स्वदेशी के महत्व को बताता है छत्रपति का जीवन

छत्रपति शिवाजी महाराज जयंती पर विशेष

– लोकेन्द्र सिंह

छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म शिवनेरी दुर्ग में फाल्गुन मास (अमावस्यांत) कृष्ण पक्ष तृतीया / चैत्र (पूर्णिमांत) कृष्ण पक्ष तृतीया को संवत्सर 1551 में हुआ। ग्रेगोरियन कैलेंडर में यह दिनांक 19 फरवरी, 1630 होती है। चूँकि छत्रपति शिवाजी महाराज का जीवन ‘स्व’ की स्थापना को समर्पित रहा, इसलिए सही अर्थों में उनकी जयंती भारतीय पंचाग के अनुसार मनायी जानी चाहिए। स्मरण रहे कि चारों ओर जब पराधीनता का गहन अंधकार छाया था, तब छत्रपति शिवाजी महाराज प्रखर सूर्य की भाँति हिन्दुस्तान के आसमान पर चमके थे। ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना करके उन्होंने वह करके दिखा दिया, जिसकी कल्पना करना भी उस समय कठिन था। शिवाजी महाराज ऐसे नायक हैं, जिन्होंने मुगलों और पुर्तगीज से लेकर अंग्रेजों तक, स्वराज्य के लिए युद्ध किया। भारत के बड़े भू-भाग को आक्रांताओं के चंगुल से मुक्त कराकर, वहाँ ‘स्वराज्य’ का विस्तार किया। जन-जन के मन में ‘स्वराज्य’ का भाव जगाकर शिवाजी महाराज ने समाज को आत्मदैन्य की परिस्थिति से बाहर निकाला। ‘स्वराज्य’ के प्रति समाज को जागृत करने के साथ ही उन्होंने ऐसे राज्य की नींव रखी, जो भारतीय जीवनमूल्यों से ओतप्रोत था। शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की व्यवस्थाएं खड़ी करते समय ‘स्व’ को उनके मूल में रखा। ‘स्व’ पर आधारित व्यवस्थाओं से वास्तविक ‘स्वराज्य’ को स्थापित किया जा सकता है।

छत्रपति शिवाजी महाराज का जीवन आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा ली जा सकती है। महाराज की जीवनयात्रा एवं उनके द्वारा स्थापित ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की संकल्पना का स्मरण वर्तमान परिस्थितियों में अत्यंत प्रासंगिक एवं प्रेरणास्पद है क्योंकि नया भारत भी अपनी पहचान ‘स्व’ के आधार पर बना रहा है। याद रखें कि छत्रपति शिवाजी महाराज राजसी वैभव को भोगने के लिए नहीं अपितु धर्म एवं संस्कृति के रक्षा हेतु ‘स्व’ आधारित राज्य की स्थापना की। उन्होंने ‘स्वराज्य’ का विचार दिया तो यह नहीं कहा कि यह मेरा मत है, मेरी अभिलाषा है, अपितु उन्होंने यह विश्वास जगाया कि ‘स्वराज्य की स्थापना श्री की इच्छा है’। स्वराज्य स्थापना के समय अष्टप्रधान मंडल की रचना, फारसी और अरबी भाषा के शब्दों को हटाकर संस्कृतनिष्ठ एवं मराठी शब्दों के प्रचलन पर जोर देते हुए ‘राज्य व्यवहार कोश’ का निर्माण, कालगणना हेतु श्रीराजाभिषेक शक का प्रारम्भ, संस्कृत राजमुद्रा का उपयोग, प्रशासनिक व्यवस्था, कृषि एवं श्रम सुधार, सामाजिक उत्थान, न्याय व्यवस्था, तकनीक और विज्ञान में भी ‘स्व’ के आधार पर नवाचारों को प्रधानता देकर छत्रपति शिवाजी महाराज ने ‘स्वराज्य’ के आदर्श को प्रतिपादित किया।

महाराज को भारतीय नौसेना का पितामह कहा जाता है। उन्होंने समुद्री सीमाओं का महत्व समझा और भारत की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर नौसेना का विकास किया। स्वदेशी नौकाएं विकसित की। प्रारंभ में पुर्तगाली, फ्रांस और ब्रिटेन के नौसेना अधिकारियों ने शिवाजी महाराज के निर्देशन में तैयार लड़ाकू नौकाओं/जहाजों का उपहास उड़ाया लेकिन जब उन्हीं ‘संगमेश्वरी’ जहाजों ने समुद्र में लड़े गए युद्धों में पुर्तगीज और ब्रिटेन की नौसेना के विशालकाय जहाजों को खारे पानी में गोते लगावा दिए। सेना में तोपखाने के महत्व को समझकर उन्होंने स्वदेशी तोपे तैयार करायी। यानी जो कुछ भी स्वराज्य को शक्ति सम्पन्न और समृद्ध बनाने के लिए आवश्यकता था, उसको न केवल उन्होंने स्वीकार किया अपितु उसको स्वदेशी आधार पर विकसित किया। तकनीक और कौशल के लिए कभी वे बाह्य ताकतों पर आश्रित नहीं रहे।

              भारतीय संस्कृति एवं इतिहास में रुचि रखनेवाले युवाओं को छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन का अध्ययन करने के साथ ही उनके द्वारा स्थापित किलों का दर्शन करने के लिए भी समय निकालना चाहिए। हिन्दवी स्वराज्य का एक-एक दुर्ग आपको ‘स्वराज्य’ की कहानी सुनाएगा। दुर्गों के दीवारों एवं बुर्जों से केवल साहस और पराक्रम की कहानियां सुनने को ही नहीं मिलेंगी अपितु अनुशासन, पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण, समर्पण, देशभक्ति, निष्ठा और कल्याणकारी राज्य के अनूठे किस्से भी जानने को मिलेंगे।

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