हिमकर श्याम
राजनीति संभावनाओं का खेल है, यहां कुछ भी असंभव नहीं. सियासत में कुछ भी स्थायी नहीं होता. यही उसका स्वभाव है. न दोस्ती, न दुश्मनी. पांच साल पहले भाजपा और जदयू मिलकर चुनाव लड़े और प्रचंड बहुमत से जीते भी. दोनों का एजेंडा एक था. दूसरी तरफ लालू और रामविलास थे. कांग्रेस अकेले दम मैदान में उतरी थी. एक-दूसरे के साथी-सहयोगी रहे राजनीतिक दल और नेता इस बार उलट भूमिकाओं में नजर आ रहे हैं. अलग-अलग खेमें में एक-दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं और जो कभी घूर विरोधी थे वे अब सहयोगी की भूमिका में आ गए हैं. वोटों को लेकर कोई भी दल या गठबंधन आश्वस्त नहीं लगता. गठबंधन की राजनीति ज़रूरत और मजबूरी बन गई है.
बिहार के चुनाव में जाति, धर्म, और साम्प्रदायिकता का समीकरण ऐसा है कि कोई भी दल अकेले चुनावी समर में उतरने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. प्रायः सभी दल किसी न किसी के सहारे चुनावी मैदान में हैं. पुराने राजनीतिक समीकरण टूट रहे हैं और नए राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं. दो प्रमुख गठबंधन मुख्य रूप से चुनाव में आमने-सामने होंगे. पहला भाजपा के नेतृत्व वाला राजग जिसमें रामविलास पासवान की लोजपा और जदयू से बगावत करने वाले उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और जीतनराम मांझी की हिन्दुस्तानी आवाज़ मोर्चा शामिल है, दूसरा जदयू के नेतृत्व वाला राजद और कांग्रेस का महागठबंधन. इसके अलावा छह वामदलों ने संयुक्त रूप से चुनावी मैदान में उतरने का ऐलान किया है, मुलायम की अगुवाई में एक नया मोर्चा भी चुनावी समर में होगा. इस मोर्चे का नाम है समाजवादी सेक्युलर फ़्रंट. इस मोर्चे में एसपी, राकांपा, पप्पू यादव की पार्टी जनाधिकार मोर्चा, देवेंद्र यादव की समाजवादी जनता पार्टी, नागमणि की समरस समाजवादी पार्टी और पी.ए. संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी शामिल हैं. इस मोर्चे का नेतृत्व राकांपा के सांसद व महासचिव तारिक अनवर करेंगे. इस बीच बिहार के कद्दावर नेता एवं राजद के पूर्व उपाध्यक्ष रघुनाथ झा और बिहार विधान परिषद के सदस्य जदयू के नेता मुन्ना सिंह भी अपनी-अपनी पार्टियां छोड़कर सपा में शामिल हो गए हैं. इन गठबंधनों की लड़ाई के बीच ओवैसी की पार्टी ने बिहार के सीमांचल क्षेत्रों के मुस्लिम बहुल जिलों में विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुनावी जंग को दिलचस्प बना दिया है. सपा की अगुवाई वाले मोर्चे और ओवैसी को राजनीतिक विश्लेषक भाजपा के ट्रम्प कार्ड के रूप में देख रहे हैं. यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि ओवैसी की पार्टी आईएमआई और तीसरा मोर्चा, महागठबंधन के वोट बैंक (यादव-मुसलमान) में ही सेंध लगाएगा.
फिलहाल चारों गठबंधन सीटों का बंटवारा कर चुके हैं. महागठबंधन में शामिल आरजेडी और जदयू जहाँ 101-101 सीट पर, वहीं कांग्रेस 41 सीटों पर अपने-अपने प्रत्याशी उतारेगी. दूसरी तरफ राजग में शामिल भाजपा 160 सीटों पर चुनाव लड़ेगी जबकि 83 सीटों पर सहयोगी दल भाग्य आजमाएंगे. लोजपा को 40 सीटें मिलीं तो रालोसपा को 23 और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा को 20 सीटें. छह वामदलों के संयुक्त मोर्चे ने प्रदेश की 243 में से 221 सीटों पर तालमेल की घोषणा कर दी है. सीपीआई 91, सीपीआईएम 38, सीपीआईएमएल 78, एसयूसीआईसी 6, फारवर्ड ब्लॉक 5 और आरएसपी 3 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. कुछ सीटों पर दोस्ताना संघर्ष होगा. समाजवादी सेक्युलर फ़्रंट सभी सीटें पर अपना उम्मीदवार उतारेगा. एसपी 85, एनसीपी 40, जन अधिकार पार्टी 64, समरस समाजवादी पार्टी 28, समाजवादी जनता पार्टी 23 और नेशनल पीपुल्स पार्टी 3 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. यह मोर्चा दरअसल असंतुष्टों का मोर्चा है, जो ‘वोट कटुआ’ की भूमिका में होगा. जो खुद के जीतने के लिए नहीं बल्कि किसी और को हराने और किसी और की जीत में मददगार साबित होने का काम करेगा. अपने खोये जनाधार को पाने की जुगत में वाम दलों को एकजुट होना पड़ा है. कभी बिहार विधानसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी की हैसियत रखने वाली वामपंथी पार्टियों की पकड़ चुनाव दर चुनाव ढीली होती गई. वाम दलों का बिहार में 50 से अधिक सीटों पर प्रभाव माना जाता है. गौरतलब है कि वामदलों, सेक्युलर फ़्रंट और महागठबंधन का सामाजिक आधार एक ही है.
हर चुनाव नया चुनाव होता है. वह नई परिस्थितियों और नए समीकरणों के बीच लड़ा जाता है. बिहार का फ़ैसला देश के राजनीतिक वातावरण को मापने का पैमाना भी बनेगा. 15 महीने पहले नरेंद्र मोदी की लहर में इस राज्य के बहुचर्चित जातीय समीकरणों की जड़ें उखड़ गई थीं. मोदी को रोकने के लिए जदयू और राजद ने अपनी दो दशक पुरानी दुश्मनी भुलाकर हाथ मिलाना पड़ा है. राजग और महागठबंधन के बीच कांटे की टक्कर होने का अनुमान है. नीतीश कुमार महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. नीतीश कुमार सुशासन और विकास पुरुष के रूप में अपनी छवि को ही आगे रखकर चुनाव लड़ना चाहते हैं, वहीं भाजपा मोदी को ही चेहरा बनाकर बिहार की जंग में उतर रही है. बिहार भाजपा में कोई सर्वमान्य चेहरा नहीं है जिसे मुख्यमंत्री के रूप में सामने रखा जा सके. जो भी बड़े चेहरे हैं वह सभी जातियों में मान्य नही हैं, चाहे वह सुशील मोदी हों, रविशंकर प्रसाद हों, शाहनवाज़ हों या सीपी ठाकुर. वैसे भीतर ही भीतर एनडीए में मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए कई लोग ताल ठोक रहे हैं. ज्यादातर दावेदार खुद भारतीय जनता पार्टी के अंदर के हैं. एनडीए में शामिल जीतनराम मांझी अनुकूल स्थितियां देखते ही मुख्यमंत्री बनने की अपनी पुरानी ख्वाहिश को पूरा करने के लिए आवाज़ बुलंद कर सकते हैं. लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास भी मुख्यमंत्री बनने के सपने पाल रहे हैं. रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा ने तो मुख्यमंत्री बनने की अपनी मंशा जाहिर भी कर दी है. कभी चुनावों में भाजपा के स्टार प्रचारक रहे शत्रुघ्न सिन्हा भी मुख्यमंत्री बनने के ख़्वाहिशमन्दों में शामिल है. यह अलग बात है कि पार्टी उन्हें तरजीह नहीं दे रही है. उन्हें प्रचार कार्य से भी दूर रखा गया है. चुनाव के नतीजे अगर राजग के पक्ष में आये तो मुख्यमंत्री का चुनाव भाजपा के लिए बड़ा सरदर्द साबित होगा.
राजग को सीट बंटवारे को लेकर ही लगभग एक सप्ताह से ज्यादा माथापच्ची करनी पड़ी थी. सीटों की गुत्थी सुलझाने के बाद राजग में टिकट बँटवारे को लेकर समस्या खड़ी हो गई है. टिकट नहीं मिलने से नाराज भाजपा के दो विधायकों ने बगावती रुख अपना लिया और सीएम नीतीश कुमार से मुलाकात भी की है. उधर, सीट बंटवारे से नाराज राजग की सहयोगी लोजपा के एक सांसद ने पार्टी के पदों से इस्तीफा दे दिया है. भाजपा के लिए सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि हर वर्ग के वोट बटोरने की कोशिश में जुटी है. सबको साधने के चक्कर में कहीं ख़ुद का जनाधार न खिसक जाये. टिकट को लेकर घमासान महागठबंधन के दलों में भी है.
महागठबंधन की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती. दो नए मोर्चो के मैदान में आने से धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर मतदाताओं के मत बंट सकते है और इसका फायदा राजग को मिल सकता है. महागठबंधन के प्रमुख घटक राजद में सबकुछ ठीक नहीं है. राजद के लिए आसन्न चुनाव ‘करो या मरो’ की जंग है. लालू को यादव वोट खिसकने का डर है. पिछले कुछ चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन आशा के अनुकूल नहीं रहा. लालू पर पार्टी से ज्यादा परिवारवाद को बढ़ाने के आरोप भी लगे. लालू के रवैये के कारण पार्टी के वरिष्ठ नेता पार्टी छोड़ कर जा रहे हैं, जो हैं वह नाख़ुश हैं, उनकी बात नहीं सुनी जा रही. लोकसभा चुनाव के पहले टिकट बंटवारे से नाख़ुश राम कृपाल यादव ने भाजपा का दामन थामा था, वह लालू की बेटी मीसा भारती को हराकर सांसद बने थे. राजद से अलग हुए नेताओं का मानना है कि राजद प्रमुख ने सहयोगियों और आम लोगों की कीमत पर परिवार की ओर ध्यान दिया और अपनी ऐसी स्थिति खुद ही बनायी. उल्लेखनीय है कि 2010 में संपन्न विधानसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है और 243 सदस्यीय विधानसभा में उसे सिर्फ 22 सीटें मिली थी, जबकि उसके पूर्व विधानसभा में उसके 54 सदस्य थे. लालू ने न सिर्फ अपने सहयोगियों को छोड़ दिया बल्कि बिहार की आम जनता के भरोसे को भी तोड़ा जिन्होंने 15 साल तक उन पर विश्वास किया.
नीतीश कुमार साल 2005 में जब मुख्यमंत्री बने, तब बिहार देश का सबसे खराब प्रशासन वाला राज्य था. कानून व व्यवस्था की मशीनरी पूरी तरह ध्वस्त थी. हत्या और अपहरण आम था. प्रशासनिक कुशलता के बदौलत नीतीश जंगल राज को सुराज में बदलने में सफल रहे हैं. इसमें कोई शक नहीं कि नीतीश के कार्यकाल में बिहार की छवि बदली है. विकास के कार्य दिख भी रहे है. उनपर भ्रष्टाचार का कोई गंभीर आरोप नहीं लगा है. लालू के साथ आने से मतदाता ऊहापोह की स्थिति में है. बिहार के विकास के लिए नीतीश कुमार ने अब तक जो परिश्रम किया है, उस पर कहीं पानी न फिर जाये.
फिलहाल, दोनों मुख्य गठबंधनों के सामने कई चुनौतियां हैं. महागठबंधन के सामने मोदी विरोधी वोटों का बंटवारा रोकने तथा अपने वोट एक दूसरे को ट्रांसफर करने की कठिन चुनौती है, तो बीजेपी के लिए भी बिहार की राह आसान नहीं नजर आ रही. दलों के बेमेल गठबंधन से मतदाता असमंजस में है. लोकतंत्र में हर चुनाव महत्वपूर्ण होता है, लेकिन बिहार के दोनों गठबंधनों के लिए इस चुनाव के खास मायने हैं. इससे सिर्फ बिहार की भावी सत्ता का स्वरूप ही नहीं तय होगा, इसके नतीजे देश के भावी राजनीतिक समीकरण का भविष्य भी तय करेंगे.