केवल अमलतास

amaltasऊँघते/ अनमने
उदास झाड़ियों के बीच

इठलाता अमलतास
चिड़ाता जंगल को
जंगल के पेड़ों को,
जिनके झर गए पत्ते सारे
लेकिन पीले पुष्प गुच्छों से
आच्छादित
अमलतास
आज भी श्रंगारित है,
उसे नाज है
अपने रूप पर
अपने फूलने पर,
पर क्या –
उसका यह श्रंगार
स्थायी है/ नहीं
शायद इस
सनातन सत्य को
भूल गया अमलतास ।
उसे नहीं पता कि
हर किसी का
एक समय होता है
कभी अच्छा/ बुरा
जिस पर मेहरबान है
आज प्राकृतिक मौसम
फिर आया बसंत
रौनक की आहट
हुई जंगल में,
सबने किया श्रंगार
लुट रहा था
केवल अमलतास
खत्म हो गई उसकी आस
सब कर रहे थे उपहास
पर उदास खड़ा
केवल अमलतास।।

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