कविता

रंगीन पतंगें

अच्‍छी लगती थीं वो सब रंगीन पतंगें

काली नीली पीली भूरी लाल पतंगें

कुछ सजी हुई सी मेलों में

कुछ टंगी हुई बाज़ारों में

कुछ फंसी हुई सी तारों में

कुछ उलझी नीम की डालों में

उस नील गगन की छाओं में

सावन की मस्‍त बहारों में

कुछ कटी हुई कुछ लुटी हुई

पर थीं सब अपने गांव में

अच्‍छी लगती थीं वो सब रंगीन पतंगें

काली नीली पीली भूरी लाल पतंगें

था शौक मुझे जो उड़ने का

आकाश को जा छू लेने का

सारी दुनिया में फिरने का

हर काम नया कर लेने का

अपने आंगन में उड़ने का

ऊपर से सबको दिखने का

फिर उड़ कर घर आ जाने का

दादी को गले लगाने का

कैसी अच्‍छी होती थीं बेफ़िक्र उमंगें

अच्‍छी लगती थीं वो सब रंगीन पतंगें

काली नीली पीली भूरी लाल पतंगें

अब बसने नये नगर आया

सब रिश्‍ते नाते छोड आया

उडने की चाहत में रहकर

लगता है मैं कुछ खो आया

दिल कहता है मैं उड जाऊं

बनकर फिर से रंगीन पतंग

कटना है तो फिर कट जाऊं

बन कर फिर से रंगीन पतंग

लुटना है तो फिर लुट जाऊं

बन कर फिर से रंगीन पतंग

आकाश में ही फिर छुप जाऊं

बन कर फिर से रंगीन पतंग

पर गिरूं उसी आंगन में

और मिलूं उसी ही मिट्टी में

जिसमें सपनों को देखा था

जिसमें बचपन को खोया था

जिसमें मैं खेला करता था

जिसमें मैं दौड़ा करता था

जिसमें मैं गाया करता था सुरदार तरंगें

जिसमें दिखती थीं मेरी ख़ुशहाल उमंगें

जिसमें सजतीं थीं मेरी रंगदार पतंगें

काली नीली पीली भूरी लाल पतंगें

हां, अच्‍छी लगती थीं वो सब रंगीन पतंगें

काली नीली पीली भूरी लाल पतंगें

-अब्‍बास रज़ा अल्‍वी