समाज

बालकों की मानसिक संस्कार प्रक्रिया

brainचीनी कहावत:
“बाल-मानस एक कोरा पत्र  होता है, जो भी बालक के जीवन (सम्पर्क) में आता है, इस पत्र पर अपनी छाप (संस्कार)छोड जाता है।”  —चीनी कहावत।
(एक)
 संस्कार क्या है?
। दुबारा जब वर्षा हुयी, तो पानी के बहाव से नाली थोडी चौडी और गहरी हुयी। और बार बार की ऐसी वर्षा,  नाली को, गहरी और चौडी करती चली गयी। एक दिन वह छोटी-सी नाली नदी में परिवर्तित हो गयी।
और अब जब भी पर्बत पर वर्षा होती है. तो अधिकांश जल इस नदी में होकर ही बहता है। बालक के मन पर अंकित होते संस्कारों की प्रक्रिया ऐसी ही होती है। बार बार का व्यवहार उसके मन पर अंकित होता रहता है।और बालक ऐसे देखा-देखी, अनुकरण करते करते सीखते जाता है।
घर के वातावरण में, जो आचरण वह देखता है, जो भाषा प्रयोग सुनता है, माता-पिता और परिजनों का आचरण, पूजा-प्रार्थना, या उनका अभाव, अशिष्ट भाषा प्रयोग, धूम्रपान, मदिरापान, इत्यादि  बालक के  कोमल मन पर एक पानी की बहती नदी जैसा स्थायी  आलेख लिख देता है। जो सामान्यतः कभी मिटता नहीं।
(दो)
ज्ञानेंद्रियों द्वारा  बाह्य प्रभाव

पाँच ज्ञानेंद्रियों द्वारा बालक बाह्य प्रभाव झेलता  है। और ऐसे प्रभाव की स्मृति मनपर अंकित होकर संस्कार होते हैं। इन स्मृतियों के बल पर  ही आप बालक को , संस्कारित करते हैं। बार बार बहाव से जैसे नदी गहरी और चौडी होती है, उसी प्रकार बार बार के संस्कार भी गहरा प्रभाव छोडते हैं।
इस लिए, कैसी स्मृति गढी जाती है, यह बहुत महत्त्व रखता है। क्यों कि,  स्मृतियाँ ही संस्कार है।
ऐसी सभी (स्मृतियों ) संस्कारों का जोड (योग) मस्तिष्क में एक पुंज बन कर जम जाता है। जिसकी अभिव्यक्ति समय समय पर हुआ करती है, इसे ही  व्यक्तित्व कह सकते हैं।

(तीन)
दृष्टि की स्मृति अति प्रभावी:

निम्न पाँच प्रकार की स्मृति हो सकती है।
**** दृष्टि (आँख) द्वारा प्राप्त स्मृति,
****श्रवण (कान) द्वारा प्राप्त स्मृति,
****स्पर्श (त्वचा) द्वारा प्राप्त स्मृति,
****गंध (नाक) द्वारा प्राप्त स्मृति,
****स्वाद (जीभ) द्वारा प्राप्त स्मृति,
इन में सबसे अधिक (६०+ %  तक) दृष्टि की  स्मृति का योगदान होता है।

इस पर (Control) अंकुश पाने के लिए बालक दिनभर क्या देखता है, इस पर ध्यान  रखने का बडा दायित्व माता-पिता-शिक्षक  इत्यादि पर, और अन्य जो जो भी बालक के जीवन में आते हैं, उनपर है।

प्रौढ अवस्थामें भी, कहाँसे आँख हटा लेनी चाहिए, इस की जानकारी सुसंस्कृत घरों की पहचान है। क्यों कि, दृष्टि  देखनेवाले के अधीन होती है, और उसकी इच्छा से ही संचालित होती है। दृष्टि को आक्रामक माना जाता है। आँख किसीपर भी श्वेच्छासे दृष्टि डाल सकती है। कान (श्रवण) ग्राहक होते है, जो सुनाई दे उसपर सुननेवाले का नियंत्रण नहीं होता। श्रवण का स्रोत अधिकतर दूसरों के अधीन होता है। स्पर्श की अधीनता पर अंकुश लगाना कुछ सरल है। गंध भी क्वचित ही अंतर कर सकता है।उसी प्रकार स्वाद भी।
पर दृष्टि पर स्वयं अंकुश लगाना पडता है। ऐसा स्वयं पर स्वयंका अंकुश  संयम कहलाता है। संयम ही संस्कृति का लक्षण है। अच्छे संस्कार से ही यह संभव है। सुसंस्कृत समाज संयम से पहचाना जाएगा, कानून और दण्ड से ही नियंत्रित समाज हीन अवस्था का सूचक है।  एक, स्वयं की इच्छासे अनुशासित और दूसरा दण्ड के डर से अनुशासित। समाज में न्यूनाधिक मात्रा में दोनों प्रकार के लोग होते हैं।

(चार)
बालकों के विकास की पहली ३ अवस्थाएँ

बालकों का विकास-क्रम जानने से संस्कार करने में सुविधा होगी, अतः उसकी स्थूल जानकारी प्रस्तुत है।
(क)अनुकरण प्रधान शैशवावस्था,
(ख) मित्रों के  प्रभाव की अवस्था।
(ग)बौद्धिक विकास की अवस्था,

(क) शैशवावस्था, अनुकरण  प्रभाव की अवस्था:
(क) शैशवावस्था अनुकरण  प्रधान होती है। जन्म के बाद, जैसे ही कुछ समझ विकसित होती है, शिशु  ’देखा देखी’ सीखने लगता है। इस समय के संस्कार लगभग पूरे माता पिता के हाथ में होते हैं।आप माता-पिता-पालक अनुकरण के लिए जीते जागते आदर्श होते हो। आपका और परिजनों का, व्यवहार जो  बालक देखेगा वैसा  अनुकरण होगा।
माता-पिता-शिक्षक इत्यादि, संस्कार के लिए, इस अनुकरण की अवस्था का भरपूर लाभ उठा सकते हैं। अनुकरण को अधोरेखित कर ले।
और अनुकरण के लिए बालकों को सहज दिख जाए, ऐसी दैनिक क्रियाएँ करें।ऐसी कौनसी दैनिक क्रियाएँ चुनी जाए, यह, आपको राष्ट्र सेविका समिति की पुस्तकों में, और उनके जालस्थल पर भी मिल जाएगा।
https://www.balsanskar.com/hindi/lekh/18.html

दूरदर्शन के उचित कार्यक्रम का चुनाव-बालकों के साथ समय बिताना-उनकी पढायी एवं हस्तकौशल्य के प्रयोगों में साथ देना-वाचनालय, बाल संस्कार संस्थाओं में उन्हें भेजना-वार्षिक शिविर में भेजना-धार्मिक स्थलों पर भेंट देना-(आप अपनी अन्य सोच भी इस में जोड दें।)
यह  अनुकरण की शैशवावस्था: यह, प्रधानतः ’देखा देखी’ की अवस्था है। न्यूनाधिक मात्रा में, ऐसा अनुकरण जीवन भर चला करता है। और स्वतंत्र विचार करने की (अवस्था )क्षमता विकसित होने पर इसका प्रमाण घटता है; पर इसका अंत नहीं होता।

पाँच
(ख) मित्र प्रभाव की अवस्था।

(आयु ५-६ से आगे)  मित्रों के प्रभाव की  अवस्था, प्रारंभ होती है। अनुकरण चलता ही रहता है। उसमें मित्रों का प्रभाव (अनुकरण) भी जुड जाता है।
अच्छे मित्रों की संगत रखना-बुरे मित्रों से संबंध पक्के होने से पहले ही तोडना-पक्के होनेपर तोडना बहुत कठिन होता है-अच्छी स्वयंसेवी संस्थाओं में बालक को भेजना इत्यादि का विचार किया जाए।
यह मित्र-प्रभाव की अवस्था मित्रों की देखा देखी की ही होती है।बालक को मित्रों द्वारा स्वीकृति की इच्छा इसका कारण होती है। यह मैत्री की कीमत होती है। पर खेल कूद में मित्रता के लिए बालक ऐसी स्वीकृति कर लेता है।बुरी मैत्री से बालक को, अलग रखा जाए। यह माता पिता का दायित्व है।
मित्रता धीरे धीरे दृढ होती है।इस लिए बुरी मैत्री प्रारंभ में जब वह कच्ची होती है, काटी जा सकती है, दृढ होने पर कठिन होती है। इस अवस्था में बालक को किसी अच्छे संस्कार केंद्र में या संघ शाखा या बाल विकास भारती, आर्य समाज केंद्र इत्यादि आपकी रुचिकी संस्था में भेजा जाए। अमरिका में २०० तक हिन्दू स्वयंसेवक संघ की शाखाएँ लगती है।निम्न पते पर काफी जानकारी मिल जाएगी।  https://www.balagokulam.org/teach/shlokas.php  आंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति(u s a) बालकों के लिए हिन्दी के वर्ग भी चलाती है।काफी अन्य संस्थाएं भी इसी काम में लगी हुयी है।

छः

(ग) बुद्धि विकास की अवस्था

बुद्धिजन्य विचार की अवस्था का (१४-१५ से आगे) धीरे धीरे उदय होता है। पहली दो अवस्थाएं कुछ मंद पडती है, पर उनका अंत नहीं होता। ऐसी बुद्धिजन्य अवस्था का उदय होने पर, आगे की प्रगति बालक के स्वयं के हाथ में अधिक होती है। उसे मार्गदर्शन किया जाना चाहिए। इस समय सर्वाधिक अच्छा प्रभाव अच्छे अच्छे चरित्र पढने से होता है। मात्र कथा पढने का लाभ नहीं होता।
अच्छा उन्नतिकारक साहित्य पढना, गीता के चुने हुए श्लोक पाठ करना….ऐसे अनेक घटक हैं, जिसपर माता-पिता-शिक्षक इत्यादि अपने मार्गदर्शन से बहुत ही बडा योगदान कर सकते हैं।
(ग१) विशेष: यह बुद्धिजन्य विचार की क्षमता,पराई भाषा  अंग्रेज़ी के माध्यम से, पढाने पर बडी देरी से (७-से-१० वर्ष के विलम्बसे) होती है।
अंग्रेज़ी माध्यम में गणित का अध्ययन भी कच्चा पाया गया है।
साथ में बालक अंग्रेज़ी को ही बुद्धिमानी मानने की भूल कर बैठता है। उसको बौद्धिक प्रगति में भी मति-भ्रम होता है।
(ग२) इस अवस्थामें धीरे से लैंगिक आकर्षण का प्रभाव भी जुडने लगता है। ऐसा प्रभाव अंग्रेज़ी माध्यम की शालाओ में विशेष अपेक्षित है। इसी से, बालक भटक जाने पर विद्यार्जन से ध्यान घटता है। कुछ छात्र पढाईपर ध्यान केंद्रित बिलकुल नहीं कर पाते। फिर डेटिंग की प्रथा से भी अध्ययन दुर्लक्षित होता है। इस लिए, बुद्धिजन्य विचार विकास की की अवस्था(१४-१५ से आगे) इस समय अच्छी पुस्तकें पढने की आदत बालक को महत्त्वाकांक्षी बनाती है जिसे प्रोत्साहित किया जाए।  हमारी ब्रह्मचर्याश्रम के अनुशासन की और आश्रम व्यवस्था की जितनी सराहना की जाए, कम है। इसका कठोरता से पालन अनेक मित्रों की असामान्य सफलता में देखा जा सकता है। हमारे परम विवेकी पुरखों ने ऐसी आश्रमों की रचना कर हमें अतुल्य उपहार दिया है।

अच्छे विकास लक्षी मित्र चुनना। उन्नति के लिए,”आगे बढो”,  “Thoughts of Power – Vivekanand के विचार”, अब्दुल कलाम की छः पुस्तकें (१)अग्नि की उड़ान, (२)हमारे पथ प्रदर्शक,(३) तेजस्वी मन,(४) मेरे सपनों का भारत,(५) क्या है कलाम,(६) महाशक्ति भारत, इत्यादि ऐसी और भी पुस्तकें पढी जाएँ।

संस्कार के प्रभावक ३ अंग ध्यान में रखें।
बचपन से ही अनुकरण — ५-६ से आगे मित्रों का प्रभाव और १४-१५ के आगे स्वतंत्र बुद्धि का विकास।
कुछ अनुरोध के कारण, बिलकुल स्थूल रूप से विषय रखा है। 

सात:(प्रौढों की अवस्था)
आध्यात्मिक उन्नति की अवस्था का मात्र उल्लेख करता हूँ।।


इसके आगे की अवस्थाएँ भी देखी हैं। जो स्वतंत्र रूपसे विकसित होती है।
इस अवस्था का बालकों के संस्कारों से संबंध नहीं है।
ये आध्यात्मिक ज्ञान की अवस्था है। पूर्वजन्म के संस्कार भी काम करते हैं। हर व्यक्ति की एक मानसिक चलनी होती है, जिसके कारण वह व्यक्ति बाहरी दृश्य से अलग अलग प्रभाव ग्रहण करता है। इसका मात्र उल्लेख करता हूँ, मेरा इस अवस्था के विषय पर लिखने-बोलने का अधिकार नहीं है।

 

–डॉ. मधुसूदन