चीन के अनुकूल रही वार्ता

pmप्रमोद भार्गव

विश्व – भूगोल पर नए शक्ति-केंद्रों के रुप में उभर रहे भारत और चीन की वार्ता, आखिरकार चीन के पक्ष में जाती दिखार्इ दी। कटुता फैलाने वाले जो बुनियादी मुददे हैं, वे अनुत्तरित ही रहे। सीमा विवाद, घुसपैठ, स्टेपल वीजा और जल-विवाद यथावत ही रहेंगे। जिन आठ मुददों पर समझौते हुए हैं, उनमें सबसे अहम कृषि एवं खाध प्रसंस्करण प्राधिकरण के तहत, मांस, मत्स्य उत्पाद, चारा और चारा सामग्री और समुद्री उत्पादों को एक-दूसरे देशों में निर्यात को बढ़ावा देना है। इससे ज्यादा लाभ चीन को ही होने वाला है। इस समझौते के मार्फत भारत में अब तक का चीन का जो कारोबार 66 अरब डालर का है, वह बढ़कर 100 अरब डालर का हो जाएगा। जाहिर है, दोनों देश के बीच जो व्यापार असंतुलन 29 अरब डालर का है, चीन के हित में वह और बढ़ जाएगा। इस वार्ता में दक्षिणी चीन सागर के द्वापों का मसला, तिब्बत को लेकर चीन का रुख और भारत-चीन के बीच किसी नए समझौते की बात उठी ही नहीं। तकनीकी हस्तांतरण और ब्रहम्पुत्र नदी के बांधों में जलस्तर व प्रवाह की सूचना देना, जैसे समझौते भारत का व्यापक हित साधने वाले नहीं हैंं। चीनी प्रधानमंत्री ली केकियांग ने चाइनीज भाषा मंडरीन में बात करके न केवल अपनी भाषार्इ गरिमा को सुरक्षित रखा, बलिक अपने देश की जनता को भी बता दिया कि वे भारत से क्या समझौते कर रहे हैं।

चीनी प्रधानमंत्री ने ढार्इ हजार साल पुराने भारत चीन के सांस्कृतिक संबंधों के बहाने एक बार फिर हिंदी-चीनी भार्इ-भार्इ का राग अलाप कर अपने कारोबारी हित साध लिए। जबकि तनाव बढ़ाने वाले विवादित मुददों को विश्वास और सहयोग की वैसाखियों पर छोड़ भविष्य के लिए टाल दिया। हालांकि मनमोहन सिंह ने इतनी जरुर घुड़की दी कि सरहद पर तनाव बरकरार रखके, रिश्ते सुधारने की हर कोशिश बेकार जाएगी। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर यथास्थिति बनी रहेगी। हां, चीन ने इतना जरुर भरोसा जताया है कि सीमा प्रबंधन तंत्र में सुधार होगा। ताकि लददाख में चीनी घुसपैठ जैसी स्थिति की पुनरावृतित न हो। मालूम हो अप्रैल माह में चीनी सैनिकों ने भारतीय सीमा में 19 किमी भीतर घुसकर तंबू तान लिए थे। ये सैनिक दौलत बेग ओल्डी से तभी पीछे हटे, जब भारत ने चुमार क्षेत्र में सिथत अपने बंकर तोड़े। यहां स्थानीय चरवाहा जनजातियों की कुछ झोपडि़यां भी थीं, ये भी तोड़ दी गर्इं। ये चरवाहे अपनी भेड़-बकरियां इस क्षेत्र में चराया करते थे। इस विवादित क्षेत्र में भारतीय सैनिक की पेटोलिंग भी जारी रहती थी। ये सब हटे, तभी चीनी सेना वापिस हुर्इ। पुरानी स्थिति बहाल करने में चीनी प्रधानमंत्री तैयार नहीं हुए। जाहिर है, भारत को इस मुददे पर मुंह की खानी पड़ी है।

दूसरा बड़ा मुददा जल विवाद है। चीन ब्रहम्पुत्र नदी पर एक साथ तीन आलीशान बांधों का निर्माण कर रहा है। ब्रहम्पुत्र नदी भारत के असम और अन्य पूर्वोत्तर क्षेत्र की प्रमुख नदी है। करोड़ों लोगों की आजीविका इसी नदी पर निर्भर है। इन बांधों के निर्माण से भारत को यह आशंका बढ़ी है कि चीन ने कहीं पानी रोक दिया तो नदी सूख जाएगी और नदी से जुड़े लोगों की आजीविका संकट में पड़ जाएगी। एक आशंका यह भी बनी हुर्इ है कि चीन ने यदि बांधों से एक साथ ज्यादा पानी छोड़ा तो भारत में तबाही की स्थिति बन सकती है और कम छोड़ा तो सूखे की ? इस लिहाज से जो जलीय मामलों के विषेशज्ञ हैं, वे चाहते थे कि बांधों का निर्माण रोक दिया जाए। इस मुददे पर चीन बस इस बात के लिए राजी हुआ है कि मानसून के दौरान अपने हाइडोलाजिकल स्टेशनों के जल स्तर व जल प्रवाह की जानकारी दिन में दो बार देता रहेगा। तय है, शंकाएं बरकरार रहेंगी।

चीन पाक अधिकृत कश्मीरी नागरिकों व अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों को नत्थी वीजा देने का सिलसिला जारी रखेगा। जबकि भारत चाहता था कि नत्थी वीजा की सुविधा चीन खत्म करे। इस मुददे का हल निकालने के नजरिये से चीन केवल विशेष कार्यबल गठित करने को तैयार हुआ है। जािहर है, चीन का कड़ा रुख कायम है। चीन ने कैलाश मानसरोवर यात्रा पर जरुर नरम रुख अपनाया है। उसने लिखित समझौता किया है कि हर हाल में मर्इ से सितंबर के बीच यह यात्रा जारी रहेगी। चीन यात्रियों को और बेहतर सुविधाएं हासिल कराएगा। आगे से वायरलैस सेट और मोबाइल में सिम कार्डों की सुविधा भी यात्रियों को मिलेगी। जिससे वे जोखिम भरी इस यात्रा में परिजनों से सीधे संपर्क में रहे। यह मानवीय संवेदना से जुड़ी और हिन्दी चीनी भार्इ-भार्इ के रिश्ते को मजबूती देने वाली पहल है।

भारत-चीन वार्ता में सबसे प्रमुख समझौता कृषि एवं खाध प्रसंस्करण प्राधिकरण के तहत मांस, मत्स्य, चारा और समुद्री खाध उत्पादों से जुड़ा है। हालांकि ये उत्पाद दोनों ही देश एक-दूसरे को निर्यात करेंगे। लेकिन लाभ में चीन को ही ज्यादा रहेगा। क्योंकि चीन ने अपनी विषाल आबादी को कभी संकट नहीं माना। उसने इस आबादी को न केवल कृषि बल्कि डिब्बाबंद खाध सामग्री के निर्माण से भी जोड़ा। रोजगार व उचित प्रबंधन व्यवस्था का ही परिणाम है कि चीन ने संतुलित व समावेषी विकास के चलते करीब 60 करोड़ लोगों को गरीबी से छुटकारा दिलाया। यही वजह रही कि चीन आज दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश है। वह दुनिया के कुल उत्पादों का 50 फीसदी निर्माण खुद करता है और अमेरिका इन उत्पादों को खरीदने वाला सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है। चीन द्वारा खाध सामग्री के निर्माण और विक्रय प्रंबधन को देखते हुए लगता है, इनका निर्यात भारत में बड़ी मात्रा में होगा और जो लोग भारत में कृषि, मांस, मछली व अन्य समुद्री जीवों एवं पषुचारा से आजीविका चलाते हैं, उनकी आजीविका खतरे में पड़ सकती है। क्योंकि भारत में इन धंधों में लगे लोग अभी भी परंपरागत तरीके अपना रहे हैं। डिब्बाबंद खाध सामग्री के कारोबार से वे वंचित हैं। तय है चीन अपने 100 अरब डालर के कारोबारी लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा।

चीन के प्रधानमंत्री से भारतीय नेताओं को राष्ट्रीय स्वाभिमान की सीख लेने की जरुरत है। ली केकियांग ने अपनी पूरी बातचीत चीन की राष्ट्रीय भाषा मंडरीन में की। किंतु मनमोहन सिंह ने अंग्रेजी में बात की। ली केकियांग ने भारत में बैठे अपने देशवासियों को संदेश दे दिया कि वे क्या समझौते कर रहे हैं। लेकिन मनमोहन सिंह देश में रहते हुए भी यह संदेश देशवासियों को नहीं दे पाए कि वाकर्इ उन्होंने क्या बात की ? चीन से सबक लेने की जरुरत है कि दुनिया की महाशक्ति अपनी मातृभाषा में बात करके भी बना जा सकता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे राजनेताओं को देश की गरिमा का ख्याल ही नहीं रहता। बहरहाल चीन से द्विपक्षीय समस्याओं के हल संबंधी वार्ता में भारत की ओर से वैसी दृढ़ता दिखार्इ नहीं दी, जिसकी उम्मीद थी।

 

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  1. अपना मान स्वाभिमान,भूमि व अपना हक़ छोड़कर जब हम ही उनके पैरों में बिछे जाएँ तो क्या होगा.हमें ही अपनी सीमा में पीछे हटाकर,यहाँ समझोता करने आ गए,कर लिया वापस जा कर फिर छह किलोमीटर सड़क बना ली.और हम देखते रहे.अब हमारे विदेश मंत्री क्या कर रहें है.और रक्षामंत्रालय भी.हम खुद ही डर रहें हैं,तो वह सर पर चडेगा ही.अच्छे रिश्ते बनाने की जिम्मेदारी हमारी ही है,चाहे वह चीन हो या पाक वे कुछ भी करते रहें हम स्वीकार कर लेते हैं..कमजोर विदेश नीति कमजोर सरकार ही इसके लिए जिम्मेदार है.चीन पर वहां के पी ऍम के आने से पहले यदि आर्थिक सम्बन्ध तोड़ने की धमकी दी जाती,तो न तो हमें अपनी ही सीमा में पीछे हटना पड़ता,न अपनी महत्वपूर्ण चोव्की हटानी पड़ती , जिसके हटने से उस क्षेत्र में हमारी सामरिक इस्थ्ती कमजोर हुई होती.

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