शिकागो संभाषण – भारत के विश्वगुरु बनने का मार्ग

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प्रवीण गुणगानी

स्वामी विवेकानंद जी ने भारत को व भारतत्व को कितना आत्मसात कर लिया था, यह कविवर रविन्द्रनाथ टैगोर के इस कथन से समझा जा सकता है – “यदि आप भारत को समझना चाहते हैं तो स्वामी विवेकानंद को संपूर्णतः पढ़ लीजिये”. नोबेल सम्मानित फ्रांसीसी लेखक रोमां रोलां ने स्वामी जी के विषय में कहा था – “उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है वे जहाँ भी गयेसर्वप्रथम ही रहे”. हमारें इस देश में देव स्वरुप जन्में स्वामी  विवेकानंद एक ऐसे विद्वान्संतचिन्तक व अद्भुत पुरुष  हुए हैं जिन्हें हर दृष्टि से केवल और केवल चमत्कारिक देव पुरुष ही कहा जा सकता है. 1893 में  शिकागो में आयोजित धर्मसभा में जब यह तेजस्वी विचारक बोलनें उठा तो वहां उपस्थित विश्व भर का प्रबुद्ध और संत समुदाय उनकें एक एक शब्द को सुनकर जैसे जड़वत होता चला गया और उन्हें श्रद्धाभाव और भक्तिभाव से सुनते रहनें के लिए मजबूर हो गया था. यह एक सर्व विदित गौरव गाथा है जो प्रत्येक भारतीय सगर्व बोलता सुनता है.

आज कल बहुधा नहीं बल्कि सदैव ही यह कहा जानें लगा है कि शासन और प्रशासन को धर्मसंस्कृति और परम्पराओं के सन्दर्भों में धर्म निरपेक्ष होकर विचार और निर्णय करनें चाहिए. यहाँ पर यह प्रश्न बड़ा यक्ष प्रश्न बन कर उभरता है कि धर्म निरपेक्षता आखिर है किस चिड़िया का नामआज हमारें देश के तथा कथित बुद्धिजीवी और प्रगतिशील कहलानें वाला वर्ग धर्म निरपेक्षता के जो मायनें निकाल रहा है क्या वह सही हैक्या धर्म निरपेक्षता शब्द के जो अर्थ चलन में उतार दिए गएँ हैं वे रत्ती मात्र भी प्रासंगिक और उचित हैं?? इस वैचारिक सन्दर्भ में भारत में जो  अर्थशास्त्र का बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा सिद्धांत लागू है वह संभवतः दुर्योग से विश्व में एक हमारें यहाँ ही सांस्कृतिक जीवन में भी लागू हो रहा है!! अर्थशास्त्र में मुद्रा सिद्धांत है कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को प्रचलन से बाहर कर देती है.” यह सिद्धांत भारत की वैचारिक परिधि में लागू हो गया लगता है!!! आज हमें देखनें में आ रहा है कि जहाँ पाश्चात्य विश्व के बुरे- खारिज कर दिए विचारफैशन शैलीपरम्पराएं और पद्दतियां जो हमारी पीढ़ी को अच्छी लग रहीं हैं वहीँ भारतीय -हिन्दू जीवन शैली को पश्चिमी देश बेधड़क और तेजी अपनाते चले जा रहें हैं. वर्तमान में हमें इस पीड़ादायक तथ्य को स्वीकार करना होगा कि भारत की वैचारिक दुनिया में जिस प्रकार बुरे विचारों ने अच्छे विचारों को प्रचलन से बाहर कर दिया है या करते जा रहा है तब स्वामी जी के विचारों का प्रकाश ही हमें इस षड्यंत्र पूर्वक बना दिए गए कुचक्र से बाहर निकाल सकता है. स्वामी जी ने जब शिकागो में अपनें विचारों को व्यक्त करते हुए कहा था कि ” राष्ट्र वाद का मूल धर्म व संस्कृति के विचारों में ही बसता है” तब सम्पूर्ण पाश्चात्य विश्व ने उनकें इस विचार से सहमति व्यक्त की थी और भारत के इस युग पुरुष के इस विचार को अपनें अपनें देशों में जाकर प्रचारित और प्रसारित किया था और भारतीय संस्कृति के प्रति सम्मान प्रकट किया था. पिछले दिनों क्रिसमस के अवसर पर जब ब्रिटिश प्रधानमन्त्री ने कहा कि ब्रिटेन एक इसाई राष्ट्र है और इसे कहनें में किसी को कोई भय या संकोच नहीं होना चाहिए” तब निश्चित ही उनकी इस घोषणा की पृष्ठ भूमि में विवेकानंद जी का यह विचार ही था. कितने आश्चर्य का विषय है कि आज जब समूचा विश्व धर्म निरपेक्षता के शब्दार्थों को विवेकानंद जी के विचारों में खोज और पा रहा है हम उनकें एतिहासिक शिकागो संभाषण को और उनकें समूचे जीवन वृत्त को याद ही नहीं कर रहें हैं!! इस संभाषण में उन्होंने गौरव पूर्वक कहा था कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और हिन्दू जीवन शैली के साथ जीवन यापन करना ही इस आर्यावर्त का एक मात्र विकास मार्ग रहा है और भविष्य में विकास करनें की और एक आत्म निष्ठ समाज के रूप में अस्तित्व बनाएं रखनें में यही एक मात्र मन्त्र ही सिद्ध और सफल रहेगा. स्वामी जी ने अपनें एतिहासिक व्याख्यान में कहा था कि भारत के विश्व गुरु के स्थान पर स्थापित होनें का एक मात्र कारण यहाँ के वेदउपनिषदग्रन्थ और लिखित अलिखित करोड़ों आख्यान और गाथाएँ ही रहीं हैं. अपनी बात को विस्तार देतें हुए उन्होंने कहा था कि जिस भारत को विश्व सोने की चिड़ियाँ के रूप में पहचानता है उसकी समृद्धि और ऐश्वर्य का आधार हिन्दू आध्यामिकता में निहित है. आज यदि हम इस तथ्य को प्रामाणिकता की कसौटी पर परखें तो हमें निश्चित ही यह भान होगा कि भारत के प्राचीन विचार में निहित गुरुकुलविज्ञानं निष्ठ त्यौहारआयुर्वेदआयुर्विज्ञानअन्तिरिक्ष विज्ञानकाल गणनाअणु विज्ञानअर्थशास्त्रनीति शास्त्र आदि के सहारे यदि हमारा समाज चलता रहता तो आज हमारी विकास गति और विश्व में हमारा स्थान कुछ और ही होता. चरकआर्यभट्ट,चाणक्यधन्वन्तरी आदि न जानें कितनें सौ ऐसे भारतीय वैज्ञानिकोंचिंतकोंविचारकोंअविष्कारकों के नाम गिनाएं जा सकतें हैं जिनका ध्यान स्वामी विवेकानंद के मानस में हिन्दू भारत” या हिन्दू जीवन शैली” कहते हुए रहता होगा. शिकागो संभाषण के समय स्वामी जी के मष्तिष्क में यह भी रहा ही होगा कि – भारत पर विदेशी आक्रमणों का इतिहास जितना पुराना और व्यापक है उतना विश्व में अन्यत्र दूसरा कोई उदाहरण नहीं है. इन में कुछ अत्यंत बर्बर खूरेंजी शकोंहूणोंचंगेजोंमंगोलोंअरबोंतोर्मानोयवनोंतुर्कोंअफगानोंपठानोंमुगलों,यूरोपियनों और खासकर अंग्रेज संगठित सैन्य आक्रान्ताओं ने यहाँ के तत्कालीन बेहतरीन सामाजिकआर्थिकसांस्कृतिकसाहित्यिककृषि,भोजनशिक्षा  और प्रशासनिक ताने-बाने को ध्वस्त कर उनके अपने अनुरूप सामाजिकशैक्षणिकआर्थिकराजनैतिक और व्यापारिक मूल्य स्थापित किये जो उनके लिये वरदान थे और भारत के लिये अभी तक अभिशाप हैं बनें हुए हैं.          स्वामी जी के विचारों से प्रभावित होकर जब पाश्चात्य देशों का नेतृत्व उनकें यहाँ कोई नीति बनाता है तब हम बड़े गौरान्वित होतें हैं किन्तु आज यह समीक्षा

          इस देश का आम नागरिक चाहता है की इस भूमि के मूल सांस्कृतिक विचारों का यहाँ प्रभाव व प्रभुत्व हो किन्तु इस देश की समकालीन परिस्थितियाँ इतनी भयावह और गंभीर है कि ऐसा सोचना भी यहाँ एक बड़े  बवंडर को जन्म दे सकता है. सम्पूर्ण विश्व में भारत ही एक मात्र ऐसा राष्ट्र है जहां बहुसंख्यक समाज को अपने विचारोंमान्यताओं और परम्पराओं के पालन और रक्षण के लिए भी उन्हें धर्म निरपेक्ष न होनें का ताना सुनना पड़ता है और उन्हें वैचारिक पिछड़ा कहनें वाले लोग तथाकथित रूप से इस देश के नेतृत्व में या नेतृत्व को प्रभावित करनें वाली बैठकों में बैठे नजर आतें हैं. विवेकानंद जी के विचारों का प्रवाह और उनकी निरंतर सतत समीक्षा वह कक्षा है जहां से इस राष्ट्र को समग्र विकास और सांस्कृतिक अक्षय के साथ सोने की चिड़िया और विश्व गुरु बनानें वालें स्नातक निकल सकतें हैंहमें इस सर्वकालीन तथ्य और ब्रह्म सत्य को पहचानना होगा.

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