राजनीति

गांधीवाद के हत्यारे कम्युनिस्ट!

-रामदास सोनी

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही देश की शिक्षा पद्धति और विभिन्न वैचारिक प्रतिष्ठानों पर वामपंथी विचारधारा से प्रभावित लोगो का वर्चस्व रहा है। भारत के गौरवशाली इतिहास को कायरता का इतिहास बताने वाले वामपंथियों ने भारत को पिछले छ: दशकों में निराशा के गर्त में धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने वाक्चातुर्य का कुशलता से प्रयोग करते हुए पूरे भारतवर्ष में स्कूली पाठयक्रमों में लार्ड मैकाले प्रणीत शिक्षा प्रणाली को आगे बढ़ाने का कार्य करने वाले कम्युनिस्टों के पूरे इतिहास से भारतवासी आज भी अनभिज्ञ है। स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजो का समर्थन, भारत माता को खण्डित करवाने में योगदान, भारत-चीन युद्ध के समय चीन की सेना को मुक्ति सेना बताने और चीन को आक्रांता मानने से इंकार करने वाले कम्युनिस्ट आंदोलन की उपज है माओवाद! रूस और चीन को अपना प्रेरणास्त्रोत मानने वाले इन काले अंग्रेजो द्वारा अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों की किस बेदर्दी से हत्या करने की असफल कोशिशे की गई है, इस पर थोड़ा सा विचार करने की आवश्यकता है।

गांधीजी की विचारधारा को अतीत के गौरवशाली भारत का सम्बल व संरक्षण प्राप्त है किंतु अपने देश के अन्दर विदेशियों के कुछ हस्तकों के लिए गांधीजी का व्यक्तित्व परेशानी बन गया। गांधीजी की विचारधारा उनकी राह में सबसे बड़ी बाधा बनकर खड़ी हो गई। भारत के कम्युनिस्टों को गांधीजी एक अपराजेय दुश्मन के रूप में दिखाई दिए उन्होने गांधीजी को विश्वभर में बदनाम कर स्वतंत्रता संग्राम की पीठ में छुरा भोंकते हुए अपने स्वार्थ साधने का भरपूर यत्न किया किंतु कम्युनिस्टों के सभी षडयंत्र विफल रहे। कम्युनिस्टों का दुर्दान्त, हिंसक स्वरूप स्वयं उन्ही की लेखनी एवं कृत्यों की बोलती साक्षी के रूप में इस लेख में लिखा गया है।

महात्मा गांधी भारत की अनादि और अविच्छिन्न ऋषि परम्परा के महानायक माने जाते है। अतीत के साथ वर्तमान का समन्वय करते हुए ” सर्वे भवन्तु सुखिन: ” को उन्होने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। भारतीय जनता के मध्य सहज प्राप्य गरीबी, अभावों एव ंविषमता के प्रति उनके मन में गहरी वेदना थी इसलिए उन्होने अपने जीवन को सर्व-साधारण के मध्य उत्सर्ग कर दिया। हरिजनों और दलित वर्ग का अभ्युत्थान करने के लिए गीता की ” शुनिय चैव श्वपाके च पण्डित: समदर्शिन ” वाणी को साकार करते हुए भारतीय जीवन दर्शन का साक्षात उदाहरण प्रस्तुत किया।

महात्मा गांधी ने धर्म और राजनीति में एकात्म्य की प्रतिष्ठा की, उनका मत था कि देश की निर्धनता को दूर करने का मार्ग ” माक्र्सवाद” कदापि नहीं हो सकता। साध्य और साधन की शुचिता पर, जिसका कम्युनिस्ट भारी विरोध करते है, गांधीजी ने बहुत जोर दिया था। गांधीवाद और साम्यवाद के मध्य केवल हिंसा-अहिंसा का ही नहीं अपितु अन्य बातों में भी र्प्याप्त विचार भेद है। गांधीजी कम्युनिस्ओं की भांति केवल वाग्वीर नहीं थे उन्होने गरीबी और अभाव को दूर करने के लिए ” खादी और कुटीर उद्योगो को अग्रसारित करते हुए गांवों की ओर चलों” का स्वयं पालन किया तथा अपने साथियों से करवाया। कम्युनिस्टों के मिथ्यावाद पर प्रहार करते हुए गांधीवादी विचारधारा के मर्मज्ञ सन्त विनोबा भावे ने कहा कि – साम्यवाद के चारों और कम्युनिस्टों ने एक लम्बी-चौड़ी तत्वज्ञान की इमारत खड़ी कर दी है तथापि तत्वज्ञान के नाते उसमें कोई सार नहीं है क्योंकि वह कारीगरी नहीं बल्कि बाजीगरी है।

महात्मा गांधी का चिंतन अत्यंत ही सुस्पष्ट था उन्होने कम्युनिस्टों को खूनी और दुर्दान्त हिंसक बताकर उनकी निंदा करते हुए कहा है कि – मेरा रास्ता साफ है, हिंसात्मक कामों में मेरा उपयोग करने के सभी प्रयत्न विफल होगें, मेरा एक ही शस्त्र है- अहिंसा। ”बोलशेविज्म” के बारें में उन्होने कहा था कि रूस के लिए यह लाभप्रद है या नहीं मैं नहीं कह सकता किंतु इतना अवश्य कह सकता हूं कि जहां तक इसका आधार हिंसा और ईश्वर विमुखता है, यह मुझे अपने से दूर ही हटाता है। ”बोलशेविज्म” के बारें में मुझे जो कुछ जानने को मिला है उससे ऐसा प्रतीत होता है िकवह न केवल हिंसा के प्रयोग का बहिष्कार नहीं करता, बल्कि निजी सम्पति के अपहरण्ा के लिए तथा उसे राज्य के सामूहिक स्वामित्व के अधीन बनाए रखने के लिए हिंसा के प्रयोग की खुली छूट देता है ( अमृत बाजार पत्रिका 2 अगस्त 1934) गांधीजी के अनुसार, रूसी साम्यवाद यानि जनता पर जबरदस्ती लादा जाने वाला साम्यवाद भारत का रूचेगा नहीं, भारत की प्रकृति उसके साथ मेल नहीं खाती ( हरिजन 13 मार्च 1937)। गांधीजी में कम्युनिस्टों के प्रति सबसे अधिक आक्रोश इस बात को लेकर था िकवे उनकी कथनी और करनी में भारी अंतर देखते थे, उन्होने एक बार कम्युनिस्टों को फटकारते हुए कहा था कि – आप साम्यवादी होने का दावा करते है परंतु साम्यवादी जीवन व्यतीत करते दिखाई नहीं देते, उनकी कम्युनिस्टों को सलाह थी कि ईश्वर ने आपको बुद्धि और योग्यता प्रदान की है तो उसका सदुपयोग कीजिए, कृपया अपनी बुद्धि पर ताला न लगाईये।

कम्युनिस्टों के घृणित हथकण्डों से अत्यंत पीड़ित होने के बाद हरिजन 6 अक्टूबर 1946 के अंक में उन्होने कहा कि मालूम होता है कि साम्यवादियों ने बखेड़े खड़े करना ही अपना पेशा बना लिया है, वे न्याय-अन्याय और सच-झूठ में कोई फर्क नहीं करते। ऐसो प्रतीत होता है कि वे रूस के ओदशों पर काम करते है क्योंकि वे भारत की बजाय रूस को अपना आध्यात्मिक घर मानते है। मैं किसी बाहरी शक्ति पर इस तरह निर्भर रहना बर्दाश्त नहीं कर सकता।

सन् 1946 में प्रसिद्ध अमेरिकन पत्रकार लुई फिशर के साथ परिचर्चा में भाग लेते हुए गांधीजी ने समाजवाद और साम्यवाद के सम्बंध में अपनी मान्यताओं को व्यक्त करते हुए कहा था कि मेरे समाजवाद का अर्थ है- सर्वोदय, मैं गूंगे, बहरे और अंधों को मिटाकर उठना नहीं चाहता, उनके ( माक्र्सवादियों) समाजवाद में शायद इसके लिए कोई स्थान नहीं है। भौतिक उन्नति ही उनका एकमात्र उद्देश्य है, माक्र्सवादियों के समाजाद में व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं है,,,,,, समाजवाद और कुछ नहीं निकम्मे लोगो का शास्त्र है।” माक्र्स के उपरान्त उसके अनुयायी समय-समय पर माक्र्सवाद में रद्दोबदल करते रहे है। गांधीजी भी कम्युनिस्टों की इस अवसरवादिता से अपरिचित न थे।

मानव इतिहास में व्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण करने वाले जितने निरंकुश, पाशवी बौर मायावी तानाशाहों का उल्लेख आज तक हुआ है उन सब में कम्युनिस्टों के पार्टी अधिनायकवाद का जोड़ मिलना असंभव है। समाज के आर्थिक ढ़ांचे पर आंख गड़ाते हुए नागरिकों के आपसी झगड़ों की आग भड़काना, प्रत्येक स्तर पर वर्ग स्वार्थो के संघर्ष उभाड़ते हुए जनता को नेतृत्वविहीन करना, प्रक्षोभक प्रसंगों में अशांति, अव्यवस्था, हत्या, लूट, तोड़फोड़ के षडयंत्र रचकर जनजीवन को आतंकित करना और अंत में राक्षसी अट्टहास के साथ सैन्यशक्ति के बल पर पार्टी अधिनायकवाद स्थापित करना कम्युनिस्टों की रीति-नीति के जाने-पहचाने कदम है। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कम्युनिस्ट किसी भी भक्ष्य देश की सामाजिक जीवन रचना और उसके कर्णधार नेताओं की समाप्ति के लिए कदम दर कदम पूर्ण नियोजित व्यूह रचना करते चलते है। उन्हे आवश्यकता होती है कि राष्ट्रवादी शक्तियों को एकजुट न होने देने के लिए विभिन्न वर्गो और राष्ट्रीय नेताओं के सम्बंध में समय-समय पर साधक-बाधक घोषणाएं करें। भारत की कम्युनिस्ट पार्टिया तो सिंध्दात, कार्य और साधन तीनों दृष्टियों से विदेशाश्रित है इसलिए इन्हे नीति परिवर्तनों में अपने विदेशी आकाओं का विशेष ध्यान रखना पड़ता है यानि रूस और चीन की हर आंतरिक और बाहरी हलचल को ध्यान में रखकर ही भारत के कम्युनिस्टों को उनके ईशारों पर नाचना पड़ता है इसलिए भारत में कम्युनिस्टों की नीतियां व केवल सर्दव परस्पर विरोधक, विसंगत रही वरन् हास्यास्पद भी रही है। इसी अपनी रीति-नीति के अनुसार कम्युनिस्टों ने गांधीजी के प्रति भी अनेक विसंगत बाते कही है। महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और उनके कार्यो की कम्युनिस्ट दृश्टिकोण से मीमांसा करने वाले पहले कम्सुनिस्ट लेखक एम एन राय ने 1922 में प्रकाशित पुस्तक इण्डिया इन ट्रान्सीशन में गांधीजी को सामन्तवादी तत्वों के स्वार्थसाधक के रूप में प्रस्तुत किया है। इसी लेखक की धर्मपत्नी श्रीमती ऐवलीन ने शांतिदेवी के उपनाम से गांधीजी पर एक लेखमाला लिखी जिसमें गांधीजी पर व्यंग्य प्रहार करने में कोई कसर बकाया नहीं छोड़ी गई। सन् 1922 में प्रकाशित ये लेख वेनगार्ड और इन्प्रेकर में प्रकाशित हुए। इन लेखो में कहा गया है कि गांधीजी कुछ अन्य नहीं केवल भूतप्रेतीय पूर्वजों की लम्बी परम्परा के उत्तराधिकारी है क्योंकि गांधीजी के अनुसार 30 करोड़ भारतवासी अपने शोषकों के हाथो तब तक शोषित, प्रताड़ित होते रहे जब तक कि शोषक वर्ग इन्हे अपने सीने से न लगा ले। गांधीजी के अन्य दोषों की ओर संकेत करते हुए श्रीमती ऐवलीन ने कहा है कि एक अस्पष्ट लक्ष्य के लिए समान संघर्ष में सभी भारतीयों को एकत्र लाने की इच्छा निरर्थक और गांधी की जिद्द मात्र है क्योंकि तेल और पानी, शेर और भेड़ कभी एकत्र नहीं हो सकते। गांधी जी दूसरा बड़ा दोष है कि वे राजनीति के क्षेत्र में आध्यात्म को घुसाने की कोशिश कर रहे है। अपनी लेखमाला में गांधीवाद को प्रमिगामी करार देते हुए ऐवलीन ने आगे कहा कि गांधीवाद क्रांतिवाद नहीं है, अपितु एक दुर्बल एवं तरल सुधारवाद है जो स्वतंत्रता की लड़ाई की वास्तविकताओं के सामने हर मोड़ पर सिकुड़ जाता है। एक अन्य कम्युनिस्ट लेखक रजनीपामदत्त ने 1927 में प्रकाशित अपनी पुस्तक माडर्न इण्डिया में कहा कि गांधीजी स्वयं को उच्चवर्गीय स्वार्थ और पूर्वाग्रहों से दूर नहीं रख सके। दत्त के अनुसार गांधीजी कर नेतृत्व छोटे बुर्जुआ बुद्धिजीवी वर्ग का है। ”लार्ज सोवियट एनसाइक्लोपीडिया” में सन् 1929 के अंक में भी प्रकाशित एक लेख में उक्त दोनो लेखकों के मतों का उल्लेख करते हुए उन्हे छोटे बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा के प्रतिनिधि के नाते ही बताया गया है तथा कहा गया है कि वे सम्पतिवान वर्ग के हितों का संरक्षण करने वाले व्यक्ति है ( इ एम एस नम्बूद्रिपाद : दि बर्थ आफ गांधीज्म, न्यू एज मासिक, जुलाई 1945) महात्माजी की जनप्रियता का उपयोग कत्युनिस्ट करना चाहते थे किंतु जानते थे कि गांधीजी के साथ उनका मेल बैठना कठिन है, इस प्रकार से गांधीजी का व्यक्तित्व कम्युनिस्ट विचारों के लिए समस्या बन गया। रूस में इस प्रश्न पर विचार हुआ व भारतीय कम्युनिस्टों को गांधीजी से स्तर्क किया गया। जून 1933 के कम्युनिस्ट-इंटरनेशनल में एक विस्तृत लेख गांधीजी बाबत प्रकाशित हुआ जिसमें गांधी और गांधीवाद की उन्होने कड़ी आलोचना की। 1939 में कम्युनिस्ट लेखक रजनीपामदत्त ने गांधीजी के विषय में घोषित किया कि भारत में उन सबके लिए जो तरूणाई और विवके के पक्ष में है, गांधी का नाम अभिशाप और धृणा का द्योतक है। 1942 में दत्त ने गांधीजी को भारतीय राजनीति की ”शांतिवादी दुष्ट प्रतिभा ” के नाम से सम्बोधित किया (इण्डिया : व्हाट मस्ट बी डन” लेबर मंथली अंक 24 सितम्बर 1942)। कम्युनिस्ट पार्टी से प्रतिबंध उठाए जाने पर उसके महामंत्री पीसी जोशी ने लिखा कि निषेधात्मक दृष्टिकोण, निष्क्रियता की नीति और परतंत्रता का प्रतिपादन ही आज का गांधीवाद है।

सन् 1948 में महात्मा गांधी का बलिदान हुआ, कम्युनिस्टों ने गांधीजी के नाम का उपयोग करने के लिए नया और अपनी पिछली घोषणाओं तथा मान्यताओं के विपरित रूख अख्त्यार किया ताकि वे गांधीजी के नाम को अपनी रणनीति का पुर्जा बना सके। गांधीजी की मृत्यु के दो मास बाद मार्च 1948 में रजनीपामदत्त ने ”लेबर” मासिक पत्रिका में प्रकाशित लेख में गांधीजी के गुणों का वर्णन ” मानव बुद्धि वर्णन से परे” ढ़ंग से करते हुए कम्युनिस्टों के लिए एक नया रणनीति अख्त्यार करने का संदेश दिया। लेखक के अनुसार, गांधीजी के बलिदान का उपयोग कम्युनिस्टों को करना चाहिए क्योंकि गांधीजी ने इन प्रयत्नों में कम्युनिस्टों से निकट का सम्पर्क साधा था! भारत के कम्युनिस्टों ने यद्यपिग ांधीजी के नाम की माला जपते हुए जनसाधारण से निकट का सम्पर्क सथापित करना तय कर लिया था किंतु उनके रूसी मालिकों को यह स्वीकार्य नहीं था। सन् 1949 में रूस में पैसेफिक इन्स्टीटयूट आफ सोवियट एकादमी आफ साइंसेस की बैठक हुई और उसके महत्वपूर्ण कागजातों का प्रकाशन नवम्बर मास में हुआ जिसके अंग्रेजी अनुवाद (जिसे पीपुल्स पब्लिकेशन हाउस, मुबंई ने प्रकाशित किया) में महात्मा गांधी का उल्लेख करते हुए कहा गया कि भारत में प्रजातंत्र की रक्षा के लिए गांधी के प्रभाव का उपयोग करने के प्रयत्न अत्यधिक हानिकारक और खतरनाक है, गांधी ने साम्राज्सवादी ताकतों के विरूद्ध सशस्त्र अभियान का कभी नेतृत्व नहीं किया इसके विपरित वे जनसाधारण के मुक्ति आंदोलन के प्रमुख द्रोही रहे है। अपने रूसी मालिको की आज्ञा के समक्ष सर झुकाने वाले भारतीय कम्युनिस्टों ने दो माह बाद ही घोषणा कर दी कि गांधीजी ने कभी किसी राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व नहीं किया और सन् 1920 के क्रांतिकारी जन-आंदोलन का उन्होने शिरोच्छेद कर डाला। लेखक ने गांधीजी को भारत के मुक्ति आंदोलन में बाधक और प्रतिक्रयावादी बताया। इसी प्रकार सन् 1952 में प्रकाशित बोल्शिया सोवेटस्किया एण्टेस्किलेपिडिया सेकण्ड एडीशन मास्को के पृष्ठ संख्या 204 पर गांधीजी के बारें में अंकित है कि गांधीवाद भारत के उन बड़े बुर्जुआ वर्ग के हाथों में सैद्धांतिक हथियार बना जो सामन्तवादी जमींदार और पूंजीपतियों से सम्पर्क रखते है।

एशियायी देशों में रूसी हितों के लिए जब रूसी नेताओं ने गांधीजी की प्रशंसा करनी प्रारंभ कर दी तो भारत के कम्युनिस्टों की स्थिति हास्यास्पद बन गई। नेहरू सरकार की हमजोली बनने की रूसी नीति से वे इंकार नहीं कर सकते थे किंतु वे गांधी से अधिक अपने आप को माक्र्स और लेनिन के प्रति समर्पित बनाये रखना जरूरी समझते थे।