स्वच्छ तन, स्वच्छ मन से बनता नया समाज

-अशोक “प्रवृद्ध”

दो अक्टूबर 2019 तक देश के हर परिवार को शौचालय सहित स्वच्छता-सुविधा उपलब्ध कराने, ठोस और द्रव अपशिष्ट निपटान व्यवस्था, गाँव में सफाई और सुरक्षित तथा पर्याप्त मात्रा में शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के उद्देश्य और भारत को पूर्ण स्वच्छ बनाने के लक्ष्य के साथ देश की राजधानी नई दिल्ली के राजघाट पर गत दो अक्टूबर 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी, तो ऐसा प्रचारित किया गया कि इस पूरे कालखंड में सम्पूर्ण विश्व की भांति भारत में भी मनुष्य के मल के निस्तारण की कोई उपयुक्त व्यवस्था कहीं नहीं थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आते ही स्वच्छता अभियान की शुरुआत करते हुए स्वयं सड़कों पर झाड़ू लेकर निकल पड़े। इसके बाद तो देशभर में नेताओं तथा अफसरों को अपना निर्धारित कार्य छोड़ झाड़ू लगाते देखा गया। एक बार तो ऐसा लगा कि अब सरकारी कार्यालयों में सफाई कर्मी , झाडूकश आदि पदों के लिए कार्य करने वालों की अब आवश्यकता ही नहीं रही। पूरे देश में इसकी व्यापक चर्चा हुई और इसकी सफलता और विफलता को लेकर काफी बहसें, वाद—विवाद, सम्मेलन व सेमिनार भी आयोजित की गई। परन्तु इस अभियान का एक सभ्यतामूलक एवं सांस्कृतिक आयाम भी है, जिसकी ओर लोगों ने ध्यान ही नहीं दिया। ऐसा नहीं कि विश्व के सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता वाले देश में स्वच्छता के सम्बन्ध में कोई पारम्परिक सोच नहीं हो। उल्लेखनीय है कि पूर्णतः सत्य, शुद्धता व जनकल्याण पर आधारित सनातन जीवन पद्धति पर चलने वाले हमारे देश में स्वच्छता की अपनी एक प्राचीन भारतीय परम्परा रही है। इस परम्परा के अनुरूप ही देश में स्वच्छता के लिए ऐसी व्यवस्थाएँ विकसित की गई थीं जो न केवल भारतीय समाज के अनुकूल थी, बल्कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लिये भी लाभकारी थी। लेकिन दुखद बात है कि स्वच्छता की इन प्राचीन और वैज्ञानिक भारतीय परम्परा को अपनाने के स्थान पर  उसके विपरीत सभी अभियान पाश्चात्य परम्परा के आधार पर संचालित किए जा रहे हैं। ऐसे में यह न केवल भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है, बल्कि अवैज्ञानिक और अंत में पूरे समाज व प्रकृति के लिये हानिकारक सिद्ध होगा।

 

पाश्चात्य पद्धति से शिक्षित लोगों का भारतीयों को मखौल उड़ाते हुए कहना है कि प्राचीन भारतीय अपनी अज्ञानता व निर्धनता के कारण खुले में शौच के लिए जाते थे, और सर्वत्र गन्दगी फैलाते थे। पाश्चात्य नवबौद्धिकों को यह बात हजम होनी थोड़ी कठिन है कि खुले में शौच जाना भी समझदारी का व्यवहार हो सकता है। कारण यह है कि नवबौद्धिकों के अनुसार मनुष्य का पूरा विकास विगत तीन चार सौ वर्षों में ही हुआ है और वह विकास यूरोप के दयालु, उदार, बुद्धिमान और विद्वान लोगों ने किया है। इसलिये उससे पहले और वहाँ से इतर दुनिया में जो कुछ भी था, वह निरी जहालत के सिवा और कुछ भी नहीं थी। लेकिन यह असत्य तथा पूर्णतः सत्य बात नहीं है।  और ऐसा वर्तमान इतिहास लेखकों के पूर्णतः पश्चिम के विद्वानों के आश्रय रह इतिहास लेखन के कारण हुआ है। सुखद बात यह है कि भारतीय पुरातन ग्रन्थों के समीचीन अध्ययन से यह भ्रम सरलता से दूर हो जाता है।

प्राचीन काल में भारतीयों का खुले में शौच जाना, कोई नासमझी भरा कदम नहीं था, और यह मजबूरी भी नहीं थी। भारत के लोगों को शौचालय बनाना न आता हो, ऐसा भी नहीं था, नगरों में जहाँ स्थान की कमी थी , वहाँ शौचालय थे। प्राचीन ग्रन्थों में तो प्रमाण स्वरूप इसके उल्लेख अंकित हैं ही, कई स्थान पर पुरातात्विक विभाग को इसके प्रमाण भी मिले हैं। परन्तु फिर भी हमारे पूर्वजों ने खेतों और जंगलों में शौच निवृति हेतु जाना स्वीकार किया तो इसके भी अलग कारण थे। खुले में शौच निवृति करना, खुले में स्नान करना परन्तु भोजन चौके के अंदर ग्रहण करना, यह प्राचीन भारतीय व्यवस्था का अंग था। लेकिन वर्तमान में ठीक इसके विपरीत आचरण किया जा रहा है। आज लोग शौच त्याग और स्नान तो बंद कमरे में कर रहे हैं, परन्तु खाना खुले में खा रहे हैं। इसका दुष्प्रभाव भारतीयों पर पड़ना तय है।

भारतीय जीवन शैली मानव श्रम प्रधान थी। इसमें मनुष्य के चारों ही अवस्थाओं अर्थात आश्रमों में परिश्रम की महिमा गाई गई है । जीवन में मानव श्रम प्रधान होने के कारण मानव की दिनचर्या सहज ही बन जाती है। भारतीय जीवन शैली की दिनचर्या में रात्रि में समय से सोना और प्रातः काल ब्रह्म मुहूर्त में जागना सहज ही शामिल था। ब्रह्ममुहुर्त का समय पूरे वर्ष भर मुँह अंधेरे ही शुरू होता है। तात्पर्य है कि अंधेरे में लज्जा का विषय नहीं उठता। ध्यातव्य यह भी है कि शौच का सम्बन्ध भोजन से है। मनुष्य जैसा भोजन करेगा, उसका वैसा शौच होगा। इसीलिए हमारे पूर्वजों ने भोजन के नियमन पर विशेष ध्यान देते हुए आहार-विहार के विशेष नियम बनाए जिससे मनुष्य स्वस्थ रहे और शौच हेतु उसे बार- बार जाना न पड़े । मैंने स्वयं गाँव में बड़े-बुजुर्गों से सुना है – एक बार जाए योगी, दो बार जाए भोगी और तीन बार या बार-बार जाए रोगी। इसका अर्थ है कि योगी अर्थात आहार-विहार के नियमों का पालन करने वाला व्यक्ति (गृहस्थ भी हो सकता है) तो प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में केवल एक बार ही शौच जाता है, भोगी व्यक्ति को सुबह और शाम को दो बार शौच जाना पड़ता है और रोगी व्यक्ति ही दो से अधिक बार शौच जाता है। ऐसे में बड़ी संख्या एक बार ही शौच निवृत्त हुआ करती थी और वह भी सवेरे-सवेरे मुँह अंधेरे।

 

 

भारत की पारम्परिक व्यवस्था उचित आहार-विहार और अति प्रातःकाल वनों या खेतों में शौच निवृत्ति की है। इसकी किसी भी कारण से निंदा या तिरस्कार नहीं किया जाना चाहिए। हाँ, इसके पूरक के रूप में शौचालयों की व्यवस्था अवश्य की जानी चाहिए। अभी तो इस समस्या के समाधान हेतु सरकारी स्तर पर बड़े पैमाने पर लोगों को अनुदान देकर शौचालय निर्माण कराये जा रहे हैं, परन्तु बाद में शौचालय और उनके टैंकों में भरे मलों का निस्तारण भी एक बड़ी समस्या ही साबित होने वाली है। विशेषकर गाँवों में जहाँ पीने का पानी भी दूर से भरकर लाना पड़ता है, शौचालय के लिये अलग से पानी की व्यवस्था करना और भी कठिन कार्य साबित होगा। ऐसे में पानी के अभाव में शौचालय ही रोग का घर बन जाएँगे। साथ ही यदि पूरे गाँव को शौचालय की आदत पड़ गई तो ये शौचालय पूरे गाँव का बोझ उठा नहीं पाएँगे। इसलिये इस व्यवस्था का उपयोग केवल पूरक के तौर पर किया जाना ही उचित होगा।

 

 

वैदिक जीवन पद्धति में धर्म का पांचवां लक्षण शौच को माना जाता है, प्राचीन धर्म ग्रन्थों में भी इस बात की पुष्टि की गई है कि शौच मानव धर्म है और मानव को इस धर्म का पालन शुद्धता व पवित्रता को ध्यान में रखकर करना ही उत्तम होगा । प्राचीन भारतीय इस तथ्य से भली –भांति परिचित थे कि स्वच्छ तन, स्वच्छ मन से ही बनता है नया समाज । इसीलिए योगाभ्यासियों के लिए बनाए गये नियमों में भी योगाभ्यासी के लिये दूसरी सीढ़ी नियम के पाँच लक्षणों में भी पहला लक्षण शौच ही माना गया है। इस प्रकार धर्म का पालन करना हो या फिर योग साधना द्वारा जीवन्मुक्ति पानी हो, भारतीय मनीषियों ने शौच यानी कि अंतः और बाह्य स्वच्छता को अत्यावश्यक माना है। इसलिए भारतीय परम्परा के अनुसार और धर्म के पाँचवें लक्षण शौच के पालन के प्रयास के रूप में स्वच्छता अभियान चलाना हितकारी सिद्ध होगा । भारतीयों ने प्राचीन काल से ही स्वच्छता और स्वास्थ्य को जोड़ कर देखा है और उसका पालन भी किया है। आज आवश्यकता है कि लोगों को उनके इसी सनातन धर्म की याद दिलाई जाए। उसके पालन के प्रति उन्हें जागरूक किया जाए। तभी यह स्वच्छता अभियान सफल हो सकता है।

 

 

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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