सेनाध्यक्ष की चिटठी से उठा बवाल

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प्रमोद भार्गव

सैन्य सुरक्षा से जुड़ा जो क्षेत्र वीरता अनुशासन और कत्र्तव्यनिष्ठा के कारण सम्मानजनक चर्चा में रहता है, वह आंतरिक कमजोरियों और गैरजिम्मेदाराना बयान तथा चिटठियों के सार्वजनिक होने की वजह से चर्चा में है। 12 मार्च 2012 को प्रधानमंत्री को भेजी जो चिटठी मीडिया में लीक हुर्इ है, उसके तारतम्य में हम यह आशंका जता सकते हैं कि थल सेनाध्यक्ष के जन्मतिथि विवाद में उन्हें मिली मात के हीनताबोध से जुड़ी यह करतूत अथवा कलाबाजी है। लेकिन इस चिटठी के पहले भी एक चिटठी प्रधानमंत्री को लिखी गर्इ थी। 4 अक्टूबर 2011 को सेना की ओर से लिखे इस खत में पड़ोसी चीन और पाकिस्तान से बराबर मिल रही चुनौतियों का आगाह करते हुए लिखा है कि जंग के लिए आरक्षित कोटे के कुछ हथियार खत्म होने के कगार पर हैं। सेना ने उल्लेख किया है कि हथियारों का भण्डार इतना कम हो गया है कि 66 हजार तोपों में इस्तेमाल होने वाले गोलों और कुछ राकेट लान्चर जैसे हथियारों की तत्काल जरूरत है। करीब पांच माह पहले लिखी इस चिटठी में की गर्इ हथियारों की मांगे पूरी हुर्इ ? जाहिर है नहीं। तो फिर इस चिटठी को लेकर ज्वार क्यों उठ रहा है ? क्योंकि सेनाध्यक्ष और सरकार से जुड़े बयानों और विवादों के बीच यह चिटठी मीडिया के लिए ‘सनसनी का पैकेज लेकर एकाएक प्रगट हो गर्इ। दरअसल इस ताजा चिटठी को जन्मतिथि और घूस की पेशकश से जुड़े विवादों की बजाए हथियारों की कमी के जो तथ्य चिटठी मे दर्ज हैं, उस परिपे्रक्ष्य में देखने की जरूरत है।

दरअसल केंद्र की जो सप्रंग सरकार है उसकी प्राथमिकता में राष्ट्र की सुरक्षा, सीमा पर मिल रही चुनौतियां और बढ़ता आंतक व माओवाद है ही नहीं ? उसकी पहली चिंता उदारवादी नीतियां, बाजार और विकास दर है। इनकी उन्नति व प्रगति बदस्तूर रहे इस हेतु वह गठबंधन को चुनौती देने वाले हरेक राजनीतिक आतंकवाद के समक्ष शरणागत होती दिखार्इ देती है। ममता बनर्जी के दबाव में मंत्री का बदला जाना, जे जयललिता और सप्रंग के प्रमुख सहयोगी करूणानिधि के दबाव में यूएनएचआरसी में अमेरिका की ओर से श्रीलंका के खिलाफ लाए गए प्रस्ताव का समर्थन और पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजोआणा की फांसी पर अमल को टालना। ये हाल ही में घटे ऐसे मामले हैं जो असिमतावादी राजनीति की चरम संकीर्णता के उदाहरण हैं।

दरअसल केंद्र सरकार सरहद से जुड़े सामरिक मसलों और देश में जड़ें गहरी करते जा रहे आंतरिक आतंवाद के मददेनजर ज्यादा गंभीर अपने दोनों ही कार्यकालों में नहीं दिखी। वह घटना के बाद ज्वार उतर जाने का इंतजार करती है और जब ज्वार थम जाता है तो शुतुरमुर्ग की प्रकृति का अनुसरण करती हुर्इ रेत में सिर गढ़ाकर स्वयं को तो सुरक्षित मान ही लेती है, देश की भी सुरक्षा का भ्रम पाल लेती है। लिहाजा प्रधानमंत्री को लिखी पांच पन्नों की चिटठी में सेना के जिस खस्ता हाल का खुलासा है, वह बेवजह नहीं है। उसके वास्तविक होने के आधार हैं। हालांकि बोफोर्स तोप घोटाला उजागर होने के बाद रक्षा विभाग में कर्इ स्तरों पर हथियारों की गुणवत्ता परखने और खरीद में पारदर्शिता लाए जाने के उपाय बरते गए हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हथियारों के खेल के खिलाड़ी इतने कलाबाज हैं कि वे निर्धारित सभी कसौटियों पर खरा उतरकर चुनौतियों से पार पा जाते हैं। इसीलिए तहलका द्वारा रक्षा क्षेत्र में जारी भ्रष्टाचार संबंधी दृश्य-समाचारों का फिल्माना संभव हुआ। भाजपा के बंगारू लक्ष्मण चपेट में आए। कारगिल के शहीदों के लिए ताबूतों की खरीद में तबके रक्षामंत्री जार्ज फर्णाडिश पर अंगुली उठी और वर्तमान थल सेनाध्यक्ष ने तो घटिया वाहन खरीद के लिए चौदह करोड़ की रिश्वत दिए जाने की पेशकश के वार्तालाप को ही सड़क पर ला दिया। इसमें आश्चर्य यह रहा कि दलाल की भूमिका में भरतीय सेना के ही सेवानिवृत्त अधिकारी तेजेन्द्र सिंह थे। घूस की पेशकश के दौरान यह भी कहा गया कि आपके पहले भी लेन-देन का यह कारोबार चलता रहा है और आगे भी चलता रहेगा। प्रकरण में हैरानी में डालने वाला नया तथ्य यह भी है कि हथियार और अन्य सैनिक सामान बेचने वाली टेट्रा ट्रक जैसी कंपनियां बिचौलियों के रूप में सेना में रहे लोगों को ही इस्तेमाल करने लगी हैं। सेना से सेवानिवृत्त जैसे लोग दलाली जैसा गैरकानूनी कार्य करने लग जाएं, तब उनसे कैसे उम्मीद की जा सकती है उन्होंने अपने कार्यकाल में पद की गरिमा और गोपनीयता से खिलवाड़ न किया होगा ? यह स्थिति देश की राष्ट्रीय सुरक्षा और सेना की आंतरिक वस्तुस्थिति के लिए भी बड़ी चुनौती है।

ऐसे ही कतिपय कारणों के चलते रक्षा खरीदों को लगातार टाला जा रहा है। 2004 से अब तक सप्रंग सरकार कोर्इ बड़ी खरीद करने की इच्छाशकित नहीं दिखा पार्इ है। सेना के वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा सुकना भूमि घोटाला और आदर्श सोसायाटी में कारगिल शहीदों की विधवाओं तक के घर हड़पने के मामले सामने आने के कारण रक्षा मंत्रालय भ्रष्टाचार के भय से इतना आशंकित व त्रस्त है कि वह हथियारों की हर बड़ी खरीद की संभावनाओं में छेद देखने लगा है। इसी क्रम में हथियार और सैनिक साजो-सामान निर्यात करने वाली इजराइल की एक कंपनी समेत रक्षा मंत्रालय ने कर्इ देशी-विदेशी कंपनियों को मार्च 2012 में काली सूची के हवाले कर दिया है।

दुशिचंताओं के ऐसे घटातोप में यदि चिटठी के जरिए यह खुलासा हो रहा है कि सेना के सभी दस्तों के पास पर्याप्त गोला-बारूद नहीं है। हवार्इ सुरक्षा में इस्तेमाल होने वाले 97 प्रतिशत हथियार और तकनीकी उपकरण बेमियादी हो चुके हैं। पैदल सेना के पास खतरनाक स्थिति तक हथियारों की कमी है और टैंक विरोधी प्रक्षेपास्त्र (मिसाइल) की उत्पादन क्षमता में कमी आने के कारण जरूरत के अनुपात में अभाव है, तो इस हकीकत से सहमत होने की जरूरत है, न कि असहमत होकर नकारने की ?

12 मार्च 2012 का जो पत्र सार्वजनिक हुआ है, उसके क्रम में यह कहा जा सकता है कि पत्र लिखने की बजाय सेनाध्यक्ष को खामियों की जानकारी सीधे प्रधानमंत्री और रक्षामंत्री को दी जानी चाहिए थी, जिससे देश की आंतरिक कमजोरी पर पर्दा पड़ा रहता। लेकिन प्रधानमंत्री को जो पत्र पांच माह पहले, 4 अक्टूबर 2011 को इन्ही जरूरतों की आपूर्ति के लिए लिखा गया था, उसे प्रधानमंत्री ने गंभीरता से क्यों नहीं लिया ? क्यों नहीं रक्षामंत्री के साथ तीनों सेनाध्यक्षों को आहुत कर हथियार खरीदने का रास्ता साफ किया ? यही नहीं सेना की तैयारियों की खामियां इन पत्रों से ही नहीं रक्षा मंत्री एके एंटोनी और रक्षा राज्यमंत्री एमएम पल्लम राजू के विरोधाभासी बयानों से भी सामने आर्इ हैं। एंटनी ने चिटठी के खुलासे के बाद कहा कि ‘सैन्य तैयारियों में कोर्इ कमी नहीं है और देश पूरी तरह सुरक्षित है। सेना के आधुनिकीकरण के लिए सरकार प्रतिबद्ध है। दूसरी तरफ रक्षा राज्यमंत्री राजू का कहना है कि ‘सेना की क्षमता में कमी है। साजो-सामान खरीदी प्रक्रिया को तेज कर इसे पारदर्शी बनाकर अंतर को पटाने का प्रयास कर रहे हैं। इन विरोधाभासी बयानों से तय होता है कि जब मंत्रालय के दो मंत्रियों के बयानों में ही तालमेल नहीं है तो सेनाध्यक्षों के स्तर पर तालमेल की गुंजाइश कैसे की जा सकती है ? वित्तीय साल 2011-12 के अंतिम चरण में भी जब हम खरीद की कोर्इ पारदर्शी कार्यप्रणाली सुनिशिचत नहीं कर पाए तब हम कैसे कह सकते हैं सेना के साजो-सामन की आपूर्ति तो हो ही जाएगी, आधुनिकीकरण भी हो जाएगा ? बहरहाल सीमार्इ सुरक्षा की चुनौतियों से निपटने की गंभीर सामूहिक कार्यप्रणाली को अमल में लाकर तुरंत हथियारों की आपूर्ति जरूरी है, जिससे रक्षा संबंधी चुनौतियों से सेना तो चितामुक्त हो ही, जनता भी राहत की सांस ले।

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