चेतन ब्रह्म की उपासना और सेवा करनी चाहिए और इससे भिन्न जड़ आदि पदार्थों की उपासना नहीं किन्तु उनसे उपकार ग्रहण करना चाहिए

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-मनमोहन कुमार आर्य

ईशावास्योपनिषद् में कुल 17 मन्त्र हैं। इस लेख में ईशावास्योपनिषद् के मन्त्र क्र्रमांक 12 से 14 पर ऋषि दयानन्द के यजुर्वेद भाष्य से इन मंत्रों के भाषार्थ एवं भावार्थ आदि प्रस्तुत हैं:

 

मन्त्र संख्या 12

 

मन्त्र के ऋषि दीर्घतमाः। देवता आत्मा=स्पष्टम्। छन्द निचृदनुष्टुप् स्वर गान्धारः।।

 

अब विद्या और अविद्या की उपासना के फल का उपदेश किया जाता है।

 

अन्धन्तमः प्र विशन्ति येऽविद्यामुपासते।

ततो भूय ऽ इव ते तमो य ऽ उ विद्यायां रता।।।12।। 

 

अन्वयः-ये मनुष्या अविद्यामुपासते तेऽन्धन्तमः प्रविशन्ति ये विद्यायां रतास्त उ ततो भूय इव तमः प्रविशन्ति।।12।।

 

भाषार्थ-(ये) जो मनुष्य (अविद्याम्) अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र, दुःख को सुख, अनात्मा को आत्मा जानना रूप अविद्या है, अतः ज्ञानादि गुणों से रहित, कार्य-कारण रूप परमेश्वर से भिन्न जड़ वस्तु की (उपासते) उपासना करते हैं (ते) वे (अन्धम्) ज्ञान-दृष्टि को ढकने वाले (तमः) गाढ़ अज्ञान में (प्रविशन्ति) प्रविष्ट होते हैं। और-

 

(ये) जो अपने आपको पण्डित मानने वाले (विद्यायाम्) शब्द, अर्थ और सम्बन्ध के जानने मात्र तथा अवैदिक आचरण में (रताः) रमण करते हैं (ते) वे (उ) निश्चय ही (ततः) उससे (भूयः इव) कहीं अधिक (तमः) अज्ञान में प्रविष्ट होते हैं।।12।।

 

भावार्थ-यहां उपमांकार है। जो-जो ज्ञानादि गुणों से युक्त चेतन वस्तु है, वह ज्ञाता, और जो अविद्यारूप है वह ज्ञेय कहलाता है और जो चेतन ब्रह्म अथवा विद्वान् आत्मा है, उसी की उपासना और सेवा करनी चाहिए, और जो इससे भिन्न हैं, उसकी उपासना नहीं करनी चाहिए, किन्तु उससे उपकार ग्रहण करना चाहिए।

 

जो मनुष्य अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पंच क्लेशों से युक्त हैं, वे परमेश्वर को छोड़कर इससे भिन्न जड़ वस्तु की उपासना करके महान् दुःख-सागर में डूबते हैं।

 

और जो शब्द, अर्थ, सम्बन्ध मात्र संस्कृत भाषा पढ़कर सत्य भाषण, पक्षपात रहित न्यायाचरण रूप धर्म का आचरण नहीं करते, अपितु अभिमानी होकर विद्या का अपमान करके अविद्या का नाम करते हैं, वे अत्यन्त अज्ञानरूप दुःखसागर में पड़े सदा दुःखी रहते हैं।।40/12।।

 

भाष्यसार-विद्या और अविद्या की उपासना का फल-जो अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र, दुःख को सुख, अनात्मा को आत्मा जानना रूप अवद्यि है, अतः ज्ञानादि गुणों से रहित, कार्य कारणात्मक, परमेश्वर से भिन्न वस्तु की जो उपासना करते हैं वे घोर अज्ञान को प्राप्त होते हैं। अपने आपको पण्डित मानने वाले, विद्या अर्थात् शब्द-अर्थ-सम्बन्ध के विज्ञानमात्र में तथा अवैदिक आचरण में रमण करते हैं, वे उससे भी कहीं अधिक अज्ञान को प्राप्त होते हैं।

 

तात्पर्य यह है कि चेतन आत्मा ज्ञानादि गुणों से युक्त ज्ञाता है। ज्ञानादि गुणों से रहित अविद्या रूप वस्तु ज्ञेय है। चेतन ब्रह्म उपासनीय है और विद्वानों का आत्मा सेवा करने योग्य है। विद्या अर्थात् चेतन ब्रह्म और आत्मा से भिन्न अर्थात् अविद्या (जड़) वस्तु उपासना के योग्य नहीं होती किन्तु उपकार लेने योग्य होती है।

 

अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेश पांच क्लेश हैं। इनसे युक्त मनुष्य परमेश्वर को छोड़कर उनसे भिन्न जड़ (अविद्या) वस्तु की उपासना करते हैं, वे महान् दुःखसागर में डूबते हैं। और जो शब्द-अर्थ-सम्बन्ध मात्र संस्कृत पढ़कर सत्यभाषण, पक्षपात रहित न्यायाचरण रूप धर्म का आचरण नहीं करते, अभिमानी होकर विद्या (चेतन ब्रह्म) का तिरस्कार करके अविद्या (जड़ पदार्थ) को ही अधिक मानते हैं, वे अधिक अन्धकार रूप दुःखसागर में सदा पीड़ित रहते हैं।।40/12।।

 

मन्त्र संख्या 13

 

ऋषि दीर्घतमाः। देवता आत्मा=स्पष्टम्। छन्द अनुष्टुप्। स्वर गान्धारः।।

 

अब जड़-चेतन का विभाग कहते हैं।

 

अन्यदेवाहुर्विद्याया ऽ अन्यदाहुरविद्यायाः।

इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे।।13।।

 

अन्वयः-हे मनुष्याः! ये विद्वांसो नो विचचक्षिरे। विद्याया अन्यदाहुरविद्याया अन्यदेवाहुरिति, तेषां धीराणां तद्वचो वयं श्रुश्रुमेति विजानीत।।13।।

 

भाषार्थ-हे मनुष्यो! जो विद्वान् लोग (नः) हमारे लिए (विचचक्षिरे) बतला गए हैं कि (विद्यायाः) पूर्वमन्त्र में कही विद्या का (अन्यत्) और ही कार्य वा फल होता है, ऐसा (आहुः) कहते हैं। (अविद्यायाः) पूर्वमन्त्र में प्रतिपादित अविद्या का (अन्यत्) और ही फल होता है, ऐसा उन (धीराणाम्) आत्मज्ञानी विद्वानों के पास से (तत्)  उपदेश हमने (शुश्रुम) सुना है? ऐसा तुम जानो।।40/13।।

 

भावार्थ-ज्ञान आदि गुण से युक्त चेतन से जो उपयोग लिया जा सकता है, वह अज्ञानयुक्त जड़ वस्तु से नहीं। और जो जड़-वस्तु से प्रयोजन सिद्ध होता है, वह चेतन से नहीं हो सकता। ऐसा सब मनुष्यों को विद्वानों के संग, विज्ञान, योग और धर्माचरण से इन दोनों का विवेचन करके जड़ और चेतन दोनों का ठीक-ठीक उपयोग करना चाहिए।।

 

भाष्यसार-जड़ और चेतन का विभाग-विद्वान् मनुष्यों ने पूर्व मन्त्रोक्त विद्या (चेतनवस्तु) का अविद्या से अन्य (भिन्न) ही कार्य वा फल बतलाया है। पूर्व मन्त्रोक्त अविद्या (जड़वस्तु) का विद्या से अन्य (भिन्न) ही कार्य या फल बतलाया है। आत्मज्ञानी विद्वानों से विद्या और अविद्या से उत्पन्न फल तथा उनका स्वरूप हम भिन्न-भिन्न सुनते हैं।

 

तात्पर्य यह है कि विद्या अर्थात् ज्ञानादिगुणों से युक्त चेतन से जो उपयोग लिया जा सकता है, वह अविद्या अर्थात् अज्ञानयुक्त जड़ पदार्थ से नहीं। और जो अविद्या अर्थात् जड़ पदार्थ से प्रयोजन सिद्ध होता है, वह विद्या अर्थात् चेतन पदार्थ से नहीं। इसलिए सब मनुष्य विद्वानों के संग से विज्ञान, योग और धर्माचरण से विद्या और अविद्या का विवेचन करें तथा इनका यथावत् उपयोग करें।।40/13।।

 

मन्त्र संख्या 14

 

ऋषि दीर्घतमाः। देवता आत्मा=स्पष्टम्। छन्द स्वराडुष्णिक्। स्वर ऋषभः।।

 

जड़ और चेतन के विभाग का फिर उपदेश किया है।

 

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।

अविद्या मृत्यं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।।14।।

 

अन्वयः-यो विद्वान् विद्यां चाऽविद्यां च तदुभयं सह वेद सोऽविद्यया मृत्युं  तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।।14।।

 

भाषार्थ-(यः) जो विद्वान् (विद्याम्) पूर्वमन्त्र में कही विद्या, (च) और उसके साधन उपसाधनों को तथा (अविद्याम्) पूर्व प्रतिपादित अविद्या (च) और उसके उपयोगी नाना साधनों (तत्, उभयम्, सह) उन दोनों को साथ-साथ (वेद) जानता है, (सः) वह (अविद्यया) शरीर आदि जड़ पदार्थों के द्वारा किये पुरुषार्थ से (मृत्युम्) प्राण-त्याग में होने वाले दुःख के भय को (तीर्त्वा) पार करके (विद्यया) आत्मा और शुद्ध-अन्तःकरण के संयोग रूप धर्म से उत्पन्न यथार्थ ज्ञान से (अमृतम्) अविनाशी आत्मस्वरूप को अथवा परमात्मा को (अश्नुते) प्राप्त करता है।।14।।

 

भावार्थ-जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को जानकर और इनके जड़ एवं चेतन पदार्थ साधक हैं, ऐसा निश्चय करके शरीर आदि जड़ और चेतन आत्मा का धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिए एक साथ प्रयोग करते हैं, वे लोग लौकिक दुःख से छूट कर पारमार्थिक सुख (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं।

 

यदि जड़ (अविद्या) प्रकृति आदि कारणवस्तु अथवा शरीर आदि कार्यवस्तु न हो तो परमात्मा जगत् की उत्पत्ति तथा जीव कर्म, उपासना और ज्ञान की प्राप्ति कैसे कर सकते हैं।

 

इसलिए न केवल जड़ (अविद्या) के द्वारा और न केवल चेतन (विद्या) के द्वारा, अथवा न केवल कर्म (अविद्या) के द्वारा और न केवल ज्ञान (विद्या) के द्वारा कोई भी व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि कर सकता है।।40/14।।

 

भाष्यसार-1. जड़ और चेतन का विभाग-जो विद्वान् पूर्व मन्त्रोक्त विद्या (चेतन वस्तु) और सत्सम्बन्धी साधन-उपसाधन तथा पूर्व में प्रतिपादित अविद्या (जड़ वस्तु) और उसके उपयोगी सब साधनों को साथ-साथ जानता है वह अविद्या अर्थात् शरीरादि जड़ पदार्थों से किये पुरुषार्थ के द्वारा मृत्यु के दुःख को पार कर सकता है, और विद्या अर्थात् आत्मा और अन्तःकरण के संयोग से उत्पन्न यथार्थ ज्ञान (दर्शन) से अमृत अर्थात् अविनाशी आत्मस्वरूप तथा परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।

 

तात्पर्य यह है कि मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को समझें। जड़ और चेतन पदार्थ इनके साधक हैं, ऐसा निश्चय करें। शरीर आदि जड़ वस्तु (अविद्या), और चेतन आत्मा (विद्या) का धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिए साथ-साथ उपयोग करें। लौकिक दुःख (मृत्यु) को छोड़कर पारमार्थिक सुख (अमृत=मोक्ष) को प्राप्त करें।

 

2.  जड़ और चेतन की आवश्यकता-यदि अविद्या अर्थात् जड़ प्रकृति आदि कारण वस्तुत अथवा शरीरादि कार्य वस्तु न हो तो परमेश्वर जगत् की उत्पत्ति नहीं कर सकता और जीव कर्म, उपासना और ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए न केवल जड़ (अविद्या) और न केवल चेतन (विद्या) अथवा न केवल कर्म (अविद्या) और न केवल ज्ञान (विद्या) से कोई भी मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि कर सकता है। अतः विद्या और अविद्या दोनों का सह-ज्ञान आवश्यक है।।40/14।।

 

अन्यत्र व्याख्यात–‘‘विद्यां चाविद्यां च0’’ (यजुर्वेद 40/14)।। जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ ही जानता है, वह अविद्या अर्थात् कर्मोपासना से मृत्यु को तर के विद्या अर्थात् यथार्थ ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है। (सत्यार्थप्रकाश, नवम समुल्लास)

 

वेदों में ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का दिया गया यथार्थ ज्ञान सभी मनुष्यों के लिए अति उपयोगी है। इन्हें जानकर और इसकायथायोग्य उपयोग व आचरण कर ही मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त कर कर सकता है। वेदों का निरन्तर स्वाध्याय करते रहना चाहिये जिससे मनुष्य अपने कर्तव्यों के प्रति सावधान रहे तथा जीवन के उद्देश्य को स्मरण रखते हुए उसकी पूर्ति में संलग्न रहे। ओ३म् शम्।

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