को होने वाले विभिन्न उत्पादों पर लगाए गए 50 प्रतिशत टैरिफ के पश्चात भी भारतीय अर्थव्यवस्था लगातार आगे बढ़ रही है जबकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर लगातार संकट के बादल मंडराते हुए दिखाई दे रहे हैं। भारत में मुद्रा स्फीति की दर लगातार नीचे आ रही है एवं यह सितम्बर 2025 माह में 1.54 प्रतिशत तक नीचे आ चुकी है जो पिछले 8 वर्षों के दौरान अपने सबसे निचले स्तर पर है। जबकि ट्रम्प प्रशासन द्वारा विभिन्न देशों से अमेरिका को होने वाले विभिन्न उत्पादों के निर्यात पर लगाए गए टैरिफ के चलते अमेरिका में मुद्रा स्फीति की दर अब बढ़ती हुई दिखाई दे रही है और अगस्त 2025 माह में यह 2.9 प्रतिशत के स्तर पर रही है।  ट्रम्प प्रशासन द्वारा अपने वित्तीय घाटे को नियंत्रण में लाने एवं सरकारी ऋण को कम करने के उद्देश्य से विभिन्न देशों से अमेरिका को होने निर्यात पर टैरिफ की घोषणा की थी। परंतु, भारी मात्रा में टैरिफ बढ़ाने के बावजूद अमेरिका का वित्तीय घाटा कम होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। आज अमेरिका में वित्तीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 5.9 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गया है जबकि भारत में यह प्रतिवर्ष लगातार कम हो रहा है और इसके वित्तीय वर्ष 2025-26 में सकल घरेलू उत्पाद के 4.4 प्रतिशत के स्तर पर नीचे पहुंच जाने की सम्भावना है, यह वित्तीय वर्ष 2024-25 में 4.8 प्रतिशत का रहा था। इसी प्रकार, अमेरिका में सरकारी ऋण 37 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है, जो लगातार बढ़ता जा रहा है और यह अमेरिका के सकल घरेलू उत्पाद का 120 प्रतिशत है। अर्थात, अमेरिका में आय की तुलना में अधिक मात्रा में व्यय किए जा रहे है। आज अमेरिका में सरकारी ऋण पर ब्याज अदा करने के लिए भी ऋण लिया जा रहा है। दूसरी ओर, भारत में सरकारी ऋण की मात्रा केवल 3.80 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर पर है और यह भारत के सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 80 प्रतिशत है, जो लगातार कम हो रहा है। अमेरिका में सकल बचत की दर 22 प्रतिशत है जबकि भारत में यह 32 प्रतिशत है।      भारत में सकल घरेलू उत्पाद में वित्तीय वर्ष 2024-25 में 6.5 प्रतिशत की वृद्धि दर रही है जबकि अमेरिका में यह वर्ष 2024 में केवल 2.8 प्रतिशत की रही है। ट्रम्प प्रशासन द्वारा भारत से अमेरिका को विभिन्न उत्पादों के निर्यात पर लगाए गए 50 प्रतिशत टैरिफ के बावजूद वित्तीय वर्ष 2025-26 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 6.7 प्रतिशत की वृद्धि दर विश्व बैंक द्वारा अनुमानित है। जबकि अमेरिका द्वारा विभिन्न देशों के अमेरिका को निर्यात टैरिफ लगाए जाने के बावजूद अमेरिका में वर्ष 2025 में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर के नीचे गिरकर 1.6 प्रतिशत रहने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। स्पष्टत: अमेरिका द्वारा टैरिफ लागू करने का भारतीय अर्थव्यवस्था पर तो कोई विपरीत प्रभाव पड़ता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है बल्कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर ही विपरीत प्रभाव पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। साथ ही, अमेरिका में बेरोजगारी की दर में भी  वृद्धि दृष्टिगोचर है जो अब बढ़कर 4.3 प्रतिशत के स्तर पर आ गई है, जबकि भारत में यह दर गिरकर 5.1 प्रतिशत के स्तर पर नीचे आ गई है।         अमेरिका में बैकों से लिए गए ऋण एवं क्रेडिट कार्ड पर ली गई उधारी की किश्तों के भुगतान में चूक की संख्या में वृद्धि दृष्टिगोचर है। इसके चलते हाल ही 3 वित्तीय संस्थानों को दिवालिया घोषित किया जा चुका है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में स्वर्ण की कीमत में अपार वृद्धि (लगभग 4300 अमेरिकी डॉलर प्रति आउन्स के स्तर पर) दर्शाता है कि विभिन्न देशों का अब अमेरिकी डॉलर पर विश्वास कम हो रहा है और विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंक अपने विदेशी मुद्रा के भंडार में स्वर्ण की मात्रा को लगातार बढ़ा रहे हैं।     प्रहलाद सबनानी 

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आर्थिकी

पूरे विश्व में भारतीय आर्थिक दर्शन को लागू करने का समय अब आ गया है

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आज, वैश्विक स्तर पर कई देशों में विभिन्न प्रकार की आर्थिक समस्याएं दिखाई दे रही हैं, जिनका हल ये देश निकाल नहीं पा रहे हैं। आज विश्व के सबसे अधिक विकसित देश अमेरिका में भी मुद्रा स्फीति, बेरोजगारी, ऋण की राशि का असहनीय स्तर पर पहुंच जाना, विदेशी व्यापार में लगातार बढ़ता घाटा, नागरिकों के बीच आय की असमानता का लगातार बढ़ते जाना (अमीर नागरिक और अधिक अमीर हो रहे हैं एवं गरीब नागरिक और अधिक गरीब हो रहे हैं), बजट में वित्तीय घाटे का लगातार बढ़ते जाना एवं इन आर्थिक समस्याओं के चलते देश में सामाजिक ताने बाने का छिन्न भिन्न होना, जैसे, जेलों की पूरी क्षमता का उपयोग और इन जेलों में कैदियों के रखने लायक जगह की कमी होना, तलाक की दर में बेतहाशा वृद्धि होना, मकान की अनुपलब्धि के चलते बुजुर्गों का खुले में पार्कों में रहने को मजबूर होना, आदि ऐसी कई प्रकार की आर्थिक एवं सामाजिक समस्याएं दिखाई दे रही हैं। उक्त समस्याओं के चलते ही अब अमेरिकी अर्थशास्त्रियों द्वारा खुले रूप से कहा जाने लगा है कि साम्यवाद पर आधारित अर्थव्यवस्थाओं के असफल होने के उपरांत अब पूंजीवाद पर आधारित अर्थव्यवस्थाओं के भी असफल होने का खतरा मंडराने लगा है, और यह अब कुछ वर्षों की ही बात शेष है। उक्त समस्याओं के हल हेतु अब पूरा विश्व ही भारत की ओर आशाभारी नजरों से देख रहा है और तीसरे आर्थिक मॉडल की तलाश कर रहा है।       भारतीय आर्थिक दर्शन का वर्णन चारों वेद (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद), 18 पुराण, उपनिषद, विदुरनीति, कौटिल्य अर्थशास्त्र, थिरुवल्लुवर, मनुस्मृति, शुक्रनीति, डॉक्टर एम जी बोकारे द्वारा लिखित हिंदू अर्थशास्त्र, श्री दत्तोपंत ठेंगढ़ी द्वारा रचित पुस्तक “थर्ड वे” आदि शास्त्रों एवं धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इस प्रकार भारतीय आर्थिक दर्शन की जड़ें सनातन हिंदू संस्कृति से जुड़ी हुई हैं। भारतीय आर्थिक दर्शन की नीतियों का अनुपालन करते हुए ही प्राचीन काल में भारत में विभिन्न राजाओं द्वारा अपने अपने राज्यों की अर्थव्यवस्था सफलतापूर्वक चलाई जाती रही है।  भारतीय आर्थिक दर्शन में “विपुलता के सिद्धांत” की व्याख्या मिलती है जिसके अनुसार, बाजार में वस्तुओं की आपूर्ति सदैव ही मांग से अधिक रहती थी। इस सिद्धांत के चलते चूंकि उत्पादों की बाजार में पर्याप्त आपूर्ति रहती थी अतः वस्तुओं के बाजार भाव में वृद्धि नहीं दिखाई देती थी, अतः भारत में प्राचीनकाल में मुद्रा स्फीति की समस्या सर्वथा, थी ही नहीं। जबकि, आज विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रा स्फीति की समस्या सबसे बड़ी समस्या है जिसका हल निकालने में ये देश सक्षम नहीं दिखाई दे रहे हैं। विपुलता के सिद्धांत के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में ही विभिन्न उत्पादों का उत्पादन किया जाकर स्थानीय हाट बाजार में इन उत्पादों का विक्रय किया जाता था, जिससे स्थानीय स्तर पर ही स्वावलम्बन का भाव जागृत होता था। कुछ इलाकों में 40/50 गांवों के बीच साप्ताहिक हाट की व्यवस्था विकसित की गई थी। इन साप्ताहिक हाटों में लगभग सभी प्रकार के उत्पादों का विक्रय किया जाता था। चूंकि स्थानीय स्तर पर निर्मित विभिन्न उत्पादों की पर्याप्त मात्रा में बाजार में उपलब्धि रहती थी, अतः इन उत्पादों की कीमतें भी अपने आप ही नयंत्रित रहती थीं और इस प्रकार प्राचीन भारत में मुद्रा स्फीति के स्थान पर घटते हुए मूल्य के अर्थशास्त्र का वर्णन मिलता है। पूरे विश्व में, इस संदर्भ में, वर्तमान स्थिति भारतीय आर्थिक दर्शन के ठीक विपरीत दिखाई देती है जो किसी भी स्थिति में उचित नहीं कही जा सकती है। दरअसल, मुद्रा स्फीति का सबसे बुरा असर गरीब वर्ग पर पड़ता है और आज वैश्विक स्तर पर उत्पादन इकाईयां विभिन्न वस्तुओं की बाजार में आपूर्ति को विपरीत रूप नियंत्रित करती हैं ताकि इन उत्पादों की बाजार में कीमत बढ़ सके एवं इन उत्पादन इकाईयों के लाभ में वृद्धि दर्ज हो सके। पूंजीवाद पर आधारित अर्थव्यवस्था में उत्पादन इकाईयों का मुख्य उद्देश्य ही अधिकतम लाभ कमाना होता है और इस मूल्य वृद्धि से समाज के गरीब एवं मध्यम वर्ग पर कितना बोझ बढ़ रहा है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं रहता है। प्राचीन भारत में मुद्रा स्फीति की समस्या इसलिए भी नहीं रहती थी क्योंकि प्राचीनकाल में भारतीय आर्थिक दर्शन के अनुसार “प्रतिस्पर्धा के सिद्धांत” का अनुपालन सुनिश्चित होता था। ग्रामीण क्षेत्रों में लगने वाले हाट बाजार में उत्पादों के विक्रेताओं के बीच में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रहती थी। उत्पाद बेचने वाले स्थानीय विक्रेताओं की पर्याप्त संख्या रहती थी एवं साथ ही इनके बीच अपने अपने उत्पाद बेचने की प्रतिस्पर्धा रहती थी ताकि अपने अपने उत्पाद शीघ्र ही बेचकर वे अपने अपने ग्रामों में सूरज डूबने के पूर्व वापिस पहुंच सकें। इस प्रकार के  कारणों के चलते कई बार तो विक्रेता अपने उत्पादों को सस्ते भाव में बेचना चाहता था अतः बाजार में उत्पादों के मूल्यों में कमी भी दिखाई देती थी। आज, वैश्विक स्तर पर निगमित क्षेत्र में कार्यरत कम्पनियों के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा तो एक तरह से दिखाई ही नहीं देती है बल्कि वे आपस में मिलकर उत्पादक संघ (कार्टेल) का निर्माण कर लेती हैं और इन कम्पनियों द्वारा निर्मित उत्पादों के बाजार मूल्यों को अपने पक्ष में नियंत्रित किया जाता हैं ताकि वे इन उत्पादों के व्यापार से अपने लिए अधिकतम लाभ का अर्जन कर सकें। इस पूंजीवादी नीति से इन कम्पनियों की लाभप्रदता में तो वृद्धि होती है परंतु आम नागरिकों की जेब पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। अतः उक्त पूंजीवादी आर्थिक नीति के चलते आम नागरिकों पर निर्मित होने वाले आर्थिक दबाव को कम करने की दृष्टि से विक्रेताओं द्वारा लाभ अर्जन के संदर्भ में भी भारतीय आर्थिक दर्शन के नियमों का अनुपालन किया जा सकता है।  भारतीय आर्थिक दर्शन के अनुसार, “मूल्य सिद्धांत” के अंतर्गत, विक्रेता द्वारा स्वयं के द्वारा निर्मित वस्तु की उत्पादन लागत पर 5 प्रतिशत की दर से लाभ जोड़कर उस वस्तु का विक्रय मूल्य तय किया जाना चाहिए एवं यदि उस वस्तु का निर्यात किसी अन्य देश को किया जा रहा है तो उस वस्तु के उत्पादन लागत पर 10 प्रतिशत की दर से लाभ जोड़कर उस वस्तु का विक्रय मूल्य तय किया जाना चाहिए। इस नीति के अनुपालन से प्राचीन भारत में विभिन्न उत्पादों के बाजार मूल्य लम्बे समय तक स्थिर रहते थे एवं इनके मूल्यों में वृद्धि लगभग नहीं के बराबर दिखाई देती थी। आज पूंजीवादी नीतियों के अंतर्गत विभिन्न उत्पादों के विक्रय मूल्यों पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं है। विशेष रूप से दवाईयों के मूल्य के सम्बंध में नीति का उल्लेख यहां किया जा सकता है। केन्सर एवं दिल की बीमारी से सम्बंधित दवाईयों के बाजार मूल्य लाखों रुपयों में तय किए जाते हैं क्योंकि इन दवाईयों को बेचने का एकाधिकार “पैटेंट कानून” के अंतर्गत केवल इन दवाईयों का उत्पादन करने वाली कम्पनियों के पास रहता है। केवल लाभ कमाना ही इन कम्पनियों का मुख्य उद्देश्य है, जबकि सनातन हिंदू संस्कृति में किसी अस्वस्थ नागरिक को दवाई उपलब्ध कराने का कार्य सेवा कार्य की श्रेणी में रखा गया है। उक्त वर्णित दवाईयों की बाजार में उपलब्धता बढ़ाकर एवं इन दवाईयों के विक्रय मूल्य को नयंत्रित रखकर कई जीवन बचाए जा सकते हैं। परंतु, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्गत तो लाभ कमाना ही मुख्य उद्देश्य है।  आज विश्व के कई देशों में बेरोजगारी की समस्या विकराल रूप धारण करती हुए दिखाई दे रही है एवं इन देशों के पास बेरोजगारी की समस्या को हल करने का कोई उपाय भी सूझ नहीं रहा है। भारत के प्राचीन ग्रंथो में बेरोजगारी की समस्या के संदर्भ के किसी प्रकार का जिक्र भी नहीं मिलता है। “स्वयं के नियोजन के सिद्धांत” का अनुपालन करते हुए उस समय पर विभिन्न परिवारों द्वारा स्थापित अपने उद्यमों को ही आगे आने वाली पीढ़ी आगे बढ़ाती जाती थी, इससे युवाओं में “नौकरी” करने का प्रचलन भी नहीं था। अपने पारम्परिक व्यवसाय में ही युवा पीढ़ी रत हो जाती थी अतः बेरोजगारी की समस्या भी बिलकुल नहीं पाई जाती थी। आज पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत कोरपोरेट जगत की स्थापना के चलते नागरिकों में “नौकरी” का भाव जागृत किया गया है। आज प्रत्येक युवा नौकरी की कतार में लगा हुआ दिखाई देता है, लगभग 30 वर्ष की आयु होते होते जब उसे उसकी चाहत के अनुसार नौकरी नहीं मिल पाती है तो वह अपने जीवन के लिए समझौता कर लेता है और किसी भी संस्थान में किसी भी प्रकार की नौकरी करने को मजबूर हो जाता है। कई इंजीनियर   एवं पोस्ट ग्रैजूएट युवा, मजबूरी में आज विभिन्न उत्पादों की डिलीवरी करने एवं टैक्सी चलाने जैसे कार्यों को भी करते हुए दिखाई देते हैं। आज यदि अपने पुश्तैनी व्यवसाय को यह युवा आगे बढ़ा रहे होते तो सम्भवतः उनकी आमदनी भी अधिक होती और उक्त प्रकार के कार्य करने हेतु वे मजबूर भी नहीं होते।  भारत के प्राचीन ग्रंथों में “शून्य ब्याज दर के सिद्धांत” का भी वर्णन मिलता है। राज्यों के पास धन के भंडार भरे रहते थे एवं समाज में यदि किसी नागरिक को अपना व्यवसाय स्थापित करने के लिए धन की आवश्यकता रहती थी तो वह राजा से धन उधार लेकर अपना व्यवसाय स्थापित कर सकता था एवं राजा द्वारा नागरिकों को दी गई उधार की राशि पर किसी प्रकार का ब्याज नहीं लिया जाता था। क्योंकि, यह उस राज्य के राजा का कर्तव्य माना जाता था कि वह अपने राज्य के नागरिकों को उचित मात्रा में व्यवसाय करने के लिए धन उपलब्ध कराए। इस प्रकार, भारत के प्राचीन खंडकाल में ब्याज की दर भी शून्य रहा करती थी। इससे, स्थानीय नागरिक भी अपना व्यवसाय स्थापित करने की ओर प्रेरित होते थे एवं नौकरी करने का चलन नहीं के बराबर रहता था।                       प्रहलाद सबनानी

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आर्थिकी

भारत में राज्य सरकारों के ऋणों में भारी वृद्धि इन राज्यों की अर्थव्यवस्था को ले डूबेगी

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किसी भी नागरिक, वाणिज्यिक संस्थान, राज्य सरकार अथवा केंद्र सरकार द्वारा उत्पादक कार्यों के लिए बाजार से ऋण लेना केवल तब तक ही सही हैं जब तक बाजार से लिए गए ऋण से कम से कम उस स्तर तक आय का अर्जन हो कि इस ऋण के ब्याज एवं किश्त का भुगतान इस आय से आसानी से किया जा सके। परंतु, किसी भी व्यक्ति अथवा संस्थान द्वारा बाजार से ऋण यदि अनुत्पादक कार्य के लिए लिया जा रहा है तो इस ऋण के ब्याज एवं किश्त का भुगतान करना निश्चित ही मुश्किल कार्य हो सकता है। आज भारत के कुछ राज्यों की बजटीय स्थिति पर भारी दबाव पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है क्योंकि इन राज्यों ने बाजार से भारी मात्रा में ऋण लिया हैं एवं इस ऋण का उपयोग अनुत्पादक कार्यों यथा बिजली के बिल माफ करना, नागरिकों के खातों में सीधे राशि जमा करना, मुफ्त पानी उपलब्ध कराना, कुछ पदार्थों पर सब्सिडी उपलब्ध कराना, आदि के लिए किया जा रहा है। इन राज्यों की स्थिति इस कदर बिगड़ चुकी है कि इन्हें ऋणों पर अदा किए जाने वाले ब्याज एवं किश्तों के भुगतान हेतु भी ऋण लेना पड़ रहा हैं। यदि कुछ और वर्षों तक इन राज्यों की यही स्थिति बनी रही तो निश्चित ही यह राज्य दिवालिया होने की स्थिति में पहुंच जाने वाले हैं।  हाल ही के कुछ वर्षों में केंद्र सरकार द्वारा भी बाजार से ऋण लेने की राशि में वृद्धि देखी जा रही है। वर्ष 2019 में केंद्र सरकार पर 1.74 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण बक़ाया था जो वर्ष 2025 में, लगभग दुगना होते हुए, बढ़कर 3.42 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया है और वर्ष 2029 तक इसके 4.89 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर तक हो जाने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। भारत का सकल घरेलू उत्पाद आज 4.19 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुंच गया है। इस प्रकार, भारत सरकार का ऋण, भारत के सकल घरेलू उत्पाद के 80 प्रतिशत के स्तर को पार कर गया है। केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों की निर्भरता ऋण पर लगातार बढ़ती हुई दिखाई दे रही है जिसे देश की अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता है। आज केंद्र सरकार पर 200 लाख करोड़ रुपए की राशि का ऋण बक़ाया है एवं समस्त राज्य सरकारों पर 82 लाख करोड़ रूपए का ऋण बकाया है, इस प्रकार केंद्र एवं राज्य सरकारों पर संयुक्त रूप से 282 लाख करोड़ रुपए का ऋण बक़ाया है जो देश के सकल घरेलू उत्पाद का 81 प्रतिशत है।  एक तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था ऋण के ऊपर विकसित की जा रही है। जबकि, भारतीय आर्थिक दर्शन ऋण पर निर्भरता को प्रोत्साहन नहीं देता है। चाणक्य के अर्थशास्त्र में, राजा के पास कोष में आधिक्य होने का वर्णन मिलता है। राजा के पास यदि ऋण के स्थान पर कोष का आधिक्य होगा तब वह राज्य अपने नागरिकों के कल्याण पर अधिक राशि खर्च करने की स्थिति में रहेगा। अर्थात, प्राचीन भारत में राज्यों का आधिक्य का बजट रहता था, उसी स्थिति में वे राज्य अपने नागरिकों के कल्याण के कार्यों को तेज गति से चलाने की स्थिति में रहते थे। राज्य का खजाना ही यदि खाली हो तो वे किस प्रकार से राज्य के नागरिकों के लिए भलाई के कार्य कर सकते हैं। आज की स्थिति, बिलकुल विपरीत दिखाई देती है और आज कुछ राज्य बाजार से ऋण लेकर भी नागरिकों को मुफ्त में सुविधाएं उपलब्ध करा रहें हैं बगैर यह सोचे समझे कि आगे आने वाले समय में बाजार से लिए गए ऋण का भुगतान किस प्रकार किया जाएगा। आज भारत में कुछ राज्यों की स्थिति यह है कि वे अपनी कुल आय का 55 प्रतिशत भाग कर्मचारियों को वेतन, पेन्शन एवं उधार ली गई राशि पर ब्याज के भुगतान करने जैसी मदों पर खर्च कर रहे हैं। जबकि, विभिन्न राज्य अपनी आय को बढ़ा सकने की स्थिति में नहीं है। कुछ राज्य तो वर्ष भर में जिस आय की राशि का आंकलन करते हैं उसे प्राप्त ही नहीं कर पाते हैं और बजटीय आय की राशि एवं वास्तविक आय की राशि में 11 प्रतिशत तक की कमी रहती है, जबकि इन राज्यों के खर्च नियमित रूप से बढ़ते जा रहे हैं और इस प्रकार इन राज्यों का बजटीय घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है और अब यह असहनीय स्थिति में पहुंच गया है।  आज राज्यों की कुल आय का 84 प्रतिशत भाग स्थिर मदों पर खर्च हो रहा है। प्रदेश को आगे बढ़ाने एवं आर्थिक रूप से सम्पन्न बनाने के लिए कुछ राशि इन राज्यों के पास उपलब्ध ही नहीं हो पा रही है। पूंजीगत खर्चों में लगातार हो रही कमी के चलते इन राज्यों में नए अस्पतालों का निर्माण, नए रोड का निर्माण नए स्कूल हेतु भवनों का निर्माण नहीं हो पा रहा हैं, जिससे रोजगार के नए अवसर भी निर्मित नहीं हो पा रहे हैं।  पंजाब में कुल आय का 76 प्रतिशत भाग कर्मचारियों के वेतन, पेन्शन एवं ऋण पर ब्याज अदा करने जैसी मदों पर खर्च हो रहा है इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में 79 प्रतिशत एवं केरल में 71 प्रतिशत भाग उक्त मदों पर खर्च किया जा रहा है। साथ ही, कुछ राज्यों द्वारा अपनी कुल आय का भारी भरकम हिस्सा सब्सिडी जैसी मदों पर खर्च किया जा रहा है। जैसे, पंजाब द्वारा अपने बजटीय आय का 24 प्रतिशत भाग सब्सिडी पर खर्च किया जा रहा है। इसी प्रकार, हिमाचल प्रदेश द्वारा 5 प्रतिशत, आंध्रप्रदेश द्वारा 15 प्रतिशत, तमिलनाडु द्वारा 12 प्रतिशत एवं राजस्थान द्वारा 13 प्रतिशत राशि सब्सिडी पर खर्च की जा रही है। पंजाब द्वारा तो अपने बजट की 100 प्रतिशत राशि (24 प्रतिशत सब्सिडी पर एवं 76 प्रतिशत राशि वेतन, पेन्शन एवं ब्याज पर खर्च की जा रही है) सामान्य मदों पर खर्च की जा रही है और पूंजीगत खर्चों के लिए शून्य राशि बचती है।   विभिन्न राज्यों द्वारा पेन्शन की मद पर वर्ष 1980-81 में अपने राज्य की कुल आय का केवल 3.4 प्रतिशत की राशि का खर्च किया जा रहा था जो वर्ष 2021-22 में बढ़कर 24.3 प्रतिशत हो गया। इसी कारण से भारत सरकार ने पेन्शन अदा करने के नियमों में परिवर्तन किया था। आज यदि पेन्शन की नीति को नहीं बदला गया होता तो इस मद पर होने वाला खर्च बढ़कर 30 प्रतिशत के आसपास पहुंच जाता।  पिछले कुछ वर्षों के दौरान देश के कई राज्यों ने अपने पूंजीगत खर्च को घटाया है। वर्ष 2015-16 से वर्ष 2022-23 के बीच राज्यों ने अपने पूंजीगत खर्च में 51 प्रतिशत तक की कमी की है। दिल्ली में 38 प्रतिशत, पंजाब में 40 प्रतिशत, आंध्रप्रदेश में 41 प्रतिशत पश्चिम बंगाल में 33 प्रतिशत से पूंजीगत खर्चों में कमी दर्ज हुई है। आज कई राज्य सरकारें सब्सिडी प्रदान करने की मद पर अपने खर्चों को लगातार बढ़ा रहीं हैं एवं पूंजीगत खर्चों को लगातार घटा रही हैं, जो उचित नीति नहीं कही जा सकती है। इस प्रकार तो इन राज्यों की अर्थव्यवस्थाएं शीघ्र ही डूबने के कगार पर पहुंच जाने वाली हैं। इन राज्यों में हिमाचल प्रदेश, केरल, पश्चिमी बंगाल जैसे राज्य शामिल हैं।  सब्सिडी, वेतन, पेन्शन एवं ब्याज जैसी मदों पर लगातार बढ़ रहे खर्चों के कारण आज 15 राज्यों का बजटीय घाटा कानूनी रूप से निर्धारित 3 प्रतिशत की सीमा से ऊपर हो गया है। हिमाचल प्रदेश में बजटीय घाटा बढ़कर 4.7 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 4.1 प्रतिशत, आंध्रप्रदेश में 4.2 प्रतिशत एवं पंजाब में 3.8 प्रतिशत के खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है।          इसी क्रम में ध्यान में आता है कि मध्य प्रदेश सरकार ने 5200 करोड़ रुपये का नया कर्ज लेने का निर्णय लिया है। यह फैसला इसलिए चर्चा में है क्योंकि भाईदूज के अवसर पर ‘लाड़ली बहना योजना’ के अंतर्गत 1.27 करोड़ महिलाओं के खातों में राशि समय पर नहीं पहुंच पाई थी। इसके बाद सरकार ने प्रदेश स्थापना दिवस पर भुगतान सुनिश्चित करने के लिए ऋण लेने का रास्ता चुना है। जब किसी राज्य को सामाजिक योजनाओं पर खर्च के लिए ऋण लेना पड़े तो यह स्थिति उस प्रदेश की अर्थव्यवस्था के लिए उचित नहीं कही जा सकती है। मध्यप्रदेश द्वारा ऋण लेने की रफ्तार पिछले कुछ वर्षों में कुछ तेज हुई है। मार्च 2024 तक मध्यप्रदेश राज्य पर 3.7 लाख करोड़ रुपये का कर्ज था, जो अब बढ़कर 4.8 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। जबकि, मध्यप्रदेश की आय में इस रफ्तार से वृद्धि नहीं देखी जा रही है। वित्‍तीय अनुशासन की दृष्टि से यह स्थिति चिंताजनक है, क्योंकि ब्याज भुगतान का बोझ हर साल बढ़ता जा रहा है। हिमाचल प्रदेश, पंजाब, केरल एवं पश्चिम बंगाल की राह पर कहीं मध्यप्रदेश राज्य भी तो नहीं चल पड़ा है।   प्रहलाद सबनानी 

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आर्थिकी

दीपावली के त्यौहारी मौसम में भारतीय अर्थव्यवस्था को लगे पंख

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वैसे तो प्रतिवर्ष ही भारत में धनतेरस एवं दीपावली के शुभ अवसर पर भारतीय नागरिकों द्वारा विभिन्न उत्पादों विशेष रूप से स्वर्ण एवं चांदी के आभूषणों की खरीद को शुभ माना जाता है। अतः इस त्यौहारी मौसम में विभिन्न उत्पादों की भारत में बिक्री बहुत बढ़ जाती है। परंतु, इस वर्ष तो केंद्र सरकार द्वारा लिए गए कुछ निर्णयों के चलते भारतीय बाजार में सोने एवं चांदी सहित विभिन्न उत्पादों की बिक्री में बेतहाशा वृद्धि दर्ज हुई है। केंद्र सरकार द्वारा आयकर योग्य राशि की सीमा को बढ़ाकर 12 लाख कर दिया गया है। यदि आज किसी नागरिक की आय 12 लाख रुपए तक प्रतिवर्ष है तो उसकी आय पर आयकर नहीं लगने वाला है। साथ ही, वस्तु एवं सेवा कर की दरों को भी तर्कसंगत बनाया गया है जिसे जीएसटी2.0 का नाम दिया जा रहा है। अब 95 प्रतिशत से अधिक उत्पादों पर केवल 5 प्रतिशत और 18 प्रतिशत की दर से ही वस्तु एवं सेवा कर लागू होगा। पूर्व में, 5 प्रतिशत, 12 प्रतिशत, 18 प्रतिशत एवं 28 प्रतिशत की दरें लागू होती थी। अब 12 प्रतिशत एवं 28 प्रतिशत की दरों को समाप्त कर दिया गया है। इससे उपभोक्ताओं को वस्तु एवं सेवा कर की दरों में लगभग 10 प्रतिशत तक का लाभ मिला है। चार पहिया वाहनों पर तो लगभग 60-70,000 रुपए प्रति वाहन तक  की बचत हुई है। इस तरह, इस वर्ष दीपावली के त्यौहारी मौसम में भारतीय अर्थव्यवस्था को बढ़े हुए उपभोग का सहारा मिला है।  भारतीय इतिहास में, दीपावली के त्यौहारी मौसम में, इस वर्ष सबसे अधिक रिकार्ड कारोबार सम्पन्न हुआ है। भारत में नागरिक अब बाजार में दुकानों पर आकर उत्पादों की पूछ परख कर ही उत्पादों की खरीद करते हुए दिखाई दे रहे हैं। इसी कारण से इस वर्ष के दीपावली त्यौहारी मौसम में भारतीय बाजारों में दुकानों पर बहुत अधिक भीड़ दिखाई दी है। कनफेडरेशन आफ आल इंडिया ट्रेडर्स (सीएआईटी) द्वारा सम्पन्न किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत के 35 नगरों के वितरण केंद्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, इस वर्ष लगभग 5.4 लाख करोड़ रुपए का व्यापार दीपावली के त्यौहारी मौसम में सम्पन्न हुआ है। वर्ष 2021 में इसी त्यौहारी मौसम में 1.25 लाख करोड़ रुपए, वर्ष 2022 में 2.50 लाख करोड़ रुपए, वर्ष 2023 में 3.75 लाख करोड़ रुपए एवं वर्ष 2024 में 4.25 लाख करोड़ रुपए का व्यापार सम्पन्न हुआ था। इस वर्ष अभी आगे आने वाले समय में गोवर्धन पूजा, भाई दूज, छठ एवं तुलसी विवाह आदि त्यौहार भी उत्साह पूर्वक मनाए जाने हैं। ऐसा अनुमान किया जा रहा है कि इस वर्ष इस दौरान भी लगभग 80,000 करोड़ रुपए का व्यापार सम्पन्न होने की प्रबल सम्भावना है। इस प्रकार इस वर्ष भारत में त्यौहारी मौसम में कुल व्यापार का आंकड़ा 6 लाख करोड़ रुपए से अधिक होने की प्रबल सम्भावना है, जो पिछले वर्ष इसी अवधि में सम्पन्न हुए व्यापार के आंकडें की तुलना में 41 प्रतिशत अधिक है।   इस वर्ष भारत के नागरिकों में स्वदेशी उत्पाद खरीदने की होड़ सी रही हैं। इसी प्रकार, एक अनुमान के अनुसार, इस वर्ष धनतेरस त्यौहार के दौरान सोने चांदी के गहनों, सिक्कों एवं अन्य वस्तुओं के कारोबार का स्तर भी 60,000 करोड़ रुपए के आसपास रहा है। बाजार में हालांकि इस वर्ष सोने एवं चांदी के भाव आसमान छू रहे हैं। वर्ष 2024 की दीपावली पर सोने का भाव लगभग 80,000 रुपए प्रति 10 ग्राम था, जो इस वर्ष बढ़कर 130,000 रुपए प्रति 10 ग्राम पर पहुंच गया है, अर्थात लगभग 62 प्रतिशत अधिक। चांदी का भाव भी वर्ष 2024 में 98,000 रुपए प्रति किलोग्राम था जो इस वर्ष बढ़कर 180,000 रुपए प्रति किलोग्राम हो गया है, अर्थात लगभग 83 प्रतिशत अधिक। एक अन्य अनुमान के अनुसार, दीपावली के इस त्यौहारी मौसम में भारत में स्वर्ण एवं चांदी के आभूषणों की कुल मिलाकर 1.35 लाख करोड़ रुपए की बिक्री हुई है। भारतीय बाजारों में लगभग 46 टन सोने की बिक्री हुई है।  दीपावली के पावन पर्व पर इस वर्ष 600,000 वाहन एक दिन में बिके हैं। यह भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती को दर्शा रहा है। इससे यह भी सिद्ध हो रहा है कि है कि भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत ही तेज गति से आगे बढ़ रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति श्री डॉनल्ड ट्रम्प कह रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था डेड है, भारतीय अर्थव्यवस्था में लगातार तेज हो रही विकास दर अमेरिकी राष्ट्रपति के बयानों को झुठला रही है।  वित्तीय वर्ष 2025-26 की प्रथम तिमाही, अप्रेल-जून 2025, में भारतीय अर्थव्यवस्था ने 7.3 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर हासिल की है। जबकि, द्वितीय तिमाही जुलाई-सितम्बर 2025 में एवं तृतीय तिमाही अक्टोबर-दिसम्बर 2025 में भी भारतीय अर्थव्यवस्था के रिकार्ड स्तर पर आर्थिक विकास दर हासिल करने की संभावनाएं प्रबल हो गई हैं। भारत में द्वितीय तिमाही में प्रारम्भ हुए त्यौहारी मौसम (दुर्गा उत्सव, दशहरा, धनतेरस एवं दीपावली, आदि) में विभिन्न उत्पादों की रिकार्ड वृद्धि दर्ज होती हुई दिखाई दी है। यह प्रवाह तीसरी तिमाही में भी जारी रहने की प्रबल सम्भावना दिखाई दे रही है क्योंकि त्यौहारी मौसम अभी इस अवधि  में भी जारी रहेगा जो 25 दिसम्बर (क्रिसमस) एवं 31 दिसम्बर (नव वर्ष) तक जारी रहेगा। साथ ही, शादियों का मौसम भी आने वाला है, इस मौसम में भारत में लाखों की संख्या में शादियां सम्पन्न होती हैं, और शादियों के इस मौसम में विभिन्न उत्पादों (स्वर्ण, चांदी, कार, टीवी, रेफ्रीजरेटर, एसी, आदि) की मांग में बेतहाशा वृद्धि दर्ज होती है। इस बीच भारत में धार्मिक पर्यटन भी अपने उच्चत्तम स्तर पर पहुंच गया है। अयोध्या, वाराणसी, चार धाम, वैष्णो देवी, महाकाल मंदिर, तिरुपति बालाजी, मीनाक्षी मंदिर आदि में लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंच रहे हैं। भारत में लगातार बढ़ रहे धार्मिक पर्यटन से भी उत्पादों का उपभोग बढ़ रहा है, जो अर्थव्यवस्था को गति देने में सहायक हो रहा है एवं रोजगार के लाखों नए अवसर निर्मित कर रहा है।    भारत में अब देश में ही निर्मित उत्पादों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है, इस कार्य में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्वदेशी अपनाने की अपील पर भारतीय नागरिक अपना भरपूर सहयोग कर रहे हैं। भारत में ही निर्मित उत्पादों के उपभोग का स्तर सकल घरेलू उत्पाद के 60-70 प्रतिशत तक पहुंच गया है। इसी कारण से भारत को देशीय उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था कहा जा रहा है। भारत में आंतरिक उपभोग के लगातार मजबूत होने के चलते भारत अब दुनिया के कई देशों के निवेशकों के लिए निवेश के केंद्र के रूप में उभर रहा है, क्योंकि भारत की 140 करोड़ आबादी इन निवेशकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। भारत में ही निर्मित किए जाने वाले उत्पादों के लिए भारत में ही बहुत बड़ा बाजार उन्हें उपलब्ध है। आगे आने वाले समय में भारत के वित्तीय एवं बैंकिंग क्षेत्र में 50,000 करोड़ रुपए से अधिक का विदेशी निवेश भारत में आने जा रहा है। अमेरिकी कम्पनी  ऐपल अपना पूरा उत्पादन सिस्टम भारत में ला रहा है एवं स्मार्ट मोबाइल फोन का भारत में उत्पादन कर उसे विश्व के अन्य देशों को भारत से निर्यात किया जाएगा।  भारत के विशाल बाजार को देखते हुए आज विश्व के कई देश भारत के साथ द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता सम्पन्न करने के लिए लालायित दिखाई दे रहे हैं। भारत का अभी हाल ही में ओमान, कतर, यूनाइटेड किंगडम और यूरोप के चार देशों के साथ द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता सम्पन्न हुआ है। यूरोपीयन यूनियन के साथ भी द्विपक्षीय व्यापार समझौता के सम्बंध में वार्ताएं सफलता पूर्वक आगे बढ़ रही हैं एवं इसके शीघ्र ही सम्पन्न होने की सम्भावना है। साथ ही, भारत और अमेरिका के बीच भी द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता नवम्बर 2025 तक सम्पन्न होने की सम्भावनाएं अब दिखाई देने लगी है। सम्भव है कि नवम्बर 2025 माह में अमेरिका के राष्ट्रपति डानल्ड ट्रम्प भारत आकार इस समझौते की घोषणा करें।  रूस के राष्ट्रपति श्री बलादिमिर पुतिन भी शीघ्र भारत आ रहे हैं और रूस के भारत के साथ व्यापार बढ़ाने पर जोर दिए जाने की प्रबल सम्भावना है। भारत अभी रूस से भारी मात्रा में कच्चे तेल का आयात कर रहा है एवं रूस को भारत से निर्यात होने वाले उत्पादों की मात्रा अभी बहुत कम है। इस तरह भारत का रूस के साथ व्यापार घाटा बहुत अधिक हो गया है। चीन के साथ भी भारत का व्यापार घाटा बहुत अधिक मात्रा में है, जिसे कम करने के लिए चीन के साथ भी भारत की बातचीत चल रही है। कुल मिलाकर आगे आने वाले समय में भारत की आर्थिक विकास दर के तेज होने की प्रबल सम्भावना है, जो 10 प्रतिशत प्रतिवर्ष तक के आंकडें को भी छू सकती है।  प्रहलाद सबनानी 

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आर्थिकी राजनीति

जीएसटी 2.0 : आत्मनिर्भर भारत की तरफ एक और कदम

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प्रो. महेश चंद गुप्ता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्वतंत्रता दिवस पर किए वादे को पूरा करते हुए दिवाली से पहले  सरकार ने जनता को जीएसटी सुधार के रूप में ऐसा तोहफा दिया है, जो न सिर्फ आम जन के  जीवन को सरल बनाएगा बल्कि 2047 तक विकसित भारत के सपने को और मजबूती से धरातल पर उतारेगा। जीएसटी 2.0 केवल टैक्स सुधार नहीं बल्कि भारत की अगली आर्थिक यात्रा का  मानचित्र है। जहां देशवासी खुश हैं, वहीं इस सुधार में गहरा अंतरराष्ट्रीय संदेश भी निहित है। यह सुधार अमेरिका द्वारा लगाए 50 प्रतिशत टैरिफ का उत्तर भारत ने अपनी आर्थिक मजबूती और आत्म निर्भरता के रूप में दिया है।  जीएसटी सुधार से किसान, महिला, युवा, मिडिल क्लास, छोटे व्यापारी और उपभोक्ता सभी  लाभान्वित होंगे। यह कदम केवल टैक्स प्रणाली को सरल बनाने का प्रयास मात्र नहीं है बल्कि  भारत को एक तेज, सशक्त और आत्म निर्भर अर्थव्यवस्था में बदलने की दिशा में एक निर्णायक मोड़ है। यह सुधार जितना घरेलू स्तर पर आम लोगों को राहत देगा, उतना ही अंतरराष्ट्रीय स्तर  पर भारत की सशक्त छवि को भी मजबूत करेगा।  बदलावों की जरूरत को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी रेखांकित किया है। मोदी ने कहा है कि अगर भारत को वैश्विक परिदृश्य में उचित स्थान दिलाना है तो समय-समय पर बदलाव बेहद जरूरी हैं। यह सुधार देश को सपोर्ट और ग्रोथ की डबल डोज देंगे। गरीब, मध्यम वर्ग, महिलाओं, छात्रों, किसानों और नौजवानों को इसका सीधा फायदा होगा। प्रधानमंत्री ने यह भी दोहराया है कि यह सुधार सिर्फ टैक्स में बदलाव नहीं है, बल्कि आत्म निर्भर भारत के लिए अगली पीढ़ी का सुधार है।                                                           सरकार ने आनन-फानन में यह फैसला नहीं किया है बल्कि उसने इस सुधार में सामाजिक संतुलन का विशेष ध्यान रखा है। तम्बाकू उत्पादों, सिगरेट, शराब, महंगी कारों, विमान आदि पर 40 प्रतिशत टैक्स लगाया गया है पर इसका सीधा असर अमीर वर्ग पर पड़ेगा जबकि गरीब और मध्यम वर्ग को सस्ती आवश्यक  वस्तुएं मिलेंगी। जीएसटी 2.0 का सबसे बड़ा असर यह होगा कि उपभोक्ताओं को सस्ता सामान मिलेगा और घरेलू खपत में इजाफा होगा। आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि जब खपत बढ़ेगी तो उत्पादन और व्यापार का दायरा भी बढ़ेगा। कंपनियां अधिक कर्मचारियों को नियुक्त करने की स्थिति में होंगी जिससे रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। इस प्रकार जीएसटी सुधार और प्रधानमंत्री  विकसित भारत रोजगार योजना मिलकर अर्थव्यवस्था को गति देंगे। उपभोक्ता को सस्ता  सामान मिलेगा और युवा पीढ़ी को रोजगार के अवसर मिलेंगे। यह संतुलन अल्पकालिक राहत  और दीर्घकालिक विकास दोनों को साथ लेकर चलेगा। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो 1 जुलाई 2017 को लागू किया गया वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी)  स्वतंत्रता के बाद सबसे बड़ा अप्रत्यक्ष कर सुधार था। इसने 17 केंद्रीय और राज्य करों को हटा कर  ‘एक राष्ट्र एक कर’ लागू कर देश में सामान्य राष्ट्रीय बाजार का निर्माण किया। आठ वर्षों में जीएसटी लगातार विकसित हुआ है और अब डिजिटलीकरण तथा दर युक्तिकरण के जरिये यह  भारतीय कर व्यवस्था की रीढ़ बन चुका है। अर्थव्यवस्था के तेजी से बदलते स्वरूप को देखते हुए  टैक्स प्रणाली को सरल और व्यवहारिक बनाना आवश्यक हो गया था। सरकार ने इसी जरूरत को समझते हुए जीएसटी 2.0 के रूप में एक ऐसा सुधार सामने रखा है जो व्यापक दृष्टिकोण से सोचा-समझा और जन हितैषी है।  जीएसटी 2.0 में सबसे बड़ा परिवर्तन टैक्स स्लैब की संख्या घटाना है। पहले चार प्रमुख दरें थीं यानी 5 प्रतिशत, 12 प्रतिशत, 18 प्रतिशत और 28 प्रतिशत। अब इन्हें घटाकर सिर्फ दो कर दिया गया है। जरूरी सामानों पर 5  प्रतिशत और सामान्य वस्तुओं पर 18 प्रतिशत टैक्स लगेगा। इससे उपभोक्ताओं को सीधी राहत मिलेगी। किसानों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को विशेष ध्यान में रखते हुए ट्रैक्टर, खेती के औजार, हस्तशिल्प और मार्बल पर टैक्स 12 प्रतिशत से घटाकर 5 प्रतिशत कर दिया गया है। इसका  असर दूरगामी होगा क्योंकि कृषि की लागत कम होगी जिससे ग्रामीण बाजारों में रौनक बढ़ेगी।   सरकार ने कुछ वस्तुओं को टैक्स के दायरे से बाहर ही रखा है। इसका उद्देश्य है कि आम आदमी की जिंदगी से जुड़ी बुनियादी जरूरत वाली चीजें और सस्ती हों और उनका बोझ आम आदमी की जेब पर न बढ़े।  जीएसटी 2.0 का सबसे बड़ा फायदा उपभोक्ताओं को होगा। जब जरूरी सामान सस्ते होंगे तो आम परिवारों की मासिक बचत बढ़ेगी। किसान को कम लागत में उपकरण मिलेंगे तो  उत्पादन बढ़ेगा। छोटे व्यापारी और दुकानदारों को टैक्स की जटिलता से मुक्ति मिलेगी जिससे  उनका कारोबार सहज होगा। जीवन एवं स्वास्थ्य बीमा को टैक्स फ्री करना बड़ा कदम है। कैंसर  सहित 33 जीवन रक्षक दवाइयों पर टैक्स घटाना भी सराहनीय है। महिलाओं को घरेलू जरूरतों की चीजें कम कीमत पर उपलब्ध होंगी। युवाओं के लिए रोजगार के  नए अवसर पैदा होंगे, क्योंकि बढ़ती खपत उद्योगों को उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रेरित करेगी। इस तरह यह सुधार केवल आंकड़ों तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि हर वर्ग के जीवन में सकारात्मक  बदलाव लाएगा। यह सुधार उस समय आया है जब अमेरिका ने भारत पर 50 प्रतिशत तक का टैरिफ लगा रखा है। डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने इन टैरिफों को अपने राष्ट्रीय हित में सही ठहराया है परंतु भारत ने इसका जवाब किसी राजनीतिक बयानबाजी से नहीं बल्कि ठोस आर्थिक सुधार से दिया है। जीएसटी 2.0 इस बात का प्रतीक है कि भारत अपनी अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर और मजबूत बनाने की राह पर है। यह कदम वैश्विक समुदाय के लिए एक स्पष्ट संदेश है कि भारत चुनौतियों से घबराने वाला नहीं बल्कि उन्हें अवसर में बदलने वाला देश है। अमेरिकी टैरिफ से होने वाले संभावित नुकसान की भरपाई घरेलू खपत को मजबूत बनाकर की जा सकती है। यही रणनीति भारत को आर्थिक रूप से और सुदृढ़ बनाएगी।  भारत 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने का सपना देख रहा है। उस दिशा में जीएसटी 2.0 एक अहम कड़ी है। यह सुधार केवल टैक्स दरों का नहीं बल्कि सोच का बदलाव है। यह ऐसी सोच है जो आम आदमी को केंद्र में रखती है और साथ ही वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए भारत को  तैयार भी करती है। दुनिया की तेजी से बदलती आर्थिक परिस्थितियों में भारत को अपनी नीति  और दृष्टि दोनों को अपडेट रखना होगा। जीएसटी 2.0 इस दिशा में एक ठोस शुरुआत है जिसका  परिणाम आने वाले सालों में भारत को सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बनाए रखने में अहम  भूमिका निभाएगा। जीएसटी सुधारों से सरकार ने साफ कर दिया है कि अब लक्ष्य केवल नीति बनाना नहीं  बल्कि उसे जमीन पर उतारकर परिणाम दिखाना है। यह सुधार किसानों से लेकर शहरी उपभोक्ताओं तक, छोटे दुकानदार से लेकर बड़े उद्योगों तक, हर किसी के लिए मायने रखता है। यह  केवल टैक्स सुधार नहीं, बल्कि भारत की आर्थिक आत्मनिर्भरता का नया अध्याय है। हालांकि इन सुधारों से सरकार को 47,700 करोड़ रुपये का सालाना राजस्व नुकसान होगा मगर  बाजारों में बूम आने की संभावना से इसकी भरपाई के प्रति हर कोई आश्वस्त है। माना जा रहा है कि टैक्स दरें संतुलित होने से जहां टैक्स ज्यादा आएगा, वहीं टैक्स चोरी रुकेगी। एसबीआई रिसर्च का अनुमान है कि टैक्स कटौती की वजह से खरीदारी बढ़ेगी और इकॉनमी में 1.98 लाख करोड़ रुपये तक की खपत का इजाफा होगा। देश के प्रमुख उद्योगपतियों और अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यह सुधार भारत की आर्थिक रफ्तार को और तेज करेगा। इससे भारत की जीडीपी वृद्धि दर 8  प्रतिशत से ऊपर जा सकती है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि मांग को बढ़ाने और घरेलू उत्पादन को मजबूत करने के लिए एकदम सही पॉलिसी है। भारत अब दिखाएगा कि डेड इकॉनमी कैसी  दिखती है। ट्रंप ने भारत को डेड इकॉनमी बताया था।  सरकार का भी यही दावा है कि सरल टैक्स  प्रणाली से लोग ज्यादा टैक्स देंगे जिससे राजस्व बढ़ेगा। जब राजस्व बढ़ेगा तो सरकार के पास  विकास परियोजनाओं पर खर्च करने के लिए अधिक संसाधन होंगे। स्वदेशी की मांग बढऩे का भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। मोदी ने भी स्वदेशी अपनाने का आह्वान किया है हालांकि, यह मान लेना जल्दबाजी होगी कि जीएसटी सुधारों की घोषणा मात्र से ही सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी।  असली चुनौती इसके प्रभावी क्रियान्वयन की है। राज्य सरकारों की सहमति, प्रशासनिक तंत्र की  दक्षता और टैक्स चोरी रोकने पर नियंत्रण से ही पता चलेगा कि यह सुधार कितना सफल होता है। अपेक्षित नतीजे आने में कम से कम छह महीने तो लगेंगे ही।

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