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इंडिया गठबंधन की रार से कांग्रेस से ज्यादा क्षेत्रीय दलों को होगा नुकसान

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कमलेश पांडेय/वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस के नेतृत्व वाले ‘इंडिया गठबंधन’ में नेतृत्व के सवाल पर जो मौजूदा चिल्ल-पों मची हुई है और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व पर एक बार फिर से जो सवाल उठाए जा रहे हैं, उससे न तो तृणमूल कांग्रेस नेत्री व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का राजनीतिक भला होने वाला है और न ही उनकी सुर में सुर मिलाने वाले एनसीपी शरद पवार के शरद पवार-सुप्रिया सुले, शिवसेना यूबीटी के उद्धव ठाकरे-आदित्य ठाकरे, समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव-रामगोपाल यादव या आप पार्टी के अरविंद केजरीवाल आदि जैसे नेताओं का। हां, इससे कांग्रेस आई की उस सियासी साख को धक्का अवश्य लगेगा, जो कि बमुश्किल उसने राहुल गांधी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव 2024 के बाद हासिल कर पाई है।  राजनीतिक मामलों के जानकारों का स्पष्ट कहना है कि कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के लिए हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा की हार जरूर मायने रखती है क्योंकि यह जीती हुई बाजी हारने के जैसा है लेकिन सिर्फ इसको लेकर ही इंडिया गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस से छीन लेना कोई राजनीतिक बुद्धिमानी का काम प्रतीत नहीं होता है। शायद कांग्रेस भी इसे नहीं मानेगी और किसी भी राष्ट्रीय दल को क्षेत्रीय दलों के सामने घुटने भी नहीं टेकने चाहिए, यदि सत्ता प्राप्ति के लिए संख्या बल का खेल नहीं हो तो! बीजेपी भी यही करती है और अपने गठबंधन सहयोगियों को उनकी वाजिब औकात में रखती है। तीसरे-चौथे मोर्चे की विफलता के पीछे भी तो अनुशासनहीनता या अतिशय महत्वाकांक्षा का खेल ही तो था, जिसे बहुधा राजनीतिक रोग समझा जाता है। बता दें कि तृणमूल कांग्रेस नेता कल्याण बनर्जी ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद तुरंत कहा था कि कांग्रेस और इंडिया ब्लॉक को अपने अहंकार को अलग रखना चाहिए और ममता बनर्जी को विपक्षी गठबंधन के नेता के रूप में मान्यता देनी चाहिए। इसके बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी हालिया हरियाणा और महाराष्ट्र चुनाव में इंडिया ब्लॉक के खराब प्रदर्शन पर असंतोष जाहिर किया और संकेत दिया कि अगर मौका मिला तो वह इंडिया ब्लॉक की कमान संभालने के लिए तैयार हैं। तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सुप्रीमो ने यहां तक कहा कि वह बंगाल की मुख्यमंत्री के रूप में अपनी भूमिका जारी रखते हुए भी विपक्षी मोर्चे को चलाने की दोहरी जिम्मेदारी संभाल सकती हैं। एक टीवी चैनल से बात करते हुए ममता बनर्जी ने कहा, ‘मैंने इंडिया ब्लॉक का गठन किया था, अब मोर्चा का नेतृत्व करने वालों पर इसका प्रबंधन करने की जिम्मेदारी है। अगर वे इसे नहीं चला सकते तो मैं क्या कर सकती हूं? मैं सिर्फ इतना कहूंगी कि सभी को साथ लेकर चलना होगा।‘ वहीं, यह पूछे जाने पर कि एक मजबूत भाजपा विरोधी ताकत के रूप में अपनी साख के बावजूद वह इंडिया ब्लॉक की कमान क्यों नहीं संभाल रही हैं? तो इस पर बनर्जी ने कहा, “अगर मौका मिला तो मैं इसके सुचारू संचालन को सुनिश्चित करूंगी।” उन्होंने कहा, “मैं बंगाल से बाहर नहीं जाना चाहती लेकिन मैं इसे यहीं से चला सकती हूं।” बता दें कि बीजेपी का मुकाबला करने के लिए गठित इंडिया (INDIA) ब्लॉक में दो दर्जन से अधिक विपक्षी दल शामिल हैं हालांकि आंतरिक मतभेदों और आपसी तालमेल की कमी की वजह से इसकी कई बार आलोचना भी होती रही है। इसी वजह से इसके प्रमुख सूत्रधार रहे जदयू नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपना पाला बदल लिया और भाजपा के खेमे में चले गए। वो भी इंडिया गठबंधन के संयोजक का पद पाना चाहते थे जो लालू प्रसाद के परोक्ष विरोध के चलते सम्भव नहीं हो पाया। ऐसे में संभव है कि ममता भी एकबार फिर से तीसरे मोर्चे को मजबूत करने की पहल करें और नीतीश की तरह ही इंडिया गठबंधन को टा-टा, बाय-बाय कर दें। उल्लेखनीय है कि ममता बनर्जी का यह बयान उनकी पार्टी सांसद कल्याण बनर्जी द्वारा कांग्रेस और अन्य इंडिया ब्लॉक सहयोगियों को लेकर दिए बयान के बाद सामने आया है। तब कल्याण बनर्जी ने कहा था कि कांग्रेस और इंडिया ब्लॉक को अपने अहंकार को अलग रखना चाहिए और ममता बनर्जी को विपक्षी गठबंधन के नेता के रूप में मान्यता देनी चाहिए। आपको बता दें कि बीजेपी ने जहां महाराष्ट्र में शानदार प्रदर्शन करते हुए रिकॉर्ड संख्या में सीटें हासिल कीं तो वहीं कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद खराब रहा। बीजेपी के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ महायुति गठबंधन को भारी जीत मिली जबकि इंडिया ब्लॉक ने सिर्फ झारखंड में जेएमएम के शानदार प्रदर्शन की बदौलत मजबूत वापसी की। कहने का तात्पर्य यह है कि कांग्रेस ने अपनी हार का सिलसिला जारी रखा और हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में भी अपना सबसे खराब प्रदर्शन किया और झारखंड में सत्तारूढ़ जेएमएम के जूनियर पार्टनर के रूप में सामने आई और विपक्षी ब्लॉक में इसकी भूमिका और भी कम हो गई क्योंकि अन्य सहयोगियों ने इससे बेहतर प्रदर्शन किया। वहीं, दूसरी ओर हाल ही में हुए उपचुनावों में भाजपा को हराकर टीएमसी की जीत ने पश्चिम बंगाल में पार्टी के प्रभुत्व को मजबूत किया है, जबकि विपक्षी अभियान आरजी कर मेडिकल कॉलेज विरोध जैसे विवादों पर केंद्रित थे। सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे, उसके सहयोगी सीपीआई (एमएल) लिबरेशन और कांग्रेस, जो इंडिया ब्लॉक में राष्ट्रीय स्तर पर टीएमसी के सहयोगी हैं, सभी को बड़ी असफलताओं का सामना करना पड़ा और उनके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई जबकि कांग्रेस इंडिया ब्लॉक की सबसे बड़ी पार्टी है जिसे अक्सर गठबंधन का वास्तविक नेता माना जाता है। यही वजह है कि टीएमसी ने लगातार ममता बनर्जी को गठबंधन की बागडोर संभालने की वकालत की है। यह ठीक है कि तृणमूल कांग्रेस नेत्री ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में लगातार भाजपा को सियासी चोट पहुंचा रही हैं और सदैव उस पर भारी प्रतीत हो रही हैं लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि वह राष्ट्रीय नेत्री बन गईं और उनका चेहरा लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के चेहरे से ज्यादा सर्वस्वीकार्य हो गया, वो भी अखिल भारतीय स्तर पर? चाहे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) शरद पवार के प्रमुख और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री शरद पवार हों या उनकी सियासी वारिस सांसद सुप्रिया सुले, शिवसेना यूबीटी के प्रमुख और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे हों या उनके राजनीतिक वारिस आदित्य ठाकरे, समाजवादी पार्टी के प्रमुख और उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव हों या राज्यसभा सांसद रामगोपाल यादव या आप पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक व दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हों या उन जैसे इंडिया गठबंधन के कोई अन्य नेतागण, किसी का चेहरा राष्ट्रीय स्तर पर उतना सर्वस्वीकार्य नहीं हो सकता है जितना कि राज्यसभा सांसद सोनिया गांधी, लोकसभा सांसद प्रियंका गांधी या लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी  का है, इसलिए समकालीन बयानबाजी से इंडिया गठबंधन और उसमें शामिल सभी दलों को ही क्षति होगी, यह उन्हें समझना होगा। वैसे भी भारतीय मतदाताओं के बीच कांग्रेस नीत यूपीए गठबंधन, राजद-सपा-झामुमो नीत महागठबंधन, शिवसेना यूबीटी-एनसीपी शरद पवार नीत महाविकास अघाड़ी के अलावा तीसरे या चौथे मोर्चे में शामिल रहे क्षेत्रीय दलों की साख अच्छी नहीं है। जनता पार्टी, जनता दल और संयुक्त मोर्चे की कई गठबंधन सरकारों को असमय गिराने का आरोप जहां कांग्रेस पर लगता आया है, वहीं तीसरे मोर्चे और चौथे मोर्चे के बारे में तो राजनीतिक अवधारणा यही है कि इन्हें केंद्र में सरकार चलाना ही नहीं आता और इसमें शामिल दल भले ही अपने-अपने राज्यों में सफल रहे हों लेकिन सुशासन स्थापित करने और भ्रष्टाचार रोकने में अकसर विफल रहे हैं जिससे ब्रेक के बाद मतदाता इन्हें खारिज कर देते हैं। इनकी इसी कमजोरी का राजनीतिक फायदा भाजपा को मिला जबकि ये लोग उसे राजनीतिक अछूत तक करार दे चुके हैं।  बता दें कि 1990 के दशक में कोई भी दल पहले भाजपा से गठबंधन करने से सिर्फ इसलिए डरता था कि कहीं उसका मुस्लिम वोट छिटक न जाए लेकिन अपने राष्ट्रवादी और हिंदुत्व के अग्रगामी विचारों के साथ-साथ बीजेपी ने सुशासन, विकास और गठबंधन सरकार चलाने की योग्यता को साबित करके भारतीय मतदाताओं का दिल एक नहीं, बल्कि कई बार जीत लिया और कांग्रेस के अधिकांश पुराने सियासी रिकॉर्ड को मोदी 3.0 सरकार ने ध्वस्त कर दिया है जिसके बाद उसकी लोकप्रियता एक बार फिर से उफान पर है।  वहीं, लोकसभा चुनाव 2024 में इंडिया गठबंधन खासकर कांग्रेस-सपा गठजोड़ से उसे जो धक्का लगा, उसकी भरपाई उसने हरियाणा-महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों से कर लिया है। लोकसभा चुनाव 2024 में भी भाजपा ने आरएसएस की उपेक्षा की कीमत चुकाई थी अन्यथा आज वह अपने गठबंधन सहयोगियों पर निर्भर नहीं रहती। लेकिन अब उसके इशारे पर जिस तरह से इंडिया गठबंधन में अंतर्कलह मची हुई है, उससे आम चुनाव 2029 में भी उसका निष्कंटक राज बरकरार रहने के आसार हैं। यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस बीजेपी से काफी पीछे चली जाएगी, जिसकी भरपाई वो शायद ही कभी कर पाए। वैसे भी भारतीय राजनीति में गठबंधन धर्म का पालन करने का रिकॉर्ड कांग्रेस और तीसरे-चौथे मोर्चा से बेहतर भाजपा का है। इसलिए वह दिन-प्रतिदिन मजबूत होती गई और कांग्रेस या तीसरे-चौथे मोर्चे के दल कमजोर दर कमजोर। बहरहाल, कांग्रेस नेतृत्व की बुद्धिमानी इसी में है कि वह तीसरे-चौथे मोर्चे में शामिल रहे क्षेत्रीय दलों, यूपीए या महागठबंधन और महाविकास अघाड़ी सहयोगियों को हर हाल में अपने साथ तब तक जोड़े रखे, जब तक कि लोकसभा में उसका आंकड़ा 300 के पार न चला जाए।  राजनीतिक मामलों के जानकार बताते हैं कि तृणमूल कांग्रेस की नेत्री ममता बनर्जी हों, या एनसीपी शरद पवार के शरद पवार या शिवसेना यूबीटी के उद्धव ठाकरे, ये लोग कभी न कभी भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सदस्य या उसके परोक्ष शुभचिंतक रह चुके हैं, इसलिए कांग्रेस विरोधी इनकी बयानबाजी का मकसद भाजपा को खुश रखना है और इसी बहाने कांग्रेस पर दवाब बनाए रखना। वहीं, उत्तरप्रदेश में सपा नेता रामगोपाल यादव जो कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर तंज कस रहे हैं, वह यूपी विधानसभा उपचुनाव 2024 में कांग्रेस की उपेक्षा के बाद मिली शर्मनाक हार की खुन्नस है। यदि अखिलेश यादव ने रामगोपाल यादव को काबू में नहीं किया तो 2022 की तरह 2027 में भी सपा के सपने नहीं पूरे होने वाले।  रही बात इंडिया गठबंधन के नेतृत्व की तो ममता बनर्जी को आगे रखकर चाहे कांग्रेस पर जितना भी दबाव बना लिया जाए लेकिन राहुल की कांग्रेस अपनी मस्त सियासी चाल चलती है बिना सियासी नफा-नुकसान के। इसे इंडिया गठबंधन में शामिल दलों को समझना होगा अन्यथा पश्चिम बंगाल के अलावा कहीं उनका कोई भविष्य नहीं होगा। चाहे जम्मू कश्मीर हो या झारखंड, यदि क्रमशः नेशनल कांफ्रेंस और झारखंड मुक्ति मोर्चा नीत इंडिया गठबंधन सत्ता में आई है तो सिर्फ कांग्रेस व नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की वजह से, अन्यथा लोकसभा चुनाव 2024 में यूपी की 80 में 37 सीट कांग्रेस के सहयोग से जीतने वाली सपा, कांग्रेस की कथित छत्रछाया से हटते ही यूपी विधानसभा चुनाव में 9 में से महज 2 सीट ही निकाल पाई। यदि उसने कांग्रेस का सम्मान किया होता तो इतनी फजीहत नहीं होती।  कुछ यही हाल आप का होगा दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में जो अभी कांग्रेस को हल्के में लेकर चल रही है। बिहार में कांग्रेस को कम तवज्जो देकर राजद नेता तेजस्वी यादव अपनी भद्द पिटवा ही रहे हैं। इसलिए किस नेता ने कांग्रेस या राहुल गांधी के खिलाफ क्या कहा, उनकी बातों को यहां पर मैं नहीं दुहराना चाहता  बल्कि सिर्फ यह सलाह देना चाहता हूं कि भारतीय राजनीति में यदि क्षेत्रीय दलों को प्रासंगिक बने रहना है तो कांग्रेस या भाजपा को साधकर चलें अन्यथा सियासी दुर्भाग्य आपका पीछा नहीं छोड़ेगा। सब ममता बनर्जी या अरविंद केजरीवाल नहीं हो सकते!

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राजनीति विश्ववार्ता

भारत से दूर, पाकिस्तान के पास जा रहा बांग्लादेश

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राजेश जैन 1971 के मुक्ति संग्राम के बाद भारत के सैन्य समर्थन से पाकिस्तान से आजाद हुआ बांग्लादेश इन दिनों भारत से दूर और पाकिस्तान के पास जाता नजर आ रहा है। इस साल अगस्त में शेख हसीना की सरकार गिरने के बाद से ही वहां सियासी उथल-पुथल चल रही है और माहौल में भारत के खिलाफ नफरत घोलकर पाकिस्तान से नजदीकी बढ़ाई जा रही है। साफ़ लगता है कि बांग्लादेश अपने और भारत के कट्टर दुश्मन पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधार रहा है और संदेश देना चाहता है कि वह अब दक्षिण  एशियाई राजनीति को भारत के नजरिए से नहीं देखेगा। हाल के दिनों में पाकिस्तान ने भी ऐलान किया है कि अब बांग्लादेशी नागरिक बिना किसी वीजा शुल्क के उनके देश की यात्रा कर पाएंगे। दोनों देशों में सीधी उड़ाने फिर से शुरू करने की भी घोषणा की गई है। वीजा छूट से लेकर रक्षा सौदों और समुद्री मार्गों की बहाली तक, ऐसे कदम उठाए गए हैं, जो ढाका को इस्लामाबाद के ज्यादा करीब लेकर जा रहे हैं। दरअसल, हसीना को शरण देने के नई दिल्ली के फैसले ने ढाका को नाराज कर दिया। दूसरी ओर बांग्लादेश में हिंदुओं पर हुए हमलों और इस्कॉन के पूर्व पुजारी चिन्मयकृष्ण दास की गिरफ्तारी से भी भारत से तनाव बढ़ा हैं। करेंसी नोट से शेख मुजीबुर्रहमान के फोटो हटाए शेख मुजीबुर्रहमान बांग्लादेश के संस्थापक और राष्ट्रपिता होने के साथ ही शेख हसीना के पिता भी हैं। वे 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में एक प्रमुख नेता थे, जिन्होंने बांग्लादेश को पाकिस्तान से आजादी दिलाई थी। मुहम्मद यूनुस सरकार ने  मुजीबुर्रहमान की फोटो हटाने के लिए 20, 50, 100, 500 और 1,000 टका (बांग्लादेशी करेंसी) के नोट बदलने के आदेश दिए हैं। अगले 6 महीनों में नए नोट मार्केट में आ जाएंगे। सरकार ने राष्ट्रपति भवन से मुजीबुर्रहमान की तस्वीरें पहले ही हटा दी हैं। उनके नाम से जुड़ी छुट्टियां रद्द कर हैं। उनकी मूर्तियों को भी तोड़ दिया गया है।  बांग्लादेश पाकिस्तान वीजा समझौता 2019 में शेख हसीना की सरकार ने पाकिस्तानी नागरिकों के लिए नॉन ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट लेना अनिवार्य किया था। इसके बिना वीजा नहीं मिल सकता था लेकिन अब बांग्लादेश ने अब यह प्रोसेस खत्म कर दिया है। बांग्लादेशी विदेश मंत्रालय ने विदेश में सभी मिशनों को संदेश भेजा है, जिसमें उन्हें पाकिस्तानी नागरिकों और पाकिस्तानी मूल के लोगों के लिए वीज़ा की सुविधा प्रदान करने का निर्देश दिया गया है। इससे पहले  सितंबर की शुरुआत में, इस्लामाबाद ने भी घोषणा की थी कि बांग्लादेशी बिना किसी वीजा शुल्क के पड़ोसी देश की यात्रा कर सकेंगे। इसके अलावा, दोनों देशों ने सीधी उड़ानें फिर से शुरू करने की भी घोषणा की है। पाक से सीधे समुद्री संपर्क की शुरुआत इससे पहले नवंबर 2024 में पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच सीधे समुद्री संपर्क की शुरुआत हुई। पाकिस्तान के कराची से एक कार्गो शिप बंगाल की खाड़ी होते हुए बांग्लादेश के चटगांव पोर्ट पर पहुंचा था। तब ढाका में मौजूद पाकिस्तान के राजदूत सैयद अहमद मारूफ ने कहा, यह शुरुआत पूरे बांग्लादेश में व्यापार को बढ़ावा देने में एक बड़ा कदम है।   हथियारों का व्यापार बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने 40,000 राउंड तोपखाना गोला-बारूद, 2,000 राउंड टैंक गोला-बारूद, 40 टन आरडीएक्स विस्फोटक और 2,900 उच्च-तीव्रता वाले प्रोजेक्टाइल मंगाए थे। हालांकि यह गोला-बारूद का पहला ऐसा ऑर्डर नहीं था लेकिन संख्या सामान्य से कहीं ज़्यादा थी।   भारत को सतर्क होने की जरुरत बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच संबंधों में सुधार भारत के लिए चिंता की बात है। ऐसा इसलिए है क्योंकि बांग्लादेश तीन तरफ से भारत से घिरा हुआ है और भारत अपनी सबसे लंबी सीमा (4,097 किलोमीटर) बांग्लादेश के साथ साझा करता है। इसके माध्यम से माल और लोगों को आसानी से लाया-ले जाया जा सकता है। यह नई दोस्ती सीमा पार उग्रवाद और तस्करी को बढ़ावा दे सकती है। फिर भी आसान नहीं भारत को नजरअंदाज करना दोनों देशों के बीच राजनीतिक और सामाजिक रिश्तों में खटास जरूर आई है लेकिन आर्थिक रिश्ते पहले की तरह अब भी मजबूत हैं। कोई भी सरकार देश चलाने के लिए दूसरे देशों के साथ आर्थिक रिश्ते हमेशा मजबूत रखती है ओर भारत और बांग्लादेश के बीच पानी, बिजली, जूट, आलू, चावल, चाय, कॉफी, सेरामिक्स, सब्जियों, दवाओं, प्लास्टिक, गाड़ियों जैसी चीजों का इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट पहले की तरह होता आ रहा है।इसके अलावा पश्चिम- विशेष रूप से अमेरिका – दक्षिण एशिया को भारतीय चश्मे से देखता है और अमेरिका बांग्लादेश के लिए एक महत्वपूर्ण सहयोगी है। भारत जिस तरह दुनिया में एक ताकतवर देश की छवि बना चुका है। ऐसे में भारत से जंग करना बांग्लादेश के लिए आसान नहीं होगा। हां, बांग्लादेश चीन और पाकिस्तान की मदद से भारत की बॉर्डर पर तनाव जरूर पैदा कर सकता है।   राजेश जैन

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राजनीति

आखिर ‘सम्राट चौधरी’ के सियासी उभार से हाशिए पर क्यों चले गए ‘तेजस्वी यादव’?

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कमलेश पांडेय बिहार की प्रमुख विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के लुढ़कते जनाधार से ‘सेक्यूलर सियासतदान’ परेशान हैं। उनकी चिंता है कि भाजपा ने बिहार के युवा नेता और मौजूदा उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी पर दांव क्या लगाया, तेजस्वी यादव जितनी तेजी से उभरे थे, उससे भी तेज गति से हाशिए पर जाते प्रतीत हो रहे हैं ! कोई इसे कांग्रेस नेता व लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और भाकपा माले की सियासी सोहबत का साइड इफेक्ट करार दे रहा है तो कोई इसे यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेताओं से जारी सियासी लुकाछिपी का असर करार दे रहा है।  राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि लालू प्रसाद की तरह ही तेजस्वी यादव की मुस्लिम परस्त वाली राजनीतिक छवि एक ओर जहां मुस्लिम-यादव (एमवाई) समीकरण को उनसे जोड़े हुए है, इसकी प्रतिक्रिया में वो सवर्ण वोट भी उनसे छिटक गया जो कभी मुख्यमंत्री और जदयू नेता नीतीश कुमार को राजनीतिक सबक सिखाने के लिए राजद और तेजस्वी यादव से जुड़ने की कोशिश किया था लेकिन जैसे ही तेजस्वी यादव, नीतीश कुमार के आशीर्वाद से एक नहीं बल्कि दो-दो बार बिहार के उपमुख्यमंत्री बने तो वो युवा जनाधार भी उनसे छिटक गया।  इस बात का खुलासा तब हुआ जब लोकसभा चुनाव 2024 और बिहार विधानसभा उपचुनाव 2024 में ‘इंडिया गठबंधन’ का बिहार में सूबाई इंजन बने रहने के बावजूद राजद प्रमुख तेजस्वी यादव अपनी वह राजनीतिक सफलता नहीं दोहरा पाए जैसा कि उन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में या उससे पहले प्रदर्शित किया था। बता दें कि बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से महज 9 सीट ही इंडिया गठबंधन जीत सकी जिसमें राजद को 4, कांग्रेस को तीन और भाकपा माले को दो सीटें मिलीं थीं। यह लोकसभा चुनाव 2019 के मुकाबले राजद का बेहतर परफॉर्मेंस है लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के मुकाबले काफी निराशाजनक, क्योंकि तब राजद राज्य की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के तौर पर उभरी थी।  वहीं, बिहार विधानसभा उपचुनाव 2024 में 4 सीटों में से एक भी सीट राजद या उसके इंडिया गठबंधन को नहीं मिली जबकि पड़ोसी राज्य यूपी में इंडिया गठबंधन की सूबाई इंजन सपा ने 80 में से 43 (सपा- 37 और कांग्रेस- 6) सीटें जीतकर बीजेपी को 50 प्रतिशत से अधिक सीटों पर जबरदस्त मात दी थी और यूपी विधानसभा उपचुनाव 2024 में भी 9 में से 2 सीटें जीतने में कामयाब रही। इससे तेजस्वी यादव का बिहार में चिंतित होना स्वाभाविक है क्योंकि अब इंडिया गठबंधन की हवा निकल चुकी है और उसमें कांग्रेस के नेतृत्व पर भी सवाल उठ रहे हैं। इसलिए बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के दौरान तेजस्वी यादव को अपनी सियासी साख बचाने के लिए न केवल कड़ी राजनीतिक मशक्कत करनी पड़ेगी बल्कि सियासी सूझबूझ भी नए सिरे से दिखानी होगी जिसके आसार बहुत कम हैं। इसलिए अब यह कहा जाने लगा है कि भाजपा के सम्राट चौधरी दांव पर तेजस्वी यादव चारो खाने चित्त हो गए हैं। जहां लोकसभा चुनाव 2024 में यूपी वाले ‘इंडिया गठबंधन’ यानी समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठजोड़ को हासिल उपलब्धि की तरह बिहार में कुछ खास नहीं कर पाए, वहीं बिहार विधानसभा उपचुनाव 2024 में उससे भी बुरा सियासी प्रदर्शन किया जिससे अब उनके नेतृत्व पर ही सवाल उठने लगे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि लालू प्रसाद यादव जैसे रघुवंश प्रसाद सिंह या जगतानंद सिंह जैसे कद्दावर नेताओं की दूसरी कतार की तरह राजद में अपने मुकाबले कोई दूसरी कतार बनने ही नहीं दिया, जिसका अब उन्हें राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ रहा है। इतना ही नहीं, लालू प्रसाद जैसे भाजपा में सुशील मोदी जैसा बैकडोर शुभचिंतक रखते थे, कोई वैसा दूसरा हमउम्र शुभचिंतक पैदा करने में भी तेजस्वी यादव सर्वथा विफल रहे हैं! कहना न होगा कि आज ‘तेजस्वी यादव’ और ‘सम्राट चौधरी’ महज व्यक्ति नहीं बल्कि विचार बन चुके हैं। तेजस्वी यादव जहां ‘सेक्यूलर जमात’ की तरफदारी कर रहे हैं, वहीं सम्राट चौधरी अपने धर्मनिरपेक्ष मिजाज के बावजूद ‘प्रबल हिंदुत्व’ के समर्थकों की एकमात्र उम्मीद बनकर उभरे हैं और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह की तरह दबंगई पूर्वक अपनी बात रखते हैं। यही वजह है कि पहले उन्हें बीजेपी ने मंत्री बनाया, फिर प्रदेश अध्यक्ष बनने का मौका दिया और उसके बाद सीधे उपमुख्यमंत्री बना दिया।  वहीं, सम्राट चौधरी के बढ़ते सियासी ग्राफ का सेंसेक्स इस बात का संकेत दे रहा है कि भविष्य में तीसरी पीढ़ी के भाजपा नेताओं से जब प्रदेश में ओबीसी मुख्यमंत्री या फिर देश में ओबीसी प्रधानमंत्री बनाने की बात छिड़ेगी तो सम्राट चौधरी के नाम को खारिज करना इसलिए भी कठिन हो जाएगा, क्योंकि पूर्वी भारत में वो एकमात्र ऐसे भाजपा नेता हैं जिन्हें न केवल पीएम नरेंद्र मोदी और एचएम अमित शाह पसंद करते हैं बल्कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस भी उनके सियासी अंदाज को तवज्जो देते हैं।  यह बात मैं इसलिए बता रहा हूँ ताकि बिहारवासी यह समझ सकें कि सियासत एक चक्रव्यूह है जिसे अमूमन किसी अभिमन्यु की तलाश रहती है लेकिन समकालीन अर्जुन वह गलतियां नहीं दुहराता, जो महाभारत काल में दुहराई जा चुकी हैं। आज लालू प्रसाद और शकुनी चौधरी जैसे सियासी धुरंधर पग-पग पर अपने पुत्रों का मार्गदर्शन कर रहे हैं। आपको पता होगा कि बिहार की राजनीति को लगभग 15 वर्षों तक (1990-2005) अपने हिसाब से हांकने वाले पूर्व मुख्यमंत्री और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के तेजस्वी पुत्र तेजस्वी यादव हैं जबकि उस दौर में भी लालू प्रसाद को कड़ी सियासी चुनौती देने वाले उनकी ही सरकार के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री शकुनी चौधरी के यशस्वी पुत्र सम्राट चौधरी हैं, जो बिहार के सबसे कम उम्र के मंत्री बनने का रिकॉर्ड स्थापित कर चुके हैं। यह उनके राजनीतिक सूझबूझ का ही तकाजा है कि आज वो कुशवाहा नेता उपेंद्र कुशवाहा को काफी पीछे छोड़ चुके हैं जो उनके पिता शकुनी चौधरी के प्रबल राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी समझे जाते थे। बिहार की राजनीति में सम्राट चौधरी जितना फूंक-फूंक कर सियासी कदम उठा रहे हैं. उससे साफ पता चलता है कि अपने स्वर्णिम राजनीतिक भविष्य के लिए वह कोई जोखिम मोल लेना नहीं चाहते हैं । वहीं, पटना से लेकर दिल्ली तक जिस तरह से अपने शुभचिंतकों से जुड़े दिखाई प्रतीत होते हैं, उससे उनके प्रतिस्पर्धी नेता भी खुन्नस खा रहे हैं। हाल ही में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के शपथ ग्रहण समारोह में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ उनकी असरदार मौजूदगी भी दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में चर्चा का विषय बनी हुई है।  राजनीतिक लोग बता रहे हैं कि कभी नीतीश कुमार को सियासी आईना दिखाने वाले सम्राट चौधरी अब परिस्थितिवश जितना बेहतर तालमेल प्रदर्शित कर रहे हैं, उसका इशारा भी साफ है कि नीतीश कुमार का राजनीतिक सूर्य अस्त होते ही सम्राट चौधरी उस सियासी शून्य को भरकर बिहार भाजपा को वह राजनीतिक ऊर्जा प्रदान करेंगे जो उसे इन दिनों यूपी से महाराष्ट्र तक मिल रही है। ऐसा तभी संभव होगा, जब तेजस्वी यादव को बिहार विधान सभा चुनाव 2025 में एक और शिकस्त मिलेगी। टीम भाजपा अभी अपने इसी मिशन में जुटी हुई है। उधर, बिहार विधानसभा चुनाव से पहले आरजेडी नेता तेजस्वी यादव पूरी तरह से सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। हाल ही में अपनी शेखपुरा यात्रा के दौरान उन्होंने राष्ट्रीय लोक मोर्चा के नेता देवेंद्र कुशवाहा से मुलाकात कर सियासी पारा हाई कर दिया है। इस मुलाकात के बाद जिले की सियासत गर्म हो गई है, क्योंकि कुशवाहा ने कहा कि उन्होंने पंचायत की समस्याओं को लेकर तेजस्वी से मुलाकात की जबकि सियासी हल्के में यह चर्चा है कि राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा अपनी लोकसभा चुनाव 2024 की हार से भाजपा से भीतर ही भीतर चिढ़े हुए हैं और अपने नेताओं को तेजस्वी यादव के पीछे लगा दिया है, ताकि समय आने पर अपने साथ हुए सियासी छल का बदला ले सकें।  आपको पता होगा कि जब-जब भाजपा नीतीश कुमार के करीब जाती है तो लाचारीवश उसे उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी से दूरी बनानी पड़ती है। वहीं, लोजपा नेता चिराग पासवान और हम नेता जीतनराम मांझी जैसे नीतीश विरोधी नेताओं की पूछ भी घट जाती है हालांकि, दलित नेता होने के चलते चिराग को उपेंद्र से ज्यादा तवज्जो मिलती है। नीतीश कुमार के ही चक्कर में कभी भाजपा जॉइन किये आरसीपी सिंह भी आज सियासी नेपथ्य में चले गए हैं। ऐसे में नीतीश के धुर विरोधी रहे सम्राट चौधरी जिन्होंने कभी उन्हें पद से हटाने के लिए पगड़ी तक बांध रखी थी, को यदि भाजपा तवज्जो दे रही है तो यह उनके नेतृत्व कौशल, राजनीतिक प्रबंधन और व्यक्तिगत सम्पर्क का ही तकाजा है। इससे नीतीश व तेजस्वी दोनों परेशान हैं और खुद को उस सियासी चक्रव्यूह में घिरा महसूस कर रहे हैं, जहां सम्राट के महीन सियासी वार की कोई राजनीतिक काट तक उन्हें नहीं सूझ रही है। वहीं, बिहार की राजनीति के चाणक्य समझे जाने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (2005-से अब तक बीच में अपने शागिर्द जीतनराम मांझी के संक्षिप्त कार्यकाल को छोड़कर) ने बिहार के अधिकांश रिकॉर्ड को ध्वस्त करते हुए जिस तरह से अपनी सूबाई बादशाहत बनाए हुए हैं, उसे भी यदि सम्राट चौधरी निकट भविष्य में विनम्रता पूर्वक तोड़ दें तो किसी को हैरत नहीं होगी क्योंकि भले ही वह आरएसएस बैकग्राउंड से नहीं हैं लेकिन संघ और भाजपा की एक-एक राजनीतिक कड़ी को बखूबी जोड़ते जा रहे हैं ताकि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार जल्द ही बिहार में बन सके। उनके इस उद्देश्य की पूर्ति में केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय और भूपेंद्र यादव का सक्रिय सहयोग भी उन्हें मिल रहा है, ऐसा पार्टी सूत्र बताते हैं। कमलेश पांडेय

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