Category: मनोरंजन

Entertainment

मनोरंजन महत्वपूर्ण लेख समाज साक्षात्‍कार

सुनता नहीं कोई हमारी, क्या जमाना बहरा हो गया

/ | Leave a Comment

डा. विनोद बब्बर  गत दिवस देश की राजधानी से सटे नोएडा के एक ओल्डऐज होम में लोगों की दुर्दशा के समाचार ने मानवता के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। वृद्धाश्रम पहुंची पुलिस और समाचार कल्याण विभाग की टीम हैरान थी। एक बुजुर्ग महिला को बांध के रखा गया था तो बेसमेंट के कमरों में जो वृद्ध पुरुष कैद थे, उनके वस्त्र मल मूत्र से सने हुए और दुर्गंध दे रहे थे। पूरा दृश्य किसी नर्क से बढ़कर था। विशेष यह कि इस ओल्ड होम में दयनीय हालत रहने वाले वृद्धों के परिजनों की ओर से मासिक शुल्क भी दिया जा रहा था।  प्रश्न यह है कि जब परिजन हजारों रुपया प्रतिमा शुल्क देने की स्थिति में है तो वे अपने बुजुर्ग माता-पिता को अपने साथ क्यों नहीं रखते? जिन माता-पिता ने उन्हें पाला संभाला, शिशुपन में उनके मल मूत्र साफ किया और स्वयं कष्ट सहकर भी उनके सुख सुविधा का पूरा ध्यान रखा, उन्हें अपने से अलग करते हुए क्या उन कलयुगी संतानों ने जरा भी नहीं सोचा? पाषाण हृदय संतानों को स्वतंत्रता पसंद है या वे अपने वृद्ध अभिभावकों को बोझ मानते हैं? दुखद आश्चर्य यह है कि जिस भारत में बुजुर्गो की सेवा-सम्मान की परम्परा रही है। जहां लगातार गाया, दोहराया जाता है- अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम।। जो अपने बुजुर्गों की सेवा और सम्मान करते हैं उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल में वृद्धि होती है। वहाँ तेजी से वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ रही है। इस नैतिक पतन के लिए कुछ लोग ऋषि संस्कृति की भूमि भारत में पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव को जिम्मेवार ठहराते हैं तो अधिकांश लोगों के मतानुसार विखण्डित होते संयुक्त परिवार, शहरीकरण, बेलगाम सोशल मीडिया और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण स्थित बदली है। आश्चर्य है कि आज शहर से गांव तक प्रत्येक व्यक्ति दिन में कई कई घंटेअपने स्मार्टफोन को देता है लेकिन उनके पास अपने ही वृद्ध माता-पिता के पास बिताने के लिए कुछ मिनट भी नहीं है। शायद मान्यताओं में बदलाव के कारण बुजुर्गों को बोझ  बना दिया है। उन्हें न अच्छा खाना दिया जाता है न ही साफ-सुथरे कपड़े। यहां तक कि उनके उपचार को भी जरूरी नहीं समझा जाता। उचित देखभाल के अभाव में वृद्धों को शारीरिक व मानसिक कष्ट बढ़ जाता है। वे छोटे-छोटे कामों और जरूरतों के लिए दूसरों के मोहताज हो जाते हैं। हर कली अपने यौवन में फूल बनकर अपनी सुगंध बिखेरती है तो एक सीमा के बाद उसमें मुरझाहट दिखाई देने लगती है। मनुष्य जीवन भी प्रकृति के इस चक्र के अनुसार ही चलता है।  बचपन, जवानी के बाद वृद्धावस्था प्रकृति का सत्य है। वृद्धावस्था को जीवन का अभिशाप मानते हैं क्योंकि इस अवस्था के आते-आते शरीर के सारे अंग शिथिल पड़ जाते हैं और इंसान की जिंदगी दूसरों की दया-कृपा पर निर्भर करती है। दूसरों पर आश्रित जिंदा रहना उस बोझ महसूस लगने लगता है और वह चाहता है कि उसे जितनी जल्दी हो सके, ज़िंदगी से छुट्टी मिल जाए। प्रत्येक व्यक्ति जीवन भर कड़ी मेहनत कर जो कुछ भी बनाता है ताकि जीवन की सांझ सम्मान सहित कम से कम कठिनाई से बीते। लेकिन, जब हम अपने परिवेश में नजर दौड़ाते हैं तो इसके विपरीत दृश्य देखने को मिलते हैं। अनेक बुजुर्गों को बुढ़ापे में दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं। उन्हें न तो सिर छिपाने के लिए छत, खाने को दो जून की रोटी और तन ढकने के लिए कपड़ा भी उपलब्ध नहीं हो पाता। बुढ़ापा आते ही वह अकेला पड़ने लगता है जहां उसकी सुनने वाला कोई नहीं होता। यहाँ तक कि जिन बच्चों की खातिर वह अपना सब कुछ लुटाता है, वही उसे सिरदर्द समझने लगते हैं। उसकी उपेक्षा करते हं। यह दृश्य किसी एक घर, गाँव, या नगर की विेशेष समस्या नहीं है बल्कि हर तरफ ऐसा या लगभग ऐसा देखने, सुनने को मिलता है। वर्तमान की संस्कारविहीन शिक्षा के कारण अपनी संतान ही अपनी नन्हीं अंगुलियां थामने वाले बूढ़े माँ-बाप से छुटकारा पाने के बहाने तलाशने लगी है। उन्हें यह स्मरण नहीं रहता कि वह उन्हीं माँ-बाप की कड़ी मेहनत, त्याग, समर्पण के कारण ही किसी मुकाम तक पहुंचे हैं। जिन्होंने अपनी संतान को सुखी, समृद्ध, सम्मानपूर्वक जीवन जीने के योग्य बनाने का सपना साकार करने के लिए अपना जीवन होम किया हो, यदि वे जीवन की संध्या में असहाय, अभावग्रस्त है तो लानत है उस संतान पर। वास्तव में वे संताने अधम हो धरती पर बोझ हैं। वृक्ष जब तक छायादार और फलदार रहता है, अपनी सेवाएं देता है। सूखने और जर्जर होने पर भी वह जाते जाते लकड़ी देकर जाता है। वृद्धावस्था जीवन का अखिरी चरण है, जब परिवार को उन्हें ऐसा वातावरण उपलब्ध कराना चाहिए जिससे उन्हें अपनी संतति पर गर्व हो। उनके पास अनुभवों, संस्मरणों, स्मृतियों की अमूल्य धरोहर हैं जिसे प्रापत कर सुरक्षित, संरक्षित करना उनके बाद की पीढ़ी का कर्तव्य है। ऐसा भी नहीं है कि समाज से वृद्धों के सम्मान की भावना लृप्त हो चुकी है। आज भी अनेकानेक ऐसे परिवार है जहां अपने बुजुर्गों का बहुत सम्मान होता है। लेकिन ऐसे परिवारों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। आज विवाह के पश्चात ‘पति-पत्नी ही संसार है, शेष सब बेकार है’ की अवधारणा बलवती हो रही है। वृद्धों के सम्मान की श्रेष्ठ मानवीय गुणों को प्रसारित करने वाली भारतीय संस्कृति से विचलित होने के दुष्परिणाम समाज को उस रहे हैं। श्रवण कुमार के देश में आत्मकेन्द्रित होती पीढ़ी संयुक्त परिवार के तमाम गुणों और लाभों को समझने को तैयार ही नहीं है। एकाकी परिवार भी लगता है पीछे छूट रहा है। हर व्यक्ति एकाकी हो रहा है। क्योंकि उन्हें स्वतंत्रता नहीं, ‘स्वच्छन्दता’ चाहिए। सुविधाएं तो सारी चाहिए लेकिन जिम्मेवारी एक भी नहीं। ऐसे में वृद्धावस्था उपेक्षित हो रही है। यह स्थिति केवल वृद्धों के लिए ही कष्टकारी नहीं है बल्कि भावी पीढ़ी के साथ भी बहुत बढ़ा अन्याय और अत्याचार है। आज जब माता-पिता दोनो कामकाजी हैं ऐसे में बच्चे क्रैच में या नौकरों के हवाले। उन्हें लाड़ और संस्कार कौन दें? यदि हम दादा-दादी को पाते-पोतियों से जोड़ दें तो ‘विवशता’ और ‘आवश्यकता’ मिलकर समाज की ‘कर्कशता’ को काफी हद तक दूर कर सकते हैं।  शहरों की इस नई आधुनिक शैली में लोग अपने-आपको इतना व्यस्त पाते है कि उनके पास परिवार में एक-दूसरे से बात करने का समय तक नहीं है या वे एक- दूसरे के साथ बैठकर बातचीत करने की जरूरत ही नहीं समझते। बूढ़ों से बातचीत करना तो आज के युवक समय की बर्बादी ही समझते हैं तो क्या वृद्धों की समाज में उपयोगिता नहीं? पूरे जीवन में अनगिनत कष्ट उठाकर अर्जित किया गया अनुभव क्या समाज के किसी काम का नहीं? यह सही है कि आज के जीवन में मनुष्य की व्यस्तताएं बहुत बढ़ गई हैं। लेकिन सोशल मीडिया और टीवी में डूबे रहने वाले समय की कमी का बहाना नहीं बना सकते। आज बुजुर्गों की स्थिति उस कैलेण्डर जैसी हो गई है जिसे नये वर्ष का केलेण्डर आते ही रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता है या फिर कापी किताबों पर जिल्द चढ़ाने के काम में लिया जाता है। इसे ‘पीढ़ियों का अंतर’ कहकर अनदेखा करना मानव होने पर प्रश्नचिन्ह है। तेजी से स्मार्ट (?) हो रहे दौर में परिवार के मुखिया रहे व्यक्ति की दुर्दशा स्मार्टनेस का नहीं, शेमलेस होने का प्रमाण है। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह किसी एक परिवार, एक नगर, प्रदेश अथवा देश की कहानी नहीं है।पूरे विश्व में बुजुर्गों के समक्ष न केवल अपने आपको बचाने बल्कि शारीरिक सक्रियता, आर्थिक विपन्नता की बढ़ी चुनौती है। यूरोप के विकसित देशों में वृद्धों को सरकार की ओर से अनेक प्रकार की सुविधा दी जाती है लेकिन हमारे अपने देश में रेल यातायात में मिलने वाली छूट को हटाने की ताक में बैठे नौकरशाहों को कोरोना ने अवसर उपलब्ध करा दिया। आज देश भर में बुजुर्गों को यातायात के नाम पर कोई छूट नहीं है। गुजरात सहित कुछ राज्यों में तो राज्य परिवहन की बसों में महिलाओं के लिए तो कुछ सीटे आरक्षित है परंतु वृद्धों के लिए एक भी सीट आरक्षित नहीं है। भारत जैसे देश में जहां वृद्धों की संख्या तेजी से बढ़ रही है परंतु उनकी समस्याओं की ओर समाज और सरकार का ध्यान बहुत कम है।  पश्चिम के समृद्ध देशों की छोड़िये, भारतीय मूल के छोटे देश मॉरीशस में भी वृद्धों के कल्याण के लिए अनेक कार्यक्रम है। वहां प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक को आकर्षक पेंशन, आजीवन निःशुल्क यातायात और स्वास्थ्य सेवाएं सहित अनेक सुविधाएं प्रदान की जाती है जबकि दूसरी ओर हमारे यहां  बुजुर्ग महिलाओं तथा ग्रामीण क्षेत्र में रहनेवाले बुजुर्गो आर्थिक संकटों से जूझने को विवश है। यदि कही पेंशन योजना है भी तो नाममात्र की राशि के साथ बहुत सीमित लोगों को ही उपलब्ध है। ऐसे में वे किसी तरह जीवन को घसीट रहे हैं। अकेले रहने को विवश बुजुर्गों को नित्य प्रति बढ़ रहे अपराधों से हर समय खतरा बना रहता है। इधर सर्वत्र ऑनलाइन लेन-देन के कारण उनके विरूद्ध साइबर क्राइम भी बढ़ रहे है। यह संतोष की बात है मोदी सरकार ने 70 से अधिक आयु वाले सभी नागरिकों के उपचार की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए आयुष्मान योजना लागू की है। इस योजना के अंतर्गत केंद्र सरकार की ओर से पांच लाख रुपए तक के वार्षिक उपचार निजी अस्पताल में करने का प्रावधान है। दिल्ली सहित कुछ राज्यों ने इस योजना में अपना अंशदान देते हुए उपचार की राशि को 5 से बढ़कर 10 लख रुपए कर दिया है  लेकिन सरकार स्वयं 60 वर्ष के व्यक्ति को सेवानिवृत्ति कर देती है तो असंगठित क्षेत्र की स्थिति को समझा जा सकता है। अच्छा हो यदि इस  योजना का लाभ सभी वरिष्ठ नागरिकों को दिया जाए। इस योजना के अंतर्गत अस्पताल में दाखिल होने पर ही उपचार के प्रावधान को बदल जाना चाहिए ताकि जीवन भर परिवार समाज को अपना श्रेष्ठ देने वाले वरिष्ठ नागरिकों की नियमित जांच सुनिश्चित हो सके। कुछ राज्य सरकारें कुछ वरिष्ठ नागरिकों को बुढ़ापा पेंशन देती है जबकि आवश्यकता है कि प्रत्येक वृद्ध व्यक्ति को बुढ़ापा पेंशन के साथ-साथ, अकेले वृद्धों का पुनर्वास सुनिश्चित करना चाहिए। वृद्धाश्रम (ओल्डहोम) में रहने वालों के लिए देहदान का नियम हो ताकि माता-पिता की उपेक्षा करने वालों को उनकी मृत्यु के बाद नाटक करने और नकली टस्सुए बहाने का मौका ही न मिलें। जीते जी माँ-बाप को न पूछने वालों द्वारा आयोजित दिखावे के श्राद्ध का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए।   वरिष्ठ नागरिकों को भी अपनी सक्रियता और वाणी में मधुरता बरकरार रखनी चाहिए। यदि वे समाज ‘उपयोगी’ बने रहेंगे तो उनकी स्थिति निश्चित रूप से बेहतर होगी। अपने पास यदि कुछ धन, सम्पत्ति है तो उसकी वसीयत जरूर करें लेकिन सब सौंपने से पूर्व भावना के बहाव में बहने से बचते हुए गंभीर होकर निर्णय करें।  डा. विनोद बब्बर 

Read more »

मनोरंजन सिनेमा

हिंदी फिल्मी गीतों में व्यंग्य

/ | Leave a Comment

विवेक रंजन श्रीवास्तव  हिंदी फिल्मी गीतों में व्यंग्य एक सशक्त माध्यम रहा है जिसने सामाजिक विसंगतियों, राजनीतिक भ्रष्टाचार और मानवीय दुर्बलताओं को बिना कटुता  तीखेपन से उघाड़ा है। ये गीत मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक दर्पण का काम करते हैं जो समाज के अंतर्विरोधों को संगीत और शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए, फिल्म पड़ोसन (1968) का गीत “एक चतुर नार करके सिंगार, मेरे मन के द्वार ये घुसत जात…” राजेंद्र कृष्ण द्वारा रचित और किशोर कुमार व मेहमूद द्वारा गाया गया यह गीत नारी चतुराई और पुरुष अहं पर करारा व्यंग्य करता है। इसमें दक्षिण भारतीय लहजे का प्रयोग हास्य के साथ-साथ सांस्कृतिक रूढ़ियों को भी चिह्नित करता है ।  फिल्म प्यासा (1957) का गीत “सर जो तेरा चकराए, या दिल डूबा जाए…” शकील बदायूंनी के बोल और मोहम्मद रफी की आवाज में जॉनी वॉकर पर फिल्माया गया था। यह गीत शहरी जीवन की अवसादग्रस्त दिनचर्या और तनावमुक्ति के लिए तेल मालिश (चंपी) पर निर्भरता का मखौल बनाकर हास्य उत्पन्न करता है। जीवन की जटिल समस्याओं का समाधान एक चंपी में खोजा जा रहा है जो निजी कुंठाओं से भागने का प्रतीक बन जाता है. यह व्यंग्य हास्य मिश्रित है। काला बाज़ार (1989) का गीत “पैसा बोलता है…” कादर खान पर फिल्माया गया जो धन के अमानवीय प्रभुत्व को दर्शाता है। नितिन मुकेश की आवाज में यह गीत पूँजीवादी समाज में नैतिक मूल्यों के पतन की ओर इशारा करता है, जहाँ पैसा हर रिश्ते और सिद्धांत पर हावी है ।  कॉमेडियन महमूद की अदाकारी ने कुंवारा बाप  (1974) के गीत “सज रही गली मेरी माँ चुनरी गोते में…” को यादगार बनाया। यह गीत हिजड़ों के माध्यम से समलैंगिकता और पारंपरिक पितृसत्ता पर प्रहार करता है। बोल “अम्मा तेरे मुन्ने की गजब है बात…” लालन-पालन में पुरुष की भूमिका को चुनौती देते हैं, जो उस दौर में एक साहसिक विषय था ।  1950-80 के दशक के स्वर्ण युग में कॉमेडियन्स ने व्यंग्य को नई ऊँचाइयाँ दीं। जॉनी वॉकर की विशिष्ट अभिव्यक्ति, महमूद का स्लैपस्टिक हास्य और किशोर कुमार का संगीत के साथ व्यंग्य का संयोजन, सभी ने गीतों को सामाजिक टिप्पणी का माध्यम बनाया। फिल्म हाफ टिकट (1962) का गीत “झूम झूम कव्वा भी ढोलक बजाये…” या गुमनाम (1965) का “हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं…” जैसे गीतों ने रंगभेद और वर्ग संघर्ष को हल्के अंदाज में प्रस्तुत किया था ।  साहित्य और फिल्मी गीतों के बीच का सामंजस्य भी रोचक रहा है। गीतकारों ने साहित्यिक रचनाओं को फिल्मों में लोकप्रिय बनाया। गोपाल दास ‘नीरज’ ने मेरा नाम जोकर (1970) के गीत “ऐ भाई ज़रा देख के चलो…” को अपनी पुरानी कविता “राजपथ” से अनुकूलित किया था, जो मानवीय अहंकार पर व्यंग्य था । इसी प्रकार, रघुवीर सहाय की कविता “बरसे घन सारी रात…” को फिल्म तरंग (1984) में लिया गया, जो साहित्य और सिनेमा के बीच सेतु बना ।  व्यंग्य के सम्पुट के साथ इस तरह के फिल्मी गीतों की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। “पैसा बोलता है…” जैसे गीत आज के भौतिकवादी युग में और भी सटीक लगते हैं। ये गीत सामाजिक विडंबनाओं को उजागर करने के साथ-साथ श्रोताओं को हँसाते-गुदगुदाते हुए विचार करने को प्रेरित करते हैं, जो हिंदी सिनेमा की सांस्कृतिक धरोहर का अमर हिस्सा हैं । विवेक रंजन श्रीवास्तव

Read more »

मनोरंजन

सिचुएशनशिप: रिश्ता जिसमें किन्तु-परन्तु नहीं

/ | Leave a Comment

सचिन त्रिपाठी प्रेम संबंधों की परिभाषाएं समय के साथ बदलती रही हैं। पहले ‘प्रेम’ एक स्थायी, सामाजिक और पारिवारिक स्वीकृति वाला संबंध था। फिर प्रेम विवाह, लिव-इन रिलेशनशिप और अब ‘सिचुएशनशिप’ जैसे नए रूप सामने आए हैं। सिचुएशनशिप कोई पारंपरिक प्रेम संबंध नहीं है, न ही यह पूर्णतः मित्रता है। यह उन दो लोगों के बीच का अनिश्चित-सा, पर भावनात्मक रूप से गहरा जुड़ा हुआ रिश्ता है जिसमें स्पष्टता की बजाय धुंध, स्थायित्व की जगह अस्थाई होना और भरोसे की जगह संभावनाएं होती हैं लेकिन क्या सिचुएशनशिप सिर्फ भ्रम है? या यह आज की पीढ़ी का आत्म-स्वतंत्र और यथार्थवादी प्रेम है? इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए हमें इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं को गहराई से समझना होगा। आज के युवा स्वतंत्रता को सर्वोपरि मानते हैं चाहे वह करियर हो, स्थान चयन हो या रिश्ते। सिचुएशनशिप इस आज़ादी को जगह देता है। इसमें दोनों व्यक्ति एक-दूसरे की कंपनी पसंद करते हैं, लेकिन अपने जीवन के निर्णय स्वतंत्र रूप से लेते हैं। कोई सामाजिक दबाव नहीं, न ही विवाह का अनावश्यक तनाव। यह रिश्ता उन्हें भावनात्मक संबल देता है जो अभी जीवन में स्थायित्व के लिए तैयार नहीं हैं। युवा जो पढ़ाई, करियर या निजी हीलिंग के दौर से गुजर रहे हैं, वे किसी गंभीर संबंध में बंधे बिना भी साथी के साथ जुड़ सकते हैं। अक्सर सिचुएशनशिप में दोनों पक्ष शुरू से स्पष्ट होते हैं कि वे अभी किसी परिभाषित रिश्ते में नहीं हैं। यह पारदर्शिता कई बार उस झूठ और छल से बेहतर होती है जो परंपरागत प्रेम संबंधों में दिखावे के रूप में होता है। आज की पीढ़ी अपने करियर और आत्म-विकास को पहले स्थान पर रखती है। विवाह या रिश्तों की स्थायित्वपूर्ण जिम्मेदारियों को टालते हुए भी वे एक भावनात्मक सहारा चाहते हैं। सिचुएशनशिप इस जरूरत को पूरा करता है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें न कोई वचन होता है, न कोई भविष्य की रूपरेखा। कई बार एक व्यक्ति अधिक जुड़ जाता है जबकि दूसरा असमंजस में रहता है। इससे भावनात्मक असुरक्षा, ईर्ष्या और दुख जन्म लेते हैं। सिचुएशनशिप में वर्षों निकल जाते हैं, और जब अंत में कोई एक व्यक्ति दूर चला जाए तो दूसरे के लिए यह गहरे आघात का कारण बनता है। कई युवाओं के लिए यह एक ‘इमोशनल इंवेस्टमेंट’ होता है जिसकी कोई निश्चित परिणति नहीं होती। भले ही शहरी युवा वर्ग इसे स्वीकार कर चुका हो, लेकिन सामाजिक ढांचे में यह अब भी अजीब या ‘अधूरा’ माना जाता है। परिवार, समाज और रिश्तेदारों के सवालों का उत्तर नहीं होता: ‘क्या चल रहा है?’ ‘क्या रिश्ता है?’ “कब शादी करोगे?’ बहुत से लोग सिचुएशनशिप की आड़ में किसी को ‘टाइम पास’ समझने लगते हैं। वे यह रिश्ता तब तक बनाए रखते हैं जब तक कोई बेहतर विकल्प न मिल जाए। इसमें भावनात्मक धोखा मिलने की संभावना बहुत अधिक रहती है। भारत में मेट्रो शहरों, विश्वविद्यालय परिसरों और मल्टीनेशनल कंपनियों के युवाओं में यह रिश्ता तेजी से बढ़ रहा है। टिंडर, बम्बल जैसे डेटिंग ऐप्स पर कई युवा अब ‘सिचुएशनशिप’ को रिश्ता मानते हैं। 2024 के एक ऑनलाइन सर्वे के अनुसार, 18 से 30 वर्ष की आयु के 42% युवाओं ने स्वीकार किया कि वे ‘डेट कर रहे हैं पर कमिटेड नहीं हैं’। इसका अर्थ स्पष्ट है; रिश्तों की दिशा बदल रही है। हाल ही में एक सोशल मीडिया घटना वायरल हुई जहां एक युवती ने ‘ब्रेकअप नहीं हुआ पर अब हम स्ट्रेंजर हैं’ जैसी पोस्ट लिखी। इसने हज़ारों युवाओं के दिल की आवाज़ को शब्द दे दिए। क्या यह संबंध भविष्य है? इसका उत्तर ‘हां’ और ‘ना’ दोनों हो सकता है। हां, क्योंकि यह उन युवाओं के लिए एक विकल्प है जो फिलहाल स्थायित्व नहीं चाहते, पर अकेलेपन से जूझ रहे हैं। ना, क्योंकि यह संबंध देर-सवेर किसी एक को पीड़ा जरूर देता है, क्योंकि इंसान का मन किसी न किसी बिंदु पर स्पष्टता और सुरक्षा चाहता है। सिचुएशनशिप न तो पूर्णतः अनुचित है, न ही पूर्णतः आदर्श। यह उस दौर की उपज है जिसमें हम प्रेम को परिभाषाओं की कैद से बाहर निकालकर उसके अनुभव की ओर ले जा रहे हैं। पर यह भी सच है कि प्रेम की सबसे मौलिक आवश्यकता ‘स्पष्टता’ है। जिसकी कमी इस रिश्ते को एक ‘चुभता हुआ धुंधलका’ बना देती है। इसलिए यह जरूरी है कि यदि आप सिचुएशनशिप में हैं या उसमें जाने की सोच रहे हैं, तो ईमानदारी, संवाद और सीमाओं की स्पष्टता को सर्वोपरि रखें वरना यह रिश्ता, जिसमें कोई ‘किन्तु-परन्तु’  नहीं होना चाहिए, खुद एक अंतहीन ‘किन्तु-परन्तु’ बन सकता है। सचिन त्रिपाठी

Read more »