कम से कम सरकार-अधिक से अधिक शासन

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-कन्हैया झा-
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आम चुनाव 2014 समाप्त हो गए हैं. नए प्रधानमन्त्री का नाम लगभग निश्चित है. चुनाव के दौरान राजनीतिक पार्टियों के रिश्तों में खटास रहना आम बात है. चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए इन खटास को मिटते हुए भी देखा गया है. इस प्रकार की खटास को दूर करने के लिए अनेक स्तरों पर प्रयास होते हैं. कहा भी जाता है कि प्यार और युद्ध में सब जायज होता है. लेकिन यह युद्ध न होकर भारतमाता के की रक्षा करने वाले संगठनों के मध्य स्पर्धा है. इस चुनाव का मुख्य मुद्दा विकास रहा है. सन 1990 से विकास के ढांचे में कुछ विकृतियां आयी हैं. सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं में केंद्र सरकार का वर्चस्व बढ़ता गया है. राज्यों को केंद्र से बजट सहायता एक फॉर्मूले के तहत मिलती है. इसमें केंद्र की सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं जैसे परिवार नियोजन, ग्रामीण विकास, आदि का पैसा भी शामिल होता है. बढ़ते-बढ़ते ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान यह भाग कुल बजट सहायता के 42 प्रतिशत तक पहुंच गया. साथ ही राज्य को अपने बजट का बड़ा भाग केंद्र से प्राप्त होने वाली राशि को लेने के लिए सुरक्षित करना पड़ता है. इसके अलावा पिछले कुछ वर्षों से केंद्र की राशि, राज्य कोष को बाईपास करते हुए सीधे ही निचले स्तर पर भेजे जाने से राज्य सरकारों को योजनाओं पर नियंत्रण रखने में मुश्किलें आयीं.

केंद्र के विभिन्न मंत्रालयों में ताल-मेल न होने से राज्यों में योजनाओं के प्रति असमंजस तथा उदासीनता पैदा होना स्वाभाविक था. केंद्र तथा राज्यों में भिन्न दलों की सरकारें होने पर एक दूसरे पर आक्षेपों के चलते स्थिति और खराब हुई तथा देश के विकास में बाधा आयी. चतुर्वेदी कमेटी ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का मध्यावधि आकलन करते हुए कहा:

“केंद्र के कुल प्लान बजट में प्रायोजित योजनाओं (CSS) का भाग 56 प्रतिशत तक पहुंच गया है. ऐसी योजनाओं की संख्या लगभग 150 है, जिसमें से 91 प्रतिशत बजट केवल 20 योजनाओं का है. इसलिए बाकी योजनाओं को चालू रखने का कोई औचित्य नहीं बनता. लेकिन केन्द्रीय मंत्रालयों तथा विभागों में नयी योजनाओं को लागू करने की होड़ लगी हुई है. कोई भी पुरानी योजना को हटाने का इच्छुक नहीं है, जिसकी उपयोगिता ख़त्म हो चुकी है.” जब योजनाओं का क्रियान्वन राज्य स्तर पर होना है तो राज्यों को ही योजनायें बनाने का अधिकार क्यों न दिया जाय!. इससे राज्यों के बीच स्पर्द्धा बढ़ेगी और फिर केंद्र की निगरानी से योजनाओं का क्रियान्वन भी सुधरेगा. फिर Minimum Government Maximum Governance अर्थात “कम से कम सरकार, अधिक से अधिक शासन” सिद्धांत को चरितार्थ करते हुए केन्द्रीय मंत्रिमंडल को छोटा किया जा सकेगा.

इसलिए अपने मंत्रिमंडल को तय करने से पहले विकास के लिए प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बात-चीत करे, जिसमें मंत्रिमंडल में शामिल होने वाले संभावित सदस्य भी हो सकते हैं. ये बातचीत राज्यों की राजधानियों में होनी चाहिये. इन मीटिंगों में राज्य के मुख्यमंत्रियों को देश के विकास में भागीदारी के लिए आमंत्रित किया जाय, तथा उनसे भ्रष्टाचार मुक्त विकास के लिए आग्रह किया जाय. साथ ही नए प्रधानमंत्री के लिए सभी देशवासियों को व्यक्तिगत रूप से एक आश्वासन देना भी जरूरी है. चुनावों में अथवा बाद में वे किसी भी राजनीतिक पार्टी से इच्छा अनुसार संबंध रखने के लिए स्वतंत्र हैं. लेकिन विकास में भागीदारी के लिए क्षेत्र के चुने हुए सांसद में, तथा उनके माध्यम से प्रधानमंत्री में विश्वास बनाये रखना उनका दायित्व है।

3 COMMENTS

  1. आर. सिंह जी नमस्कार , केन्द्रीय हॉल में श्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा भाषण आपने अवश्य सुना होगा. पूरे भाषण में उन्होनें अपने सहयोगियों, सांसदों, एवं प्रजा के बीच एक विश्वास का रिश्ता कायम करने का प्रयत्न किया है. “केन्द्रीय हॉल लोकतंत्र का मंदिर है”, उस मंदिर के द्वार पर माथा टेकना – जो आज तक किसी प्रधानमंत्री ने नहीं किया, राजा और प्रजा के मध्य रिश्ते को एक गरिमा देता है. बिना विश्वास के विकास असंभव है. शासन के प्रति चुनावों के तुरन्त बाद अविश्वास बन जाना पूरे विश्व की समस्या है. अन्य लेखों में ब्राजील एवं अर्जेंटीना के उदाहरण से हमने इस विषय पर तथ्य भी दिए हैं.

    हम लोग एक ग्रुप में काम करते हैं. मेरे एक सहयोगी ने अपने ब्लॉग https://bansalblogspot.ucoz.com/ पर “राजनीति” एवं “सिद्धांत” नाम से कुछ लेख डाले हैं, जिन्हें देखा जा सकता है.
    मोदीजी की सरकार को जनता ने स्पष्ट बहुमत दिया है. वे एक कुशल शासक हैं, इस पर किसी को भी संदेह नहीं है. उनमें पद का अहंकार भी नहीं है, यह उनके कल के भाषण से सिद्ध होता है. एक समर्थ शासक ही विकेंद्रीकरण कर सकता है, जो हम सभी के हिसाब से विकास का सही तरीका है.

  2. पहली बार श्री कन्हैया झा को राजा प्रजा के सम्बंध से थोड़ा उपर उठते देखा। विकास के मामले में मेरा निजी विचार पण्डित दीन द्याल उपाध्याय और महात्मा गाँधी के विचारों पर आधारित है।मेरा मानना है की जब तक विकास की इकाई गांव या ग्राम पंचायत को नहीं बनाया जायेगा,तबतक सर्वांगीण विकास संभव नहीं है। यह काम न दिल्ली बैठ कर किया जा सकता है और न राज्यों की राजधानियों से।अतः योजना बनाने का काम गांवों और शहर के मुहल्लों में ले जाना होगा,तभी सर्वांगीण विकास संभव है। विकास की बात करते हुये,जिस पहलू पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाना था,वही अभी तक सबसे ज्यादा उपेक्षित है,सबको शिक्षा और सबको स्वास्थ्य। सार्वभौमिक अच्छी शिक्षा या अच्छा स्वास्थ्य आप तब तक नहीं दे सकते,जब तक निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा को उच्च स्तरीय न बनाये।यही बात प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के लिये भी कही जा सकती है।इन सबके लिये संसाधन जुटाने का काम भी उसी क्षेत्र को करना पड़ेगा,जहाँ ये सुविधाएं लागू करनी है। दिखावे का विकास बहुत हो चुका।उससे चंद लोग ही लाभान्वित हुये हैं।

  3. इन जुमलो से क्या होगा. हमे परिधी के बाहर जा कर सोचना होगा. रूढ़ियाँ हमारी सीमा ना बने. समस्यायों का समाधान अवश्य निकलेगा. विकास जनता को करना है, सरकार की भूमिका तो अनुगमनकर्ता की होगी. अब तक विकास में सरकार बाधक बनती थी, अब सरकार को चाहिए की वह लोगों को विकास का संवाहक बनाए.

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