विपरीत विचारधारा से संवाद ही दूर कर सकता है मतभेद ?

इक़बाल हिंदुस्तानी

आस्था, ईमान और पूर्वाग्रह बहस से इसीलिये रोकते हैं!

मंगलेश डबराल वामपंथी विचारक, चिंतक और लेखक हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है। संघ परिवार से जुड़े भारत नीति संस्थान द्वारा आयोजित एक विचार संगोष्ठी में वे प्रोग्राम के संयोजक दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. राकेश कुमार के आग्रह को टाल नहीं सके और खुले मंच पर स्वस्थ बहस के लिये अध्यक्षता के लिये तैयार हो गये। बस फिर क्या था सारे देश में वामपंथी विचारकों में डबराल के इस क़दम को लेकर तीखी प्रतिक्रिया हुयी और उनको ना चाहते हुए अपने इस फैसले को एक ‘चूक’ मानकर विवाद से पीछा छुड़ाना पड़ा। अजीब बात यह है कि जो वामपंथी खुद को किसी वर्ग के कट्टरपंथियों से प्रगतिशील और उदार बताते हैं, यह विरोध उनकी तरफ से हुआ और तब तक चलता रहा जब तक कि अपने बायकॉट के डर से एक तरह से ब्लैकमेल होकर डबराल ने क्षमायाचना नहीं कर ली। वामपंथियों का दावा है कि आरएसएस वाले हिंदूवादी और संकीर्णतावादी होते हैं।

हो सकता है कि किसी विशेष मामले में यह साबित भी किया जा सके लेकिन जिस विषय पर चर्चा करने के लिये भारत नीति संस्थान ने डबराल को खुले मन से अपने मंच पर बुलाया था उससे वामपंथी विचारधारा और प्रगतिशीलता को कौन सा ख़तरा खड़ा हो गया था? दरअसल वामपंथी हों या कट्टरपंथी वे श्रेष्ठता ग्रंथि से ग्रसित हैं। उनको विपरीत विचारधारा के क़रीब जाते ही अपने अस्तित्व और अपने पूर्वाग्रहों के लिये पोल खुलने का ख़तरा दिखाई देने लगता है जिससे वे ऐसी किसी पहल की शुरूआत होते ही उस का प्रारंभिक विरोध करते हैं जिससे हालात ऐसे ना हो जायें कि उनकी बनावटी और दिखावटी विचारधरा के अस्तित्व को कोई बुनियादी ख़तरा पैदा हो जाये। मिसाल के तौर पर कम्युनिस्ट कभी इस बात का जवाब नहीं दे पाते कि जब विचार समय का उत्पाद है तो समय बदलने के साथ वह बदलेगा क्यों नहीं?

वे आज भी माकर्स और माओ को अक्षरशः सही मनवाने पर क्यों तुले हैं? अगर उनका यह दावा सही है कि केवल उनका साम्यवादी विचार ही सही है तो यही अधिकार हिंदूवादी, इस्लामी और अन्य धर्मों के कट्टरपंथियों को क्यों नहीं होना चाहिये? स्टालिन ने जिस तरह से लाखों लोगों को केवल वाम विचारधारा से सहमत ना होने पर मौत के घाट के उतरवा दिया उसी तरह से हिटलर ने यहूदियों या ओसामा ने ईसाइयों और मोदी ने मुस्लिमों को मरने दिया तो इसमें अंतर कैसे किया जा सकता है?

मिसाल के तौर पर जो वामपंथी हिंदू साम्प्रदायिकता का खुलकर विरोध करते हैं वे ही मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर अपराधिक चुप्पी साध लेते हैं। बंगलादशी महिलावादी मुस्लिम लेखिका तस्लीमा नसरीन के मामले में उनका दोगलापन पूरी दुनिया के सामने आ चुका है। मुस्लिम पर्सनल लॉ पर भी वे कॉमन सिविल कोड की मांग सामने आते ही केवल इस लिये चुप्पी साध लेते हैं क्योंकि यह मांग भाजपा उठाती है। इसी तरह अगर मुसलमानों की बात करें तो उनके कट्टरपंथियों का दावा है कि केवल वही ईमानवाले हैं। बाकी सब काफिर हैं। उनका यह भी दावा है कि मरने के बाद मुसलमान अपने गुनाहों की सज़ा पाने के बाद जन्नत में जायेगा लेकिन गैर मुस्लिम चाहे कितना ही अच्छा और सच्चा हो अगर वह जीते जी ईमान नहीं लाया तो वह हमेशा दोज़ख़ में जलेगा। अब यह बात तर्कशील और न्यायप्रिय किसी भी आदमी की समझ से बाहर है कि मुसलमान चाहे जितना बुरा हो वे आखिर में स्वर्ग में जायेगा और काफिर चाहे जितना अच्छा हो वह नर्क में ही जायेगा।

मुझे हालांकि और धर्मों और पंथों के बारे में अधिक जानकारी नहीं है लेकिन यह बात मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि लगभग सभी विचारधाराओं और आस्थावान लोगों में यह कमी और कमज़ोरी अकसर देखने को मिलती है कि वे दूसरे की बात ही सुनने को तैयार नहीं होते। जब तक आप किसी दूसरे की बात सुनेंगे ही नहीं तब तक बिना किसी सापेक्ष तुलना के आप कैसे तय कर सकते हैं कि केवल आप ही सही हैं। यह तो अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने वाली बात ही हुयी। जिस तरह से जादू, जिन्ना और मौजज़े की बातें मुस्लिम लोग करते हैं वे उस पर सवाल उठाने की इजाज़त तक देने को किसी कीमत पर तैयार नहीं होते । यहां तक कि कुछ मौलानाओं का कहना यह भी है कि मज़हब के मामले में बहस नहीं की जानी चाहिये वर्ना आप या तो गुनहगार होंगे या फिर किसी हद को पार करने पर आप ईमान से खारिज भी हो सकते हैं।

कमाल है कि बात भी करने पर पाबंदी तो फिर सही गलत का कैसे पता चलेगा? पिछले दिनों देवबंदी उलेमाओं ने एक फतवा दिया था जिसमें यह कहा गया था कि अगर कोई शराब के नशे या गुस्से की हालत में अपनी पत्नी को तलाक दे देता है तो भी तलाक हो जायेगा। इस पर शिया विद्वान मौलाना कल्बे सादिक और कई प्रगतिशील जानी मानी मुस्लिम महिलाओं ने जब यह सवाल उठाया कि जब नशे में नमाज़ तक जायज़ नहीं है तो तलाक कैसे हो सकता है? तो देवबंदी उलेमाओं ने जो जवाब दिया वह काबिले गौर है, उनका कहना था कि मज़हब के मामलों में आदमी की अक़्ल का कोई दख़ल नहीं हो सकता। इस्लाम में जो लिखा है वह सही है और क़यामत तक ऐसा ही रहेगा जिसे मानना हो माने ना मानना हो ना माने लेकिन अपनी दलील और समझ का इस्तेमाल करने की जुर्रत ना की जाये।

यह किसी एक सोच और आस्था का मामला नहीं है लगभग सभी धर्मों और मज़हबी विश्वासों के साथ यही बात देखने में आती है। कहने का मतलब यह है कि आप परंपरागत सोच से हटकर निष्पक्ष और प्रगतिशील बदलाव की जब भी कोई नई बात कहेंगे या करेंगे तो आपका जमकर विरोध होगा। यही वजह है कि डबराल के मामले में जो कुछ हुआ वह वामपंथियों की परंपरागत सोच से इतर है। जब पहली बार विख्यात वैज्ञानिक गैलिलियो ने यह कहा था कि सूरज नहीं हमारी धरती घूमती है तो उनके हाथ बांधकर आग लगा दी गयी थी। सुकरात से लेकर ईसा मसीह तक इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है जहां परंपरा और प्रचलित विश्वास के खिलाफ काम करने वाले को या तो उपेक्षित, पीड़ित और समाज से बहिष्कृत किया गया या फिर मौत के घाट उतार दिया गया। खुद मैं यह नहीं समझ पाता हूं कि मैं कौन हूं।

जब मैं हिंदू कट्टरपंथियों के खिलाफ क़लम चलाता हूं तो मुझको वामपंथी सोच से ग्रस्त पत्रकार कहा जाता है और जब मुस्लिम दकियानूसी सोच के खिलाफ लिखता हूं तो मुझे संघ परिवार का एजेंट बताकर कुफ्र का फतवा जारी कराने की धमकी दी जाती है। जब सरकारी भ्रष्टाचार और नालायकी का विकल्प कुछ चीज़ों का निजीकरण करना बताता हूं तो पूंजीवादी हो जाता हूं और जब राशन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को सरकार से सुधारने की अपील करता हूं तो समाजवादी कहलाने लगता हूं। हकीकत यह है कि मैं कोई सा भी ‘वादी’ नहीं हूं और एक कलमकार या सामाजिक चिंतक होने के नाते जो मुझे जब ठीक लगता है जितना ठीक लगता है जिसका ठीक लगता है उसको सही या गलत लिख और बोल देता हूं और उसी आधार पर पहले से विभिन्न विचारधाराओं से बंधे लोग अपनी आंखों पर लगे तरह तरह के रंग के चश्मे के कारण मुझे तरह तरह के खिताब देते रहते हैं लेकिन मैं इन आलोचनाओं, निंदाओं और तमगों से अब विचलित नहीं होता और ना ही तनिक डरता हूं क्योंकि ऐसा करना उनकी तंगनज़री का ही कारण नहीं बल्कि उस व्यवस्था, अंधविश्वास और होमकंडीशनिंग का परिणाम है जो उनको जन्म से ही घुट्टी में पिलाया गया है। बस एक सकारात्मक सोच से विश्वास ही किया जा सकता है कि आज नहीं तो कल यह जंग लगे दिमाग़ शिक्षा और नई तकनीक से कबाड़ में चले जायेंगे और नई सोच की नई पीढ़ी नया सवेरा देखेगी।

चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया,

पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया,

तुम बीच में न आती तो कैसे बनाता सीढ़ियां,

दीवारों में मेरी राह में आने का शुक्रिया।।

 

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

2 COMMENTS

  1. वामपंथ के बारे में आलेखसर्जक का नजरिया अज्ञानता का द्वेतक है. केवल हिंदूवादी साम्प्रदायिकता ही नहीं तत्वादी इस्लामिक आतंकवाद ही नहीं बल्कि भिंडरावाला जैसों की मानवता विरोधी राष्ट्र विरोधी विचारधारा के खिलाफ भारत के मार्क्स वादियों ने जो कुर्वानी दी है उसे देश की जनता अच्छी तरह जानती है.यहाँ किस मकसद से और किस सन्दर्भ से बहुसंख्यक हिन्दू साम्प्रदायिकता के सापेक्ष मुस्लिम कट्टरवादियों के प्रति वामपंथ के काल्पनिक नजरिये पेश किये जा रहे हैं? कहीं किसी का ईमान टिकता नज़र नहीं आता.

  2. आपकी बातें अच्छी लगीं.
    आस्था या ईमान नहीं पूर्वाग्रह बहस रोकते हैं! वैसे सताया बहस का मोहताज नहीं होता , सत्य तो बस सत्य होता है.

    वामपंथियों का दावा गलत है कि आरएसएस वाले हिंदूवादी और संकीर्णतावादी होते हैं।

    दरअसल वामपंथी हों या कट्टरपंथी वे श्रेष्ठता ग्रंथि से ग्रसित है

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