कविता

गुनगुनाती हवा

airये गुनगुनाती हवा
चुपके से जाने क्या
कहकर चली जाती है।
वक़्त हो चाहे कोई भी
हर समय किसी का
संदेशा दे जाती है।
सुबह का सर्द मौसम
और ठंडी हवा का झोंका
किसी की याद दिला जाती है।
दोपहर की तपती धूप
और हवा की तल्खी
दर्द की थपकी दे जाती है।
शाम का खुशनुमा मौसम
और हवा की नर्मी जैसे
किसी से मिला जाती है।
अंधेरी रात में ये हवा
खुले आकाश के नीचे
साथ मेरा निभा जाती है।
गीत कोई गा रही है
ये गुनगुनाती हवा
जैसे किसी को बुलाती है।
पत्तों की सरसराहट में
अपनी खामोशी से
नग़मा कोई छेड़ जाती है।
फिर इन नग़मों में जैसे
ज़िंदगी का फलसफा
सिखा जाती है।