नरेन्द्र मोदी भारत के नये प्रधानमंत्री बने हैं। भाजपा ने लोक सभा की ५४३ सीटों में से २८२ पर विजय प्राप्त कर स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया है।1984 के बाद भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ हो। सोनिया कांग्रेस को केवल 44 सीटें प्राप्त हुई हैं और अनेक राज्यों में तो उसे एक सीट भी नहीं मिली। इन सीटों के बल पर इस पार्टी को मान्यता प्राप्त विपक्षी दल का दर्जा भी प्राप्त नहीं हो सकेगा। लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि यह परिवर्तन क्या साधारण सत्ता परिवर्तन है अथवा इसमें कोई गहरे संकेत छुपे हुए है?
ऊपर से देखने वाले को शायद यह महज एक सामान्य सत्ता परिवर्तन ही लगे परन्तु यदि इस चुनाव में चलाये गये चुनाव अभियान को गहराई से देखेंगे तो अपने आप ही स्पष्ट हो जायेगा कि यह परिवर्तन पिछले छः दशकों से चले आ रहे चिंतन और नीतियों से परे हट कर देश के लिये एक नया रास्ता तलाशने के लिए किया गया नया परिवर्तन है। इस बात में कोई संशय नहीं है कि 1947 में देश में हुये सत्ता हस्तांतरण के समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इस बात के लिए प्रतिबद्धता थी कि ब्रिटिशकाल की सामाजिक, सांस्कृतिक ,भाषायी और आर्थिक नीतियों को नये परिवेश में भी केवल बनाये रखना ही नहीं, बल्कि इसको और मज़बूत करना है। इसी को ध्यान में रखते हुये पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने मौलाना अबदुल कलाम आजाद को अाजाद भारत का पहला शिक्षा मंत्री बनाया था। महात्मा गांधी शायद यह मान कर चलते थे कि सत्ता हस्तानांतरण के बाद देश में भारत और भारतीयता को ध्यान में रखते हुए सभी क्षेत्रों में देशानुकूल नीतियों का विकास किया जाना चाहिए। लेकिन महात्मा गांधी की जल्दी ही हत्या हो गई और उसका लाभ उठा कर नये शासकों ने पुराने अंग्रेज शासकों की नीतियों को बरकरार रखने में सफलता प्राप्त कर ली।
1975-77 में युग परिवर्तन हुआ था। पहली बार केन्द्र में सत्ता बदली थी। लेकिन यह सत्ता परिवर्तन इदिरा गांधी के अलोकतांत्रिक व्यवहार से उपजा था और इसका मुख्य कारण विपरीत परिस्थितियों में भी सत्ता से चिपके रहने की उनकी आकांक्षा थी। जय प्रकाश नारायण का नारा चाहे समग्र क्रान्ति का था, परन्तु उनके साथ जो लोग जुड़े हुऐ थे, उनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को छोड़ कर बाकी सभी की आस्था उन्हीं सामाजिक सांस्कृतिक नीतियों में बनी हुई थी, जिन्हें इस देश में अंग्रेज़ी शासक रोप गये थे और जिन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के हुक्मरानों ने अब तक मज़बूती से पकड़ रखा था। क्योंकि उन्हें लगता था कि भारत की मजबूती और विकास का यही सही रास्ता है। परन्तु इस पूरे कार्यकाल में भारतीय राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत शक्तियां भी चुप नहीं बैठी थीं। वे यत्नपूर्वक ब्रिटिशकाल की नीतियों और उसके समर्थकों को चुनौती ही नहीं दे रही थीं, बल्कि इस विषय पर एक सतत जनजागरण अभियान भी छेड़े हुये थीं। अटल बिहारी वाजपेयी का शासन इसी अभियान से उपजा था। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने पर यही टिप्पणी की जा सकती है कि राष्ट्रीय शक्तियों को अपने उद्धेश्य में आंशिक रूप से सफलता प्राप्त हो गई थी। लेकिन वाजपेयी सरकार के ईद- गिर्द उन्हीं राजनीतिक दलों का जमावड़ा था, जिनकी आस्था ब्रिटिश विरासत की उन्हीं नीतियों में थी जिनको भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक लम्बे अरसे से ढो रही थी। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनने से यह संकेत मिलने लगा कि भारतीय राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत शक्तियां निकट भविष्य में भारत के सांस्कृतिक राजनीतिक-आर्थिक सत्ता के केन्द्र में पहुंच सकती है। इस राष्ट्रीय चेतना की शक्तियों को रोकने और परास्त करने के ध्येय से सभी देशी विदेशी शक्तियां एकजुट होकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के स्थान पर नवनिर्मित सोनिया कांग्रेस के ईद-गिर्द एकत्रित होने लगीं। भारतीय राजनिति में यूपीए प्रथम और यूपीए द्वितीय के नाम से किया गया प्रयोग इन शक्तियों की कूटनीतिक सफलता ही कही जायेगी। लेकिन यूपीए के द्वितीय कालखण्ड तक आते-आते देश की आर्थिक स्थिति लड़खड़ाने लगी। सांस्कृतिक नीति का संचालन सोनिया गांधी के नेतृत्व में गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् के उन सदस्यों के हाथ मेें चला गया जो भारतीयता के और भारतीय इतिहास के प्रतीकों, आस्थाओं और विश्वासों को हिक़ारत की नज़र से देखते थे। जिस वक्त चीन इक्कीसवीं शताब्दी में एक लम्बी छलांग लगाने के लिए तैयारी कर रहा है, उस समय सोनिया कांग्रेस का नेतृत्व प्रत्येक क्षेत्र में देश को उपहास्यास्पद स्थिति में ले आया। ऐसे संकटकाल में देश के भविष्य को को लेकर चिंता होना लाजमी था। भारतीय जनता पार्टी ने इन चिंताओं को लेकर देश में एक व्यापक आंदोलन छेड़ा। नरेन्द्र मोदी उस आंदोलन के प्रतीक ही नहीं बल्कि सशक्त व उर्जावान प्रवक्ता बन कर ऊभरे। इस सागर मंथन में राष्ट्रवादी शक्तियां भाजपा के ईद-गिर्द जुड़ने लगीं। सोनिया कांग्रेस समेत उन सभी शक्तियों को, जो भारत को ब्रिटिश लीक से बाहर निकालने की विरोधी थीं, यह स्पष्ट होने लगा कि यह चुनाव पिछले चुनावों की तरह साधारण परम्परागत चुनाव नहीं है बल्कि यह चुनाव नीतियों और विचारधारा के आधार पर लड़ा जा रहा ऐसा चुनाव है जो भारत में एक नये युग की शुरुआत करेगा। राहुल गांधी ने भी अपने चुनाव अभियान में इसे स्पष्ट रूप से स्वीकार किया।
यह भी स्पष्ट दिखाई देने लगा था कि भारत में मुग़ल काल, ब्रिटिशकाल और कांग्रेसकाल के पराभव के बाद शुरू होने वाला लयकाल अपनी उर्जा शक्ति और प्रेरणा पश्चिमी क्षेत्रों से न प्राप्त कर भारतीय विरासत में से प्राप्त करेगा। १९४७ में सत्ता हस्तान्तरण हुआ था, लेकिन इस बार का अभियान वैचारिक परिवर्तन की ओर संकेत कर रहा था। यही कारण था कि निर्णय की इस ऐतिहासिक घड़ी में नरेन्द्र मोदी को सर्वाधिक गालियां सुन्नी पड़ीं। लेकिन असली प्रश्न यही था कि इस वैचारिक सागर मंथन में देश की जनता किसके साथ खड़ी है। यह प्रश्न सर्वाधिक महत्वपूर्ण था, क्योंकि अन्ततः भारत के लिये अपना आगे का रास्ता भारतीयों को ही चुनना था। लेकिन उन शक्तियों ने जो आज भी यह समझतीं हैं कि भारत पश्चिमी शक्तियों का पिछलग्गू बन कर ही रह सकता है, बहुत शोर मचाया। वाराणसी भारत में हो रहे इस युग परिवर्तन का प्रतीक बन गया और विरोधी शक्तियों ने यहीं इस प्रतीक को दबा देना चाहा। लेकिन अन्त में भारत ने वाराणसी को ही चुना और एक ही झटके से भारत में एक नये युग की इबारत लिख दी। नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन गये और भारत में उदित हुये इस नये युग की प्रतिध्वनियां विश्वभर में सुनाई देने लगीं हैं।