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चारधाम – हिन्दुओं का पवित्र तीर्थ स्थल

हम सब बचपन से ही अक्सर अपने बड़ो से चारधाम यात्रा के बारे मे सुनते हैं, कि चार धाम यात्रा का बहुत महत्व होता है, चारधाम करने से मनुष्य के सारे पाप धुल जाते हैं। इस स्थान के संबंध में यह भी कहा जाता है कि यह वही स्थल है जहां पृथ्वी और स्वर्ग एकाकार होते हैं। तो आइए आज हम भी थोड़ा चारधाम के बारे मे जाने।

चारधाम मे भारत के चार दिशाओं के महत्‍वपूर्ण मंदिर आते हैं। ये मंदिर हैं- जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारका और बद्रीनाथ। इन मंदिरों की स्थापना 8वीं सदी में आदिशंकराचार्य ने की थी। इन चारों मंदिरों की अपनी अलग महत्ता है। लेकिन इन सब में बद्रीनाथ सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और अधिक तीर्थयात्रियों द्वारा दर्शन करने वाला मंदिर है। इसके अलावा हिमालय पर स्थित छोटा चार धाम मंदिरों में भी बद्रीनाथ ज्यादा महत्वे वाला और लोकप्रिय है। इस छोटे चार धाम में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ (शिव मंदिर), यमुनोत्री एवं गंगोत्री (देवी मंदिर) शमिल हैं। यह चारों धाम हिंदू धर्म में अपना अलग और महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, जिनके महत्व की चर्चा वेदों व पुराणों तक में मिलती है।

बाद मे इस यात्रा को ‘हिमालय की चार धाम’ यात्रा के नाम से जाना जाने लगा है। तीर्थयात्रियों के लिए यह एक प्रमुख तीर्थस्थल बन गया है। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा पर्यटकों, तीर्थयात्रियों की सालाना तादाद से लगाया जा सकता है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार प्रत्येंक यात्रा काल(15 अप्रैल से नवंबर के प्रारंभ तक) में 250,000 से ज्यातदा तीर्थयात्री यहां दर्शन हेतु आते हैं। मानसून आने के दो महीने पहले तक पयर्टकों, तीर्थयात्रियों की जबर्दस्तस भीड़ रहती है। बरसात के मौसम में यहां जाना खतरनाक माना जाता है, क्योंकि इस दौरान भूस्ख लन की संभावना सामान्यद से ज्यादा रहती है। भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ हिंदुओं के सबसे पवित्र स्थान हैं। इनको चार धाम के नाम से भी जाना जाता हैं।

 

यमुनोत्री

समुद्रतल से 10 हजार फुट की ऊंचाई पर उत्तराचंल के गढ़वाल मण्डल की हिमालय श्रृंखलाओं मे स्थित यमुनोत्री चार धाम यात्रा का पहला पड़ाव है। यहीं सप्तऋषि कुण्ड नामक सरोवर से यमुना नदी निकलती है। पुराणों में यमुना को सूर्य पुत्री कहा गया है। यमुनोत्री के साथ असित ऋषि की कथा जुड़ी हुई है। अत्यधिक वृद्धावस्था के कारण ऋषि ब सप्तऋषि कुण्ड में स्नान करने के लिए नहीं जा सके तो उनकी अपार श्रद्धा देखकर यमुना उनकी कुटिया से ही प्रकट हो गई। यही स्थान अब यमुनोत्री कहलाता है। कलिन्द पर्वत से निकलने के कारण इसे कालिन्दी भी कहते हैं। यमुनोत्री में गर्म पानी के अनेक कुण्ड हैं, जिनमें कपड़े में बांधकर चावल, आलू वगैरह थोड़ी देर डालने पर वह पक जाते हैं। इसी को यमुनोत्री का प्रसाद मानकार श्रद्धालु स्वीकार करते हैं।

मई-जून के महीनों में यहां यात्रियों की काफी भीड़ रहती है। एक तरफ यमुना की शीतल धारा बहती है, दूसरी तरपफ गर्म जल के कुण्ड हैं। यहां परशुराम, काली और एकादश रुद्र आदि के मन्दिर हैं। यमुनोत्री मन्दिर अक्षय तृतीया (मई) को खुलता है और यामा द्वितीया या भाई दूज या दीवाली के दो दिन बाद (नवंबर) को बंद होता है।

 

गंगोत्री

यमुनोत्री की यात्रा के बाद गंगोत्री के दर्शनों का महात्म्य है। गंगोत्री भारत के पवित्र और आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण नदी गंगा का उद्गम स्थल भी है। उत्तरकाशी से 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह स्थान हिन्दुओं का एक प्रमुख तीर्थ स्थल है।

प्रत्येक वर्ष लाखों श्रद्धालु यहां आते हैं। भागीरथी नदी के किनारे बने इस मन्दिर को 18वीं शताब्दी में गोरखा रेजीमेंट के जनरल अमर सिंह थापा ने बनवाया था। गंगोत्री मन्दिर के कपाट भी अक्षय तृतीय के दिन खुलते हैं और दीपावली के पश्चात् गोवर्धन-पूजा के दिन अन्तिम पूजा करके बन्द हो जाते है।

पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि सूर्यवंशी राजा सागर ने अश्वगमेध यज्ञ कराने का फैसला किया। इसमें इनका घोड़ा जहां-जहां गया उनके 60,000 बेटों ने उन जगहों को अपने आधिपत्य में लेता गया। इससे देवताओं के राजा इंद्र चिंतित हो गए। ऐसे में उन्हों ने इस घोड़े को पकड़कर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा सागर के बेटों ने मुनिवर का अनादर करते हुए घोड़े को छुड़ा ले गए। इससे कपिल मुनि को काफी दुख पहुंचा। उन्हों ने राजा सागर के सभी बेटों को शाप दे दिया जिससे वे राख में तब्दील हो गए। राजा सागर के क्षमा याचना करने पर कपिल मुनि द्रवित हो गए और उन्होंतने राजा सागर को कहा कि अगर स्वार्ग में प्रवाहित होने वाली नदी पृथ्वी पर आ जाए और उसके पावन जल का स्पर्श इस राख से हो जाए तो उनका पुत्र जीवित हो जाएगा। लेकिन राजा सागर गंगा को जमीन पर लाने में असफल रहे। बाद में राजा सागर के पुत्र भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में सफलता प्राप्‍त की। गंगा के तेज प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए भागीरथ ने भगवान शिव से निवेदन किया। फलत: भगवान शिव ने गंगा को अपने जटा में लेकर उसके प्रवाह को नियंत्रित किया। इसके उपरांत गंगा जल के स्पर्श से राजा सागर के पुत्र जीवित हुए। यहां तर्पण, उपवास आदि करने यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता है और मनुष्य सदा के लिए ब्रहीभूत हो जाता है। इसके अतिरिक्त यहां महालक्ष्मी, जाह्नवी, अन्नपूर्णा, यमुना, सरस्वती, भागीरथी व शंकराचार्य की मूर्तियां है।

हिंदू धर्म में गंगोत्री को मोक्षप्रदायनी माना गया है। यही वजह है कि हिंदू धर्म के लोग चंद्र पंचांग के अनुसार अपने पुर्वजों का श्राद्ध और पिण्डह दान करते हैं। मंदिर में प्रार्थना और पूजा आदि करने के बाद श्रद्धालु भगीरथी नदी के किनारे बने घाटों पर स्नांन आदि के लिए जाते हैं। तीर्थयात्री भागीरथी नदी के पवित्र जल को अपने साथ घर ले जाते हैं। इस जल को पवित्र माना जाता है तथा शुभ कार्यों में इसका प्रयोग किया जाता है। गंगोत्री से लिया गया गंगा जल केदारनाथ और रामेश्वरम के मंदिरों में भी अर्पित की जाती है। मंदिर अक्षय तृतीया (मई) को खुलता है और यामा द्वितीया को बंद होता है।

 

केदारनाथ

केदारनाथ धाम भगवान शिवजी को समर्पित है। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार महाभारत की लड़ाई के बाद पाण्डवों को जब अपने बंधु-बांधवों के मारे जाने पर भारी सन्ताप हुआ तो वे पश्चाताप करने के लिए यहां आए और उन्होंने यहां इस मन्दिर की स्थापना की। यह भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। केदारनाथ की निरभ्र घाटी में भगवान शिव के दर्शन जहां नास्तिक को आस्तिक बना देते हैं, वहीं आस्तिक को परम आस्था भाव से भर देते हैं। मन्दिर की भीतरी दीवारों पर देवी-देवताओं की सुन्दर प्रतिमाएं हैं। इसके अतिरिक्त आप यहां श्री भैरोनाथ जी का मन्दिर, आदिशकंराचार्य की समाधि व गांधी सरोवर भी देख सकते हैं। केदारनाथ पहुंचने के लिए गोरीकुण्ड से 15 किलोमीटर की पैदल यात्रा करनी पड़ती है। केदारनाथ के दर्शन प्रात: छह से दो और शाम तीन से पांच बजे तक किये जा सकते हैं। अगस्त में रक्षा बंधन से पूर्व यहां श्रावणी अन्नकूट मेला लगता है। कपाट बन्द होने के दिन विशेष समाधि शंकराचार्य की पूजा होती है। केदारनाथ त्याग की भावना को भी दर्शाता है।

क्षेत्र में केदार के अलावा अलग-अलग स्थानों में शिव के चार अंगों की पूजा होती है। उनका नाभि प्रदेश मदमहेश्वर में, भुजाएं तेगुनाथ´ में मुख रुद्रनाथ में और जटाएं कल्पेश्वर में पूजी जाती है। केदारनाथ समेत शिव के ये सभी रूप `पंचकेदार´ के नाम से पूजित हैं। कपाट खुलने तक केदारनाथ की पूजा उफखीमठ में की जाती है। कपाट बन्द होने की तिथि दीपावली के बाद यम द्वितीया है।

केदारनाथ मंदिर न केवल आध्यात्म के दृष्टिकोण से वरन स्थापत्य कला में भी अन्यइ मंदिरों से भिन्न है। यह मंदिर कात्युहरी शैली में बना हुआ है। यह पहाड़ी के चोटि पर स्थित है। इसके निर्माण में भूरे रंग के बड़े पत्थ्रों का प्रयोग बहुतायत में किया गया है। इसका छत लकड़ी का बना हुआ है जिसके शिखर पर सोने का कलश रखा हुआ है। मंदिर के बाह्य द्वार पर पहरेदार के रूप में नंदी का विशालकाय मूर्ति बना हुआ है।

केदारनाथ मंदिर को तीन भागों में बांटा गया है – पहला, गर्भगृह। दूसरा, दर्शन मंडप, यह वह स्थारन है जहां पर दर्शानार्थी एक बड़े से हॉल में खड़ा होकर पूजा करते हैं। तीसरा, सभा मण्डप, इस जगह पर सभी तीर्थयात्री जमा होते हैं। तीर्थयात्री यहां भगवान शिव के अलावा ऋद्धि सिद्धि के साथ भगवान गणेश, पार्वती, विष्णु और लक्ष्मी, कृष्ण , कुंति, द्रौपदि, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की पूजा अर्चना भी की जाती है।

 

बद्रीनाथ

पुराणों में धामों के धाम नाम से वर्णित बद्रीनाथ उत्तराखण्ड के ऋषि गंगा और अलकनन्दा के संगम पर बसा हुआ बद्रीनाथ धाम हिन्दुओं का बहुत बड़ा धर्मिक स्थल है। अलकनंदा नदी इस मंदिर की खूबसुरती में चार चांद लगाती है। बद्रीनाथ की महिमा का व्याख्यान स्कन्द पुराण व महाभारत में भी किया गया है। बदरी विशाल के रूप में स्थापित विष्णु का यह स्वरूप क्षेत्र में स्थापित पांच बदरियों में से उच्चस्थ होने के कारण बदरी विशाल के नाम से जाना जाता है। इसके दोनों ओर नर और नारायण की पर्वत श्रेणियां हैं और यहां से नीलकंठ की बर्फ से ढकी सुन्दर चोटी दिखाई पड़ती है। हिन्दू शास्त्रों में कहा गया है कि बद्रीनाथ के दर्शनों के बिना कोई भी यात्रा अधूरी है। इस आध्यात्मिक व पवित्र धाम का उल्लेख सर्वप्रथम पराशर संहिता में मिला है। ऋषिगण धर्म के तत्व को जानने की इच्छा से व्यासजी के साथ बदरीकाश्रम गए। तब पाराशर मुनि ने मुनियों को बदरीकाश्रम में धर्म के निर्णय का ज्ञान दिया। यह वही भूमि है जहां सम्पूर्ण पापों को नाश करने वाली गंगा है तथा ब्रह्मा, विष्णु महेश सर्वदा निवास करते हैं। इस पवित्रा स्थल के दर्शन-सेवन से मुक्ति एवं भक्ति प्राप्त होती है, प्राणी बार-बार संसार में जन्म लेने के बंधन से मुक्त हो जाता है। बदरीकाश्रम में पंचसिला की परिक्रमा से मानव परमधम को प्राप्त करता है एवं सम्पूर्ण पृथ्वी-दान का फल प्राप्त करता है। बद्रीनाथ मन्दिर अलकनन्दा नदी के किनारे पर बना है। मन्दिर को देखने से इस पर बौद्ध वास्तुकला का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। शंकराचार्य ने आठवी शताब्दी में धर्मिक समन्वय के उद्देश्य से जिन चार धमों की स्थापना की, उनमें सुदूर उत्तर में विष्णु के रूप में बद्रीनाथ धाम स्थापित हुआ। 19वीं शताब्दी में सिंधिया और होल्कर राजाओं द्वारा पुन:निर्मित इस विविधवर्णी मुख्यद्वार को सिंहद्वार कहा जाता है। मन्दिर गर्भ गृह, दर्शन मण्डप और सभा मण्डप के रूप में विभाजित है। गर्भ गृह में बदरी विशाल की काले पत्थर की ध्यानस्थ पद्मासन मूर्ति है।

इसके ठीक सामने गर्मपानी का एक कुण्ड है जिसे तप्त कुण्ड भी कहा जाता है। जिसके बारे में आजतक जगत के वैज्ञानिक इसका पता नहीं लगा सके हैं, यहां निरन्तर गर्म पानी कहां से आता है। श्रद्धालु मन्दिर में दर्शन करने से पहले तप्तकुण्ड में स्नान करते हैं। कहते हैं कि इस कुण्ड के पानी में हिमालय की अनेक बहुमूल्य औषधियों का मिश्रण है जिसके कारण तप्त कुण्ड में स्नान करने से हजारों बीमारियों का उपचार स्वयं हो जाता है। बदरीनाथ से वसंख्‍ किलोमीटर की दूरी पर प्रसिद्ध माणा गांव है। कहा जाता है कि यहीं पर व्यास गुफा में चारों वेदों के मंत्रों को एक साथ रखकर चार भागों में बांटा गया था। कई पुराण भी यहां लिखे गए थे। माणा के अतिरिक्त यहां चरणपादुका, शेषनेत्रा ताल, व्यास गुफा, गणेश गुफा व भीमपुल मातामूर्ति है।

कालांतर में जो मंदिर बना हुआ है उसका निर्माण आज से ठीक दो शताब्दी पहले गढ़वाल राजा के द्वारा किया गया था। यह मंदिर शंकुधारी शैली में बना हुआ है। इसकी ऊंचाई लगभग 15 मीटर है। जिसके शिखर पर गुंबज है। इस मंदिर में 15 मूर्तियां हैं। मंदिर के गर्भगृह में विष्णु के साथ नर और नारायण ध्यान की स्थिति में विराजमान हैं। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण वैदिक काल में हुआ था जिसका पुनरूद्धार बाद में आदि शंकराचार्य ने 8वीं शदी में किया। इस मंदिर में नर और नारायण के अलावा लक्ष्मी, शिव-पार्वतीर, और गणेश की मूर्ति भी है।

भू-स्खंलन के कारण यह मंदिर अक्सहर क्षतिग्रस्त हो जाता है। इस वजह से इसका आधुनिकीकरण भी बार-बार किया गया है। लेकिन सिंह द्वार जो इस मंदिर का मुख्यइ द्वार भी है, इसके बन जाने के बाद इसकी खूबसूरती में चार चांद लग गया है। इस मंदिर के तीन भाग हैं- गर्भगृह, दर्शन मंडप (पूजा करने का स्थामन) और सभा गृह (जहां श्रद्धालु एकत्रित होते हैं)। वेदों और ग्रंथों में वद्रीनाथ के संबंध में कहा गया है कि, ‘स्वर्ग और पृथ्वी पर अनेक पवित्र स्थान हैं, लेकिन बद्रीनाथ इन सबों में सर्वोपरि है।’ मंदिर के खुलने का समय: मंदिर बसंत पंचमी (फरवरी) के दिन खुलता है। यह मंदिर विजयादशमी (मध्य’ अक्टूबर) के दिन बंद होता है।

धर्मग्रंथों में कहा गया है कि जो पुण्यात्मा यहां का दर्शन करने में सफल होते हैं उनका न केवल इस जनम का पाप धुल जाता है वरन वे जीवन-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाते हैं। तीर्थयात्री इस यात्रा के दौरान सबसे पहले यमुनोत्री (यमुना) और गंगोत्री (गंगा) का दर्शन करते हैं। यहां से पवित्र जल लेकर श्रद्धालु केदारेश्व्र पर जलाभिषेक करते हैं। इन तीर्थयात्रियों के लिए परंपरागत मार्ग इस प्रकार है -:

यह मार्ग परंपरागत हिंदू धर्म में होनेवाले पवित्र परिक्रमा के समान है। जबकि केदारनाथ जाने के लिए दूसरा मार्ग ऋषिकेश से होते हुए देवप्रयाग, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग, अगस्तीमुनी, गुप्तककाशी और गौरिकुंड से होकर जाता है। केदारनाथ के समीप ही मंदाकिनी का उद्गम स्थल है। मंदाकिनी नदी रूद्रप्रयाग में अलकनंदा नदी में जाकर मिलती है।