साहित्‍य

”छिनालवाद” को जन्म देने वाली ये साहित्यिक विभूतियाँ

-गिरीश पंकज

साहित्य में इन दिनों ” छिनालवाद” का सहसा नव-उदय हुआ है. इसके आविष्कर्ता है वर्धा के अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति विभूतिनारायण राय. यह ”छिनालवाद” इस वक्त सुर्ख़ियों में है और लम्बे समय तक रहेगा. साहित्य में चर्चित बने रहने के लिये कुछ हथकंडे अपनाये जाते हैं, ”नवछिनालवाद” इसी हथकंडे की उपज है. ”नया ज्ञानोदय” को दिए गए अपने साक्षात्कार में स्त्री लेखिकाओं के लिये जिस भाषा का प्रयोग किया है, उसके लिये अब उन्होंने माफी माँग ली है, लेकिन इसके बावजूद उनका अपराध अक्षम्य है. कुलपति पद पर बैठ कर भाषागत संयम जो शख्स न बरत सके, उसे पद पर बने रहने का नैतिक अधिकार नहीं है. लेकिन नैतिकता अब बहिष्कृत शब्द है. जिसके बारे में चर्चा करना ही बेमानी है. और वैसे भी यह देखा गया है, कि बहुत से लोग कुलपति बनाने के बाद नैतिक नहीं रहा पाते. पता नहीं यह पद के कारण है, या कोई और बात है. कुलपति होने का दंभ भी व्यक्ति को अनर्गल प्रलाप के लिये विवश कर देता है. अगर विभूतिनारायण ने लेखिकाओं के बारे में ”छिनाल” शब्द का उपयोग किया है, तो वह उनकी ”पदेन” कमजोरी भी है.”पद” पा कर आदमी ”मद” में भी तो आ जाता है. फिर उसे ध्यान ही नहीं रहता, कि वह बोल क्या रहा है.

कभी ”नया ज्ञानोदय” जैसी पत्रिका की अपनी गरिमा हुआ करती रही. लेकिन अब इसकी गरिमा गिरती जा रही है. कभी ”बेवफाई विशेषांक”, कभी ”सुपर बेवफाई विशेषांक” निकाला जा रहा है. हिंदी के नए तथाकथित ”सुपर” संपादक के संपादन में निकलने वाली पत्रिका के अगस्त अंक में विभूतिनारायण राय का साक्षात्कार छपा है. एक जगह उन्होंने कहा कि ”लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिये कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है.” किसी लेखिका का हवाला या संकेत दे कर अगर विभूतिनारायण राय अपनी बात कहते तो तो मामला शायद इतना गर्म नहीं होता. लेकिन उनका कथन तो समस्त लेखिकाओं पर चस्पा हो रहा है. (हद है, कि राय यह भी भूल गए, कि उनकी सगी पत्नी भी लेखिका हैं और जिस संपादक ने साक्षात्कार छपा है, उनकी पत्नी भी एक लेखिका हैं. अखबार या पत्रिका में क्या छप रहा है, यह देखना संपादक का ही काम होता है). स्वाभाविक है कि लेखिकाएँ भड़कती. राय को कुलपतिपद से हटाने की बात हो रही है. लेकिन नया ज्ञानोदय के संपादक की बात कोई नहीं कर रहा है. ‘नया ज्ञानोदय’ में साक्षात्कार छापने के लिये संपादक भी उतना ही दोषी है. ज्ञानपीठ पुरस्कार देने वाली संस्था द्वारा प्रकाशित पत्रिका के निरंतर पतन को साहित्य के पाठक देख रहे हैं. हिन्दी को नया ज्ञानोदय के संपादक ने कितना दरिद्र कर दिया है, वह इसी से समझ में आ जाता है, कि उन्हें ”सुपर” शब्द का इस्तेमाल करना पड़ता है. सुपर बेवफाई विशेषांक”. ऐसे समय में जब देश अनेक संकटों से घिरा हुआ है, एक साहित्यिक पत्रिका पहले प्रेम विशेषांक और बाद में बेवफाई विशेषांक निकालती है. एक अंक से आत्मा तृप्त नहीं होती तो महाविशेषांक निकालती है. ”महा” शायद कमजोर शब्द है. इसलिए संपादक ने ”सुपर” शब्द का उपयोग किया. जीवन में बेवफाई एक चरित्र है. लेकिन अब हमारे साहित्यकार, संपादक साहित्य के साथ भी बेवफाई कर रहे हैं. अपने समय के अन्य जीवंत सरोकारों से कट कर अन्य विषय उठाना अपराध है. जब रोम जले और नीरो बांसुरी बजाये तो उसका चरित्र समझा जासकता है. जब अपना देश हिंसा और साम्प्रदायिकता जैसे सवालों की आग से झुलस रहा है, तब एक पत्रिका प्रेम और बेवफाई मे डूब कर लेखिकाओं के चरित्र पर कीचड उछालने का काम कर रही है. लोग हैरत में है, कि ज्ञानपीठ जैसी संस्था में ऐसे असंगत, अनुपयोगी, कालातीत , गएगुजरे संपादक को बर्दाश्त कैसे किया जा रहा है? अगर लेखिकाओं को ”’छिनाल” कहने वाले कुलपति को हटाने की माँग हो रही है तो नया ज्ञानोदय” के संपादक को हटाने की माँग भी उठनी चाहिए थी. लेकिन लोगों को पता है,कि न कुलपति हटेंगे, न संपादक. इन दिनों शातिरो की जुगलबंदी सलामत रहती है.भले लोग बाहर कर दिए जाते हैं, और चालाक लोग डटे रहते है. जोड़तोड़ करके तथाकथित ऊंचे पदों तक पहुँचाने वालों की पकड़ भी तो मजबूत होती है.

सवाल यही है,कि ऊंचे पद पर बैठने वाले लोगों को क्या निम्नस्तरीय बातें करने का लाईसेंस भी मिल जाता है? यह स्वीकार किया जा सकता है, कुछ लेखिकाएं चर्चा में बनी रहने के लिये अश्लील लेखन कर रही है. उनका लेखन सबके सामने है. लेकिन ऐसी इक्का-दुक्का लेखिकाएँ ही है. अधिकाँश लेखिकाएं मूल्यपरक कहानियाँ लिख रही है. इन पर साहित्य को गर्व है. मलयाली में बल्मानी अम्मा थी, बांग्ला में आशापूर्णादेवी थी. हिन्दी में शिवानी जैसी कथालेखिका थी. अभी मालती जोशी हमारे बीच है. बांग्ला की महाश्वेता देवी भी है, जो नारी-विषयक सवालों को उठती रही है. अन्य कई नाम और हो सकते है. यहाँ नाम गिनना मकसद नहीं. मकसद यह है, कि अच्छी लेखिकाएँ भारी-पडी है, लेकिन उनका ज़िक्र न करते हुए यह सामान्यीकरण करते हुए समूची लेखिका-बिरादरी के लिये अभद्र शब्दों का उपयोग कर देना क्या एक पुरुष की ”छिनाल-प्रवृत्ति” नहीं है. औरतों के लिये ”छिनाल” शब्द है, तो इस पुरुष के लिये भी ”छिनाला” शब्द है, जिसका अर्थ होता है-”व्यभिचार”. एक कुलपति अगर घटिया शब्दों का इस्तेमाल करता है, तो वह एक तरह का ”व्यभिचार” ही करता है. और विभूतिनारायण राय तो अपने को लेखक भी कहतें है., वे हैं भी. लेकिन लेखक होने का मतलब यह तो नहीं, कि आप कुछ भी कहने के लिये स्वतन्त्र हैं? मर्यादा भी कोई चीज़ है. क्या समाज में कुछ ऐसी व्यवस्था हो गयी है, कि आदमी ऊंचे पद पर बैठ कर अनर्गल प्रलाप करने के लिये स्वतन्त्र है? क्या वह थूक कर चाटने का भी काम कर सकता है? सुबह गाली दी, और शाम को माफी माँग ली..? वाह, क्या चालाकी है? पद बना रहने के लिये अपनी ”थूक” को चाटने की अभिनव प्रविधि है यह तो. साहित्य और समाज में ऐसे विभूतिया कम नहीं हैं. लेकिन जो बात निकल गयी, तो निकल गयी. बात निकलती है तो दूर तलक जाती है. उसकी अनुगूंज देर तक रहती है. विभूतीनारायण राय का स्त्री-विरोधी कथन लम्बे समय तक चर्चा में बना रहेगा. जो लेखिकाएं उनके कथन से आहत हुई है, वे धरने पर बैठे, राष्ट्रविरोधी प्रदर्शनों का आयोजन करे, और यह आन्दोलन तब तक जारी रहे, जब तक राय अपने पद से इस्तीफा नहीं देते. कहीं तो कोई पश्चाताप नज़र आये..उम्मीद की जानी चाहिए, कि इस मुद्दे पर देशव्यापी आन्दोलन होगा.इसमे केवल लेखिकाएँ ही शरीक हों, यह ज़रूरी नहीं, सामाजिक संगठनों की महिलाएं भी शरीक हो सकती है. आखिर यह नारी अस्मिता से जुडा सवाल भी है. विभूति नारायण राय को भी आत्म-मंथन करना चाहिए. अगर वे अपने को लेखक कहते है, तो उन्हें भी अपना धर्म निभाना चाहिए. और फ़ौरन इस्तीफा दे देना चाहिए. वरना पुरुषों के लिये अब स्त्रियों को भी ”छिनाला’ शब्द का खुलकर इस्तेमाल करना चाहिए.