-ललित गर्ग-
सरकार से मुकदमेबाजी का बढ़ता प्रचलन एक समस्या बनता जारहा है। सरकार अपने स्तर पर अथवा संसद के जरिये जो भी फैसले ले रही हैं उनके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचनेे का अर्थ देश की न्याय व्यवस्था को बोझिल बनाने के साथ-साथ सरकार के शासन को बाधित करना है। इन विडम्बनापूर्ण स्थितियों का बढ़ना न तो सामान्य है और न ही देशहित में है। सरकार को प्रतिवादी बनाकर उन पर छोटे-छोटे प्रश्नों, कार्य-व्यवस्थाओं एवं निर्णयों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में मामलें दर्ज करना शुभ नहीं है। ऐसे मामलों की संख्या बढ़ना चिन्ताजनक तो है ही साथ ही राष्ट्रीय अस्मिता को धुंधलाने की कुचेष्टा भी है, जिन पर नियंत्रण जरूरी है।
विधि मंत्रालय के अनुसार जहां बीते वर्ष ऐसे मामलों की संख्या 4229 थी वहीं उसके एक वर्ष पहले इस तरह के मामले 3497 ही थे। विधि मंत्रालय ने इस संदर्भ में जीएसटी के साथ-साथ नोटबंदी सरीखे मामलों के उदाहरण भी दिए। यदि यह सिलसिला इसी तरह कायम रहा तो शासन करना और कठिन हो सकता है। विकास के कार्यक्रमों को लागू करने की बजाय सरकार इस तरह की मुकदमेबाजी में ही उलझी रहेगी, जो विकसित होते राष्ट्र के लिये गंभीर स्थिति है। यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट को सरकार के फैसलों और यहां तक कि संसद द्वारा पारित किए गए कानूनों की समीक्षा करने का अधिकार है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सुप्रीम कोर्ट हर फैसले की समीक्षा करने बैठ जाए। दुर्भाग्य से पिछले कुछ समय से ऐसा ही हो रहा है। स्थिति यह है कि विधेयकों के रूप-स्वरूप को लेकर भी याचिकाएं दायर होने लगी हैं। ऐसा लग रहा है कि सरकार की कार्यप्र्रणाली, उसके द्वारा लिये गये निर्णय एवं नीतियों के खिलाफ जंग की- एक नई संस्कृति पनप रही हैं। एक नई किस्म की वाग्मिता पनपी है जो किन्हीं शाश्वत मूल्यों एवं बुनियादी प्रश्नों पर नहीं बल्कि भटकाव के कल्पित आदर्शों पर आधारित है। हर छोटी-छोटी बातों पर जनहित याचिकाओं के माध्यम से अपने को लोकप्रिय बनाने की मानसिकता कैसे जायज हो सकती है? जिसमें सभी नायक बनना चाहते हैं, पात्र कोई नहीं। भला ऐसी सोच किस के हित में होगी? सब अपना बना रहे हैं, सबका कुछ नहीं। और उन्माद की इस प्रक्रिया में एकता की संस्कृति एवं विकास की प्रक्रिया का नाम सुनते ही एक याचिका दायर करने को जी मचल उठते हैं। बहस वे नहीं कर सकते, इसलिए वे याचिका दायर करते हैं। राष्ट्रीयता, संवाद की संस्कृति एवं स्वस्थ चर्चा के प्रति असहिष्णुता की यह चरम सीमा है।
यह विडम्बनापूर्ण एवं विरोधाभास ही कहा जायेगा कि इस क्रम में लोकसभा अध्यक्ष के अधिकार को भी चुनौती दी जा रही है। आम तौर पर इस तरह की चुनौती जनहित याचिकाओं के नाम पर दी जाती है। इसमें कहीं कोई दो राय नहीं कि जनहित याचिकाओं ने न्याय को एक गरिमा प्रदान की है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि संकीर्ण इरादों एवं स्वार्थों के तहत भी जनहित याचिकाएं दाखिल होने लगी हैं। ऐसी याचिकाओं का एक मकसद सरकार के काम में अड़ंगा लगाना एवं निर्णय को बाधित करना ही होता है। किस्म-किस्म की जनहित याचिकाएं दायर करने वाले तत्व किस कदर सक्रिय हो गए हैं, इसका पता इससे चलता है कि हाल ही के चर्चित बैंक में घोटाले के सामने आते ही इस बात को लेकर एक याचिका पेश कर दी गई कि इस मामले की जांच इस-इस तरह से होनी चाहिए। यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की कि ऐसी याचिकाएं दायर करना प्रचार पाने का जरिया बन गया है। इस बात को महसूस करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग पर चिंता जताई है। उसने गतदिनों कहा था कि जनहित के नाम पर लोकप्रियता पाने और राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए इस व्यवस्था का दुरुपयोग किया जा रहा है, इसलिए इस पर पुनर्विचार की जरूरत है। आखिर सुप्रीम कोर्ट को इस तरह की बात कहने की जरूरत क्यों पड़ी, यह एक अहम् सवाल है। इस व्यवस्था को सम्मान देकर ही हम इसकी उपयोगिता कायम रख सकेंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिकाओं यानी पीआइएल के दुरुपयोग पर तीखी टिप्पणी करते हुए एक याचिकाकर्ता पर एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है। न्यायाधीश पहले भी इस पर अनेक बार पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं और इस बारे में विस्तृत नियम भी हैं, फिर भी पीआइएल का दुरुपयोग क्यों नहीं रुक पा रहा है? इस सन्दर्भ में सरकार के खिलाफ दायर होने वाली याचिकाओं की सुनवाई करने के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की ओर से यह तर्क दिया जाता है कि विधायिका अथवा कार्यपालिका अपना काम सही तरह नहीं करेगी तो किसी को तो हस्तक्षेप करना होगा। सवाल यह है कि क्या विधायिका अथवा कार्यपालिका इसी तर्क का सहारा लेकर सुप्रीम कोर्ट के मामलों में हस्तक्षेप कर सकती है? व्यवस्था अव्यवस्था से श्रेष्ठ होती है, पर व्यवस्था कभी आदर्श नहीं होती। आदर्श स्थिति वह है जहां व्यवस्था की आवश्यकता ही न पड़े और किसी के काम में किसी को हस्तक्षेप ही नहीं करना पडे़।
कभी-कभी लगता है संसद एवं कार्यपालिका की जिम्मेदारी भी न्यायपालिका ही निभाती है। इन स्थितियों के बावजूद लगता है जनहित याचिकाएं प्रचार, प्रतिशोध और राजनैतिक स्वार्थ सिद्धि का हथियार बन रही है। आधारहीन और स्वार्थप्रेरित जनहित याचिकाओं की बाढ़ आ रही है, जो अदालतों के लिए समस्या बन गई हैं। इसीलिये सुप्रीम कोर्ट पहले भी इस संबंध में चेतावनी दे चुका है और पुनः उसने यही चेतावनी दोहरायी है। यह विडंबना है कि हमारे देश में जो भी व्यवस्था कमजोर वर्ग के हित में बनाई जाती है उसे बड़ी चालाकी से प्रभुत्वसंपन्न तबका हथिया लेता है और उसका इस्तेमाल अपने लिए करने लगता है।
जनहित याचिका की संस्कृति की जगह संवाद की संस्कृति बने तो समाधान के दरवाजे खुल सकते हैं। दिल भी खुल सकते हैं। लेकिन जरूरतमंद लोगों की बजाय इस व्यवस्था का भी राजनीतिकरण होने से यह वरदान बनी व्यवस्था अब अभिशाप बनने लगी है। यदि सरकार का हर फैसला सुप्रीम कोर्ट पहुंचने लगेगा तो इससे न केवल आवश्यक महत्व के मसलों पर अनिश्चितता व्याप्त होगी, अनावश्यक विलम्ब होगा, बल्कि ऐसे लोगों को बल भी मिलेगा जिनका काम ही अड़ंगे लगाना है। बेहतर हो कि सुप्रीम कोर्ट हर मामले की समीक्षा करने की प्रवृत्ति पर पुनर्विचार करे।
भले ही अदालत ने जनहित याचिकाओं को प्रोत्साहित किया और इनके जरिए कुछ मसले सुलझाए गए, कुछ लोगों को शोषण से मुक्ति मिली। एक आशा की किरण बन कर ये जनहित याचिकाएं सामने आई, लेकिन इनके माध्यम से व्यापक सामाजिक-आर्थिक बदलाव का काम न हो सका बल्कि ये सरकार के कामों में अडंगा लगाने या अवरोधक के रूप में सामने आ रही है, जिन पर गंभीरता से चिन्तन जरूरी है। एक तबके के लिए यह अवसरवादिता के रूप लाभकारी सौदा भी बन गयी। इसलिये जो लोग इस अधिकार के जरिए सामाजिक परिवर्तन एवं शासन में पारदर्शिता की लड़ाई लड़ना चाहते हैं, उन्हें काफी सतर्क रहना होगा, आदर्श प्रस्तुत करना होगा और इसके दुरुपयोग को रोकना होगा। ध्यान रहे कि लंबित मुकदमों का बोझ बढ़ता ही चला जा रहा है। एक ओर जहां यह जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट अपनी लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखे वहीं दूसरी ओर सरकार को भी यह देखने की आवश्यकता है कि ऐसे मामलों की संख्या भी क्यों बढ़ रही है जिसमें वह स्वयं मुकदमेबाजी में उलझी हुई है, यह आत्ममंथन उसे भी करना होगा।