आपदा में मानव जीवन को मदद पहुंचाते समय भेदभाव मानवता के खिलाफ अपराध

लेखक के व्यंग्‍य लेख “रजनीकांत बर्खास्त:रजनीकांत का कार्यभार नरेंद्र को सौंपा गया” पर आई टिप्‍पणियों का जवाब… 

अरुण कान्त शुक्ला

vadrinathप्रवक्ता पर मेरे व्यंग्‍य लेख “रजनीकांत बर्खास्त:रजनीकांत का कार्यभार नरेंद्र को सौंपा गया” पर अभी तक 31 प्रतिक्रियाएं आ चुकी हैं| मैं सर्वोत्कृष्ट विचार व्यक्त करने के लिए बहस में शामिल हुए सभी महानुभावों का ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ, जिनके प्रयासों से मुझे यह दूसरा लेख, व्यंग्‍य नहीं, लिखने का अवसर मिल रहा है| मैं चाहता तो प्रत्येक कमेन्ट पर जबाब दे सकता था किन्तु वैसा करने में एक तो दोहराव बहुत ज्यादा होता और अनेक बार मैंने देखा है कि कमेन्ट पर जबाब देते समय अच्छे से अच्छे लेखक की भी लेखन शैली कमेन्ट करने वाले विद्वान के समान हो जाती है और कमेन्ट के जबाबों से जाती रुझानों की बू आने लगती है| इसलिए मैंने उस तरीके को नहीं अपनाना ही ज्यादा उत्तम समझा| मैं आदरणीय श्री आर.सिंह जी का विशेष आभार प्रकट करना चाहता हूँ, जिन्होंने ढाल बनकर प्रतिक्रियाओं की धार कम करने का भरपूर प्रयास किया| उनके प्रयास को मिली असफलता के लिए मुझे अत्यंत खेद है और उन्हें प्राप्त हुए ज्ञान के लिए हार्दिक खुशी कि उन्हें पता चल गया कि;

“ऐसा क्यों है कि मोदी समर्थक अपनी सब मर्यादाएँ ताक पर रख आए हैं? क्या वे चाहते हैं कि मोदी के विरुद्ध कोई आवाज़ न उठाए? यह बहुत ख़तरनाक प्रवृत्ति है, और तानाशाही को जन्म देती है.”

बस उनसे क्षमा माँगते हुए, मैं उनसे अनुरोध करना चाहता हूँ की कुछ लोगों की मित्रता, जिनका जिक्र उन्होंने किया है, एवं उनके संस्कारों को वे अपवाद स्वरूप ही लें, बाकी पूरा ढेर (अंगरेजी में कहते हैं कि लॉट) उन्हें वैसा ही मिलेगा, जैसा उन्हें अनुभव हुआ है| संस्कार भूलकर बाजरुपण कोई सवाल ही नहीं है, संस्कार ही बाजरुपण के दिए जाते हैं| मुझे पूरी चर्चा में “इंसान” के दर्शन हुए, मैं कृतज्ञ हूँ, यदि अपना नाम (छद्म भी चल सकता है) लिखने की परिपाटी जरुरी नहीं होती तो कमेन्ट से पता चलना मुश्किल था कि कमेन्ट किसी इंसान ने किया है?

मैं आदरणीय शिवेंद्र मोहन सिंह जी का भी ह्रदय से आभारी हूँ, जिनके सुरुचिपूर्ण और साहित्यिक भाषा में दी गयी प्रतिक्रिया ने मेरी सहनशीलता को और मजबूत बनाया|

बहरहाल, व्यंग्‍य  का पूरा तानाबाना एक छोटे से बिंदु के आसपास बुना जाता है| बहस के केंद्र में रहे व्यंग्‍य का मूल इन पंक्तियों में छिपा है;

“बताया जाता है कि उनके हाथ में एक दूरबीन थी, जिसका प्रयोग करते हुए उन्होंने केवल गुजरातियों को चिन्हित किया और उन्हें ही बचाया| विज्ञप्ति में बताया गया है कि जब ईश्वर को पता चला कि नरेन्द्र ने केवल गुजरातियों को बचाया है तो ईश्वर बहुत नाराज हुए और नरेंद्र को याद दिलाया की अब उनका स्तर राष्ट्रीय है और उन्हें संकीर्णवाद से बचना चाहिए|”

उत्तराखंड की त्रासदी के दो पहलू हैं| पहला यह कि देश में पूर्व में आये सुनामी, भूकंप, तीर्थस्थानों पर मची भगदड़, की तुलना में यह एक राष्ट्रीय त्रासदी थी की इसमें देश के हर कोने से आये लोग पीड़ित थे| दूसरा पहलू यह है कि इस त्रासदी की देश स्तर की व्यापकता ने देश के प्रत्येक व्यक्ति और संस्था (सरकार सहित) का ध्यान इस और से पूरी तरह भटका दिया कि उत्तराखंड में वहां के निवासी भी हैं और उन्हें भी सहायता और राहत की जरूरत है| यह काम अब लगभग 13 दिनों के बाद जाकर प्रारंभिक स्तर पर शुरू हुआ है| अब एक व्यक्ति देश स्तर कि राजनीति में और वो भी आलोचनात्मक राजनीति में हिस्सा लेता है तो उसकी दूरबीन(सोच) उसी स्तर की होनी चाहिए| कोई भी मानवीय आपदा का प्रबंधन कुछ मानवीय मूल्यों के आधार पर होता है मतलब उस प्रयास को तटस्थ भाव से, पक्षपात रहित विचार से, स्वतन्त्र और मानवीय मूल्यों पर किया जाना चाहिए| यह काम बहुत हद तक अनेक राज्य सरकारों ने किया| इसमें टीडीपी और कांग्रेस के दो नेताओं की लड़ाई भी बाद में जुड़ गयी| इसमें कोई शक नहीं की मोदी ने अपने प्रचार के लिए बहुत अच्छे तंत्र को विकसित कर लिया है| पर, उसी तंत्र ने जिस तरह उनके दौरे को प्रचारित किया, उससे ईश्वर(संघ परिवार) भी उनसे नाराज हुआ और फिर उन्हें तुरंत ही उस मसले पर बोलना बंद करना पड़ा|

इस सबसे इतर, किसी भी राज्य सरकार ने किसी को भी बचाने में कोई तीर नहीं मारे हैं| उत्तराखंड जाने का कोई मार्ग नहीं था और हवाई मार्ग से भी लोगों को तभी बचाया जा सकता था, जब उसके लिए विशेषज्ञ पायलट हों और ये सिर्फ सेना के पास थे| सभी राज्य सरकार ने केवल इतना किया कि सेना ने जिन लोगों को आपदाग्रस्त क्षेत्र से निकाल कर लाया, उन्हें अपने अपने राज्यों में पहुंचाया| मैं इस काम की भी अहमियत को कम नहीं करना चाहता, पर, उसके लिए स्वयं को स्पाईडरमेन जैसे प्रचारित करवाने की जरुरत नहीं थी|

वैसे भारत में मरे हुए शेर की पीठ पर पाँव रखकर फोटो खिंचवाने की परंपरा बहुत पुरानी है| जो धर्माचार्य, संत पूरी आपदा के दौरान गायब थे, अब केदार बाबा की पूजा के लिए छटपटा रहे हैं| वहां मृत्यु को प्राप्त हुए, बेघरबार हुए लोगों के प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं दिख रही है और न ही वे उसके लिए चिंतित दिख रहे हैं| मोदी का व्यवहार इससे अलग कहाँ है? उन्होंने भी केदार मंदिर को बनाने की मंशा जताई| इसमें मनुष्यता कहाँ प्रकट होती है? केदारनाथ और अन्य जगह के लोगों के लिए घर बनाने या वहां सड़क या पुल बनाने की बात उन्होंने नहीं की| यह मरे हुए शेर पर पाँव रखकर फोटो खिंचवाने से अलग है क्या?

अब मुझे कोई धर्म समझाने की कोशिश तो न करे| जिसने किसी भी धर्मशास्त्र का अध्यन नहीं किया है, और ईश्वर में यदि विश्वास रखता है तो वो भी इतनी बात तो जानता है कि पाप और पापियों दोनों का नाश करने के लिए ईश्वर को भी मनुष्य का अवतार ही लेना पड़ा और ईश्वर ने ऐसा मनुष्यता को बचाने के लिए ही किया| अब मनुष्यता को ताक पर रखकर आप किस मंदिर का निर्माण करेंगे और कौन से ईश्वर की अर्चना करेंगे, ये आप ही बेहतर जानेंगे| यूं और भी बहुत सी बातें कही जा सकती हैं, पर, अंत मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि जैसे शेर की खाल ओढ़ लेने से कोई भेड़िया शेर नहीं हो जाता, वैसे ही भेड़ की खाल ओड़ लेने से कोई भेड़िया भेड़ नहीं हो जाता|

आपदा में मानव जीवन को जीवित रहने और सुरक्षा के लिए मदद की जरुरत होती है और उसमें मदद पहुंचाते समय किसी भी प्रकार का भेदभाव मानवता के खिलाफ अपराध की श्रेणी में ही आयेगा| एक बार पुनः सभी प्रतिक्रिया देने वाले आदरणीय महानुभावों का साधुवाद और धन्यवाद|

Previous articleराजेन्‍द्र यादव, सलमा और माओवाद
Next articleनज़रों से गिर जाते हैं टाईमपास और कामटालू लोग
अरुण कान्त शुक्ला
भारतीय जीवन बीमा निगम से सेवानिवृत्त। ट्रेड यूनियन में तीन दशक से अधिक कार्य करता रहा। अध्ययन व लेखन में रुचि। रायपुर से प्रकाशित स्थानीय दैनिक अख़बारों में नियमित लेखन। सामाजिक कार्यों में रुचि। सामाजिक एवं नागरिक संस्थाओं में कार्यरत। जागरण जंक्शन में दबंग आवाज़ के नाम से अपना स्वयं का ब्लॉग। कार्ल मार्क्स से प्रभावित। प्रिय कोट " नदी के बहाव के साथ तो शव भी दूर तक तेज़ी के साथ बह जाता है , इसका अर्थ यह तो नहीं होता कि शव एक अच्छा तैराक है।"

6 COMMENTS

  1. (१)प्राप्त जानकारी के अधारपर लिखता हूं, कि कोई भेद भाव नहीं हुआ था।
    सभी को सहायता दी गयी थी।
    (२)१५००० की संख्या भी टाईम्स की उपजाई थी।
    वापस गुजरातियों को ही लाया अवष्य था। किसी और को गुजरात कैसे लाते?
    पर सहायता सभीको की गयी थी।
    (३) —संघ तो सभीको सहायता, अहिंदुओंको भी, करता है।
    (३)कांग्रेस ने उकसाई हुयी भ्रश्टाचारी मिडीया की झूठी चालें थी।
    थोडा समय और बाट देखिये –चूहे जहाज छोड कर भागेंगे।
    —लेखक को सच्चाई लिखनी चाहिए।

  2. जो कुछ करेगा,— वही गलती करेगा।
    (१) कुछ भी न करनेवाले सारे अन्य प्रदेश मु. मंत्री शुक्ला जी की दृष्टि में क्या कैसे हैं?

    भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं।
    “—कर्म ज्यायेत ह्यकर्मणाः॥”

    अर्थात–अकर्म से कर्म बडा है।
    पर –> कर्म से अकर्म बडा नहीं है।

    कुछ ना करने से “करना अच्छा” ही कहा है।

    (२)अब लेखक शुक्ला जी, क्या, व्यंग को ढाल बनाएंगे?
    (३)या कुछ नहीं कहेंगे?
    (४) या नया आलेख लिखेंगे?

  3. खुद कुछ टिप्पणी सहन नहीं कर सकते है और दूसरों को मोदी के खिलाफ अँड सड सुनने को कहते है कुछ लोगो ने मोदी से व्यक्तिगत शत्रुता कर ली जैसे मोदी ने उनका कोई अहित किया हो वो बेबत की बात बनाते है

  4. शुक्ला जी अगर टिप्पणियों से दुःख हुआ तो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ. लेख में आपने अपना मत लिखा वो आपकी भाव, भावना और दृष्टिकोण था, मेरे अनुसार लेख एक पक्षीय, दुर्भावना व विद्वेष पूर्ण था, जिस खबर को आधार बना कर लेख लिखा अब शायद आपको भी उस पेपर की clarification मिल गई होगी. इस लेख पर मेरा नाम था इसलिए टिप्पणी करना अनिवार्य था, लेकिन मैं “टी आई” के लेख का इन्तजार कर रहा था.

    आपके इस आधे अधूरे अधकचरे ज्ञान पर आधारित लेख पर भी लिखना था….. लेकिन अब नहीं.
    पुनः कटु शब्दों के लिए क्षमा प्रार्थना सहित… सादर

  5. जिन्हों ने तिनकेभर का भी काम न किया, ऐसे प्रदेशों के मुख्य मन्त्रियों को भी कुछ कहा जाए।

  6. मुझे इस बात का संतोष है कि आप जैसे लोग मेरी टिप्पणियों में इंसान को ढूंढते हैं| इंसानियत को ताक पर रख एक विकट राष्ट्रिय त्रासदी में नरेंद्र मोदी पर कीचड़ उछालते दूसरों को मर्यादा का पाठ केवल व्यंगात्मक ढंग से ही पढाया जा सकता है! मुझे नरेंद्र मोदी पर कटाक्ष का इतना रंज नहीं जितना कि उनके प्रति आपके घिनौने व्यंग का सरलमति व संशयी भारतीयों के मन में निरर्थक भ्रम होने का भय है| मोदी समर्थकों की “खतरनाक प्रवृति” तानाशाही को नष्ट कर सार्थक लोक-तंत्र के उजागर होने में सहायक होगी|

Leave a Reply to अभिषेक पुरोहित Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here