गांधीवाद के हत्यारे कम्युनिस्ट!

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-रामदास सोनी

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही देश की शिक्षा पद्धति और विभिन्न वैचारिक प्रतिष्ठानों पर वामपंथी विचारधारा से प्रभावित लोगो का वर्चस्व रहा है। भारत के गौरवशाली इतिहास को कायरता का इतिहास बताने वाले वामपंथियों ने भारत को पिछले छ: दशकों में निराशा के गर्त में धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने वाक्चातुर्य का कुशलता से प्रयोग करते हुए पूरे भारतवर्ष में स्कूली पाठयक्रमों में लार्ड मैकाले प्रणीत शिक्षा प्रणाली को आगे बढ़ाने का कार्य करने वाले कम्युनिस्टों के पूरे इतिहास से भारतवासी आज भी अनभिज्ञ है। स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजो का समर्थन, भारत माता को खण्डित करवाने में योगदान, भारत-चीन युद्ध के समय चीन की सेना को मुक्ति सेना बताने और चीन को आक्रांता मानने से इंकार करने वाले कम्युनिस्ट आंदोलन की उपज है माओवाद! रूस और चीन को अपना प्रेरणास्त्रोत मानने वाले इन काले अंग्रेजो द्वारा अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों की किस बेदर्दी से हत्या करने की असफल कोशिशे की गई है, इस पर थोड़ा सा विचार करने की आवश्यकता है।

गांधीजी की विचारधारा को अतीत के गौरवशाली भारत का सम्बल व संरक्षण प्राप्त है किंतु अपने देश के अन्दर विदेशियों के कुछ हस्तकों के लिए गांधीजी का व्यक्तित्व परेशानी बन गया। गांधीजी की विचारधारा उनकी राह में सबसे बड़ी बाधा बनकर खड़ी हो गई। भारत के कम्युनिस्टों को गांधीजी एक अपराजेय दुश्मन के रूप में दिखाई दिए उन्होने गांधीजी को विश्वभर में बदनाम कर स्वतंत्रता संग्राम की पीठ में छुरा भोंकते हुए अपने स्वार्थ साधने का भरपूर यत्न किया किंतु कम्युनिस्टों के सभी षडयंत्र विफल रहे। कम्युनिस्टों का दुर्दान्त, हिंसक स्वरूप स्वयं उन्ही की लेखनी एवं कृत्यों की बोलती साक्षी के रूप में इस लेख में लिखा गया है।

महात्मा गांधी भारत की अनादि और अविच्छिन्न ऋषि परम्परा के महानायक माने जाते है। अतीत के साथ वर्तमान का समन्वय करते हुए ” सर्वे भवन्तु सुखिन: ” को उन्होने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। भारतीय जनता के मध्य सहज प्राप्य गरीबी, अभावों एव ंविषमता के प्रति उनके मन में गहरी वेदना थी इसलिए उन्होने अपने जीवन को सर्व-साधारण के मध्य उत्सर्ग कर दिया। हरिजनों और दलित वर्ग का अभ्युत्थान करने के लिए गीता की ” शुनिय चैव श्वपाके च पण्डित: समदर्शिन ” वाणी को साकार करते हुए भारतीय जीवन दर्शन का साक्षात उदाहरण प्रस्तुत किया।

महात्मा गांधी ने धर्म और राजनीति में एकात्म्य की प्रतिष्ठा की, उनका मत था कि देश की निर्धनता को दूर करने का मार्ग ” माक्र्सवाद” कदापि नहीं हो सकता। साध्य और साधन की शुचिता पर, जिसका कम्युनिस्ट भारी विरोध करते है, गांधीजी ने बहुत जोर दिया था। गांधीवाद और साम्यवाद के मध्य केवल हिंसा-अहिंसा का ही नहीं अपितु अन्य बातों में भी र्प्याप्त विचार भेद है। गांधीजी कम्युनिस्ओं की भांति केवल वाग्वीर नहीं थे उन्होने गरीबी और अभाव को दूर करने के लिए ” खादी और कुटीर उद्योगो को अग्रसारित करते हुए गांवों की ओर चलों” का स्वयं पालन किया तथा अपने साथियों से करवाया। कम्युनिस्टों के मिथ्यावाद पर प्रहार करते हुए गांधीवादी विचारधारा के मर्मज्ञ सन्त विनोबा भावे ने कहा कि – साम्यवाद के चारों और कम्युनिस्टों ने एक लम्बी-चौड़ी तत्वज्ञान की इमारत खड़ी कर दी है तथापि तत्वज्ञान के नाते उसमें कोई सार नहीं है क्योंकि वह कारीगरी नहीं बल्कि बाजीगरी है।

महात्मा गांधी का चिंतन अत्यंत ही सुस्पष्ट था उन्होने कम्युनिस्टों को खूनी और दुर्दान्त हिंसक बताकर उनकी निंदा करते हुए कहा है कि – मेरा रास्ता साफ है, हिंसात्मक कामों में मेरा उपयोग करने के सभी प्रयत्न विफल होगें, मेरा एक ही शस्त्र है- अहिंसा। ”बोलशेविज्म” के बारें में उन्होने कहा था कि रूस के लिए यह लाभप्रद है या नहीं मैं नहीं कह सकता किंतु इतना अवश्य कह सकता हूं कि जहां तक इसका आधार हिंसा और ईश्वर विमुखता है, यह मुझे अपने से दूर ही हटाता है। ”बोलशेविज्म” के बारें में मुझे जो कुछ जानने को मिला है उससे ऐसा प्रतीत होता है िकवह न केवल हिंसा के प्रयोग का बहिष्कार नहीं करता, बल्कि निजी सम्पति के अपहरण्ा के लिए तथा उसे राज्य के सामूहिक स्वामित्व के अधीन बनाए रखने के लिए हिंसा के प्रयोग की खुली छूट देता है ( अमृत बाजार पत्रिका 2 अगस्त 1934) गांधीजी के अनुसार, रूसी साम्यवाद यानि जनता पर जबरदस्ती लादा जाने वाला साम्यवाद भारत का रूचेगा नहीं, भारत की प्रकृति उसके साथ मेल नहीं खाती ( हरिजन 13 मार्च 1937)। गांधीजी में कम्युनिस्टों के प्रति सबसे अधिक आक्रोश इस बात को लेकर था िकवे उनकी कथनी और करनी में भारी अंतर देखते थे, उन्होने एक बार कम्युनिस्टों को फटकारते हुए कहा था कि – आप साम्यवादी होने का दावा करते है परंतु साम्यवादी जीवन व्यतीत करते दिखाई नहीं देते, उनकी कम्युनिस्टों को सलाह थी कि ईश्वर ने आपको बुद्धि और योग्यता प्रदान की है तो उसका सदुपयोग कीजिए, कृपया अपनी बुद्धि पर ताला न लगाईये।

कम्युनिस्टों के घृणित हथकण्डों से अत्यंत पीड़ित होने के बाद हरिजन 6 अक्टूबर 1946 के अंक में उन्होने कहा कि मालूम होता है कि साम्यवादियों ने बखेड़े खड़े करना ही अपना पेशा बना लिया है, वे न्याय-अन्याय और सच-झूठ में कोई फर्क नहीं करते। ऐसो प्रतीत होता है कि वे रूस के ओदशों पर काम करते है क्योंकि वे भारत की बजाय रूस को अपना आध्यात्मिक घर मानते है। मैं किसी बाहरी शक्ति पर इस तरह निर्भर रहना बर्दाश्त नहीं कर सकता।

सन् 1946 में प्रसिद्ध अमेरिकन पत्रकार लुई फिशर के साथ परिचर्चा में भाग लेते हुए गांधीजी ने समाजवाद और साम्यवाद के सम्बंध में अपनी मान्यताओं को व्यक्त करते हुए कहा था कि मेरे समाजवाद का अर्थ है- सर्वोदय, मैं गूंगे, बहरे और अंधों को मिटाकर उठना नहीं चाहता, उनके ( माक्र्सवादियों) समाजवाद में शायद इसके लिए कोई स्थान नहीं है। भौतिक उन्नति ही उनका एकमात्र उद्देश्य है, माक्र्सवादियों के समाजाद में व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं है,,,,,, समाजवाद और कुछ नहीं निकम्मे लोगो का शास्त्र है।” माक्र्स के उपरान्त उसके अनुयायी समय-समय पर माक्र्सवाद में रद्दोबदल करते रहे है। गांधीजी भी कम्युनिस्टों की इस अवसरवादिता से अपरिचित न थे।

मानव इतिहास में व्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण करने वाले जितने निरंकुश, पाशवी बौर मायावी तानाशाहों का उल्लेख आज तक हुआ है उन सब में कम्युनिस्टों के पार्टी अधिनायकवाद का जोड़ मिलना असंभव है। समाज के आर्थिक ढ़ांचे पर आंख गड़ाते हुए नागरिकों के आपसी झगड़ों की आग भड़काना, प्रत्येक स्तर पर वर्ग स्वार्थो के संघर्ष उभाड़ते हुए जनता को नेतृत्वविहीन करना, प्रक्षोभक प्रसंगों में अशांति, अव्यवस्था, हत्या, लूट, तोड़फोड़ के षडयंत्र रचकर जनजीवन को आतंकित करना और अंत में राक्षसी अट्टहास के साथ सैन्यशक्ति के बल पर पार्टी अधिनायकवाद स्थापित करना कम्युनिस्टों की रीति-नीति के जाने-पहचाने कदम है। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कम्युनिस्ट किसी भी भक्ष्य देश की सामाजिक जीवन रचना और उसके कर्णधार नेताओं की समाप्ति के लिए कदम दर कदम पूर्ण नियोजित व्यूह रचना करते चलते है। उन्हे आवश्यकता होती है कि राष्ट्रवादी शक्तियों को एकजुट न होने देने के लिए विभिन्न वर्गो और राष्ट्रीय नेताओं के सम्बंध में समय-समय पर साधक-बाधक घोषणाएं करें। भारत की कम्युनिस्ट पार्टिया तो सिंध्दात, कार्य और साधन तीनों दृष्टियों से विदेशाश्रित है इसलिए इन्हे नीति परिवर्तनों में अपने विदेशी आकाओं का विशेष ध्यान रखना पड़ता है यानि रूस और चीन की हर आंतरिक और बाहरी हलचल को ध्यान में रखकर ही भारत के कम्युनिस्टों को उनके ईशारों पर नाचना पड़ता है इसलिए भारत में कम्युनिस्टों की नीतियां व केवल सर्दव परस्पर विरोधक, विसंगत रही वरन् हास्यास्पद भी रही है। इसी अपनी रीति-नीति के अनुसार कम्युनिस्टों ने गांधीजी के प्रति भी अनेक विसंगत बाते कही है। महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और उनके कार्यो की कम्युनिस्ट दृश्टिकोण से मीमांसा करने वाले पहले कम्सुनिस्ट लेखक एम एन राय ने 1922 में प्रकाशित पुस्तक इण्डिया इन ट्रान्सीशन में गांधीजी को सामन्तवादी तत्वों के स्वार्थसाधक के रूप में प्रस्तुत किया है। इसी लेखक की धर्मपत्नी श्रीमती ऐवलीन ने शांतिदेवी के उपनाम से गांधीजी पर एक लेखमाला लिखी जिसमें गांधीजी पर व्यंग्य प्रहार करने में कोई कसर बकाया नहीं छोड़ी गई। सन् 1922 में प्रकाशित ये लेख वेनगार्ड और इन्प्रेकर में प्रकाशित हुए। इन लेखो में कहा गया है कि गांधीजी कुछ अन्य नहीं केवल भूतप्रेतीय पूर्वजों की लम्बी परम्परा के उत्तराधिकारी है क्योंकि गांधीजी के अनुसार 30 करोड़ भारतवासी अपने शोषकों के हाथो तब तक शोषित, प्रताड़ित होते रहे जब तक कि शोषक वर्ग इन्हे अपने सीने से न लगा ले। गांधीजी के अन्य दोषों की ओर संकेत करते हुए श्रीमती ऐवलीन ने कहा है कि एक अस्पष्ट लक्ष्य के लिए समान संघर्ष में सभी भारतीयों को एकत्र लाने की इच्छा निरर्थक और गांधी की जिद्द मात्र है क्योंकि तेल और पानी, शेर और भेड़ कभी एकत्र नहीं हो सकते। गांधी जी दूसरा बड़ा दोष है कि वे राजनीति के क्षेत्र में आध्यात्म को घुसाने की कोशिश कर रहे है। अपनी लेखमाला में गांधीवाद को प्रमिगामी करार देते हुए ऐवलीन ने आगे कहा कि गांधीवाद क्रांतिवाद नहीं है, अपितु एक दुर्बल एवं तरल सुधारवाद है जो स्वतंत्रता की लड़ाई की वास्तविकताओं के सामने हर मोड़ पर सिकुड़ जाता है। एक अन्य कम्युनिस्ट लेखक रजनीपामदत्त ने 1927 में प्रकाशित अपनी पुस्तक माडर्न इण्डिया में कहा कि गांधीजी स्वयं को उच्चवर्गीय स्वार्थ और पूर्वाग्रहों से दूर नहीं रख सके। दत्त के अनुसार गांधीजी कर नेतृत्व छोटे बुर्जुआ बुद्धिजीवी वर्ग का है। ”लार्ज सोवियट एनसाइक्लोपीडिया” में सन् 1929 के अंक में भी प्रकाशित एक लेख में उक्त दोनो लेखकों के मतों का उल्लेख करते हुए उन्हे छोटे बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा के प्रतिनिधि के नाते ही बताया गया है तथा कहा गया है कि वे सम्पतिवान वर्ग के हितों का संरक्षण करने वाले व्यक्ति है ( इ एम एस नम्बूद्रिपाद : दि बर्थ आफ गांधीज्म, न्यू एज मासिक, जुलाई 1945) महात्माजी की जनप्रियता का उपयोग कत्युनिस्ट करना चाहते थे किंतु जानते थे कि गांधीजी के साथ उनका मेल बैठना कठिन है, इस प्रकार से गांधीजी का व्यक्तित्व कम्युनिस्ट विचारों के लिए समस्या बन गया। रूस में इस प्रश्न पर विचार हुआ व भारतीय कम्युनिस्टों को गांधीजी से स्तर्क किया गया। जून 1933 के कम्युनिस्ट-इंटरनेशनल में एक विस्तृत लेख गांधीजी बाबत प्रकाशित हुआ जिसमें गांधी और गांधीवाद की उन्होने कड़ी आलोचना की। 1939 में कम्युनिस्ट लेखक रजनीपामदत्त ने गांधीजी के विषय में घोषित किया कि भारत में उन सबके लिए जो तरूणाई और विवके के पक्ष में है, गांधी का नाम अभिशाप और धृणा का द्योतक है। 1942 में दत्त ने गांधीजी को भारतीय राजनीति की ”शांतिवादी दुष्ट प्रतिभा ” के नाम से सम्बोधित किया (इण्डिया : व्हाट मस्ट बी डन” लेबर मंथली अंक 24 सितम्बर 1942)। कम्युनिस्ट पार्टी से प्रतिबंध उठाए जाने पर उसके महामंत्री पीसी जोशी ने लिखा कि निषेधात्मक दृष्टिकोण, निष्क्रियता की नीति और परतंत्रता का प्रतिपादन ही आज का गांधीवाद है।

सन् 1948 में महात्मा गांधी का बलिदान हुआ, कम्युनिस्टों ने गांधीजी के नाम का उपयोग करने के लिए नया और अपनी पिछली घोषणाओं तथा मान्यताओं के विपरित रूख अख्त्यार किया ताकि वे गांधीजी के नाम को अपनी रणनीति का पुर्जा बना सके। गांधीजी की मृत्यु के दो मास बाद मार्च 1948 में रजनीपामदत्त ने ”लेबर” मासिक पत्रिका में प्रकाशित लेख में गांधीजी के गुणों का वर्णन ” मानव बुद्धि वर्णन से परे” ढ़ंग से करते हुए कम्युनिस्टों के लिए एक नया रणनीति अख्त्यार करने का संदेश दिया। लेखक के अनुसार, गांधीजी के बलिदान का उपयोग कम्युनिस्टों को करना चाहिए क्योंकि गांधीजी ने इन प्रयत्नों में कम्युनिस्टों से निकट का सम्पर्क साधा था! भारत के कम्युनिस्टों ने यद्यपिग ांधीजी के नाम की माला जपते हुए जनसाधारण से निकट का सम्पर्क सथापित करना तय कर लिया था किंतु उनके रूसी मालिकों को यह स्वीकार्य नहीं था। सन् 1949 में रूस में पैसेफिक इन्स्टीटयूट आफ सोवियट एकादमी आफ साइंसेस की बैठक हुई और उसके महत्वपूर्ण कागजातों का प्रकाशन नवम्बर मास में हुआ जिसके अंग्रेजी अनुवाद (जिसे पीपुल्स पब्लिकेशन हाउस, मुबंई ने प्रकाशित किया) में महात्मा गांधी का उल्लेख करते हुए कहा गया कि भारत में प्रजातंत्र की रक्षा के लिए गांधी के प्रभाव का उपयोग करने के प्रयत्न अत्यधिक हानिकारक और खतरनाक है, गांधी ने साम्राज्सवादी ताकतों के विरूद्ध सशस्त्र अभियान का कभी नेतृत्व नहीं किया इसके विपरित वे जनसाधारण के मुक्ति आंदोलन के प्रमुख द्रोही रहे है। अपने रूसी मालिको की आज्ञा के समक्ष सर झुकाने वाले भारतीय कम्युनिस्टों ने दो माह बाद ही घोषणा कर दी कि गांधीजी ने कभी किसी राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व नहीं किया और सन् 1920 के क्रांतिकारी जन-आंदोलन का उन्होने शिरोच्छेद कर डाला। लेखक ने गांधीजी को भारत के मुक्ति आंदोलन में बाधक और प्रतिक्रयावादी बताया। इसी प्रकार सन् 1952 में प्रकाशित बोल्शिया सोवेटस्किया एण्टेस्किलेपिडिया सेकण्ड एडीशन मास्को के पृष्ठ संख्या 204 पर गांधीजी के बारें में अंकित है कि गांधीवाद भारत के उन बड़े बुर्जुआ वर्ग के हाथों में सैद्धांतिक हथियार बना जो सामन्तवादी जमींदार और पूंजीपतियों से सम्पर्क रखते है।

एशियायी देशों में रूसी हितों के लिए जब रूसी नेताओं ने गांधीजी की प्रशंसा करनी प्रारंभ कर दी तो भारत के कम्युनिस्टों की स्थिति हास्यास्पद बन गई। नेहरू सरकार की हमजोली बनने की रूसी नीति से वे इंकार नहीं कर सकते थे किंतु वे गांधी से अधिक अपने आप को माक्र्स और लेनिन के प्रति समर्पित बनाये रखना जरूरी समझते थे।

13 COMMENTS

  1. रामदास सोनी आपके विचार पढ़े. आज भलीभांति लोग इस बात को समझने लगे हैं. भारतीय कोम्मुनिस्तों का खेल कई एंगल से है. बौद्धिकता के लिए विदेशी स्रोतों पर निर्भर हैं. कोम्मुनिस्म को जिन्दा रखने के लिए अल्पसंख्यकों को साथ लेकर चलते हैं. क्योंकि अल्पसंख्यक बेहतरीन वोट बैंक हैं. नास्तिकता कोम्मुनिस्तों का सिद्धांत है इसके लिए हिन्दू धर्म को कोसते हैं. यदि उन्होंने हिन्दू धर्म का गुणगान शुरू कर दिया तो इस क्षेत्र के बड़े खिलाडी आर एस एस से मात मिलनी तय है. हिन्दू धर्म की बुरे से जो क्षति होती है इसकी काट में हिन्दुओं को जाति और वर्ग, गरीब और अमीर में बाँट दिया जिससे धर्म की डोर को कमजोर किया जा सके. इन्होने पूरा का पूरा इतिहास अपने हिसाब से लिख डाला. दिल्ली की सत्ता में इनकी हमेशा पकड़ रही और आज भी इनका कोई बाल भी बांका नहीं कर पता. एक अकेली शख्शियत सिर्फ मुरली मनोहर जोशी रहे हैं जो इनके प्रबल विरोधी रहे हैं और जिनके समय इनकी दाल नहीं गली. ये कोम्मुनिस्ट वैसे तो केरल और बंगाल तक सीमित हैं, लेकिन सत्ता में अदृश्य कोम्मुनिस्ट हमेशा रहते हैं और ये सत्ता के निर्णय को प्रभावित करते हैं.
    ये कोम्मुनिस्ट काफी शानो शौकत की जिंदगी गुजरते हैं.

  2. Soniji ka aalekh aur anya mahaanubhaaon ki tipniyan padh kar aisa lagaa ki aaj bhi log Gandhi aur Gandhibaad ko gaahe bagaahe yaad kar lete hain,nahi to Gandhi aur Gandhibaad ki hatyaa to kab ki ho chuki hai. Gandhi Sahitya aur Gandhi vchaardharaa kewal sangrahaalayon ki shobha maatra rah gayaa hai.
    Gandhi ke sharir ki hatya 30 Jan.1948 ko ek hindu sabhaai dwara ki gayee,par Gandhibad ki hatya uske bahut pahle aur kamse kam swantrataa prapti ke baad to shuru ho gayee thee.Azaadi ke baad mujhe to nahi pataa ki kisine byaktigat ya saamuhikk roop mein Gandhi ke padchinho par chalne ki koshish ki.Vinoba Bhave shaayad ekmaatra apawaad the.
    Aaj ke sandarbh mein Gandhi aur Gandhibaad par charchaa bhi,mere vichaar se bemaani hai.Nathu Raam ne to Gandhi ki hatya ek baar ki thee,par Bhaarat ka har vyakti,gandhi ki hatya baar baar kartaa rahaa hai.Aaj yah bemaani ho gayaa hai ki kamyuniston ki vichaardhaaraa kya rahi hai aur anya log kya kahte aur karte rahe hain. Main to itnaa hi jaanataa hoon ki hamaam mein sab nange hain aur Gandhi aur Gaandhibaad ki hatya ke doshi hain.Agar vishwaas nahi ho to apne aaine se poochh lijiye.

  3. माननीय श्रीराम तिवारी जी तस्वीर में आपकी शक्ल मुस्कुराते हुए है,किन्तु जो बौखलाहट आपकी टिप्पणियों में दिख रही है उसे कैसे छिपाएंगे???

    और आप ये तो कतई न कहें कि आपकी सभी धर्मों में आस्था है. ऐसा होता तो आपके श्री मुख से हम कभी कभी हिन्दुओं का भी भला सुन लेते, किन्तु आपकी भक्ति या तो कश्मीर में बैठे स्वतंत्रता सेनानियों (कम्युनिस्ट की नज़र में) को या फिर हमारी भूमि को धोखे से हज़म कर जाने वाले चीन को समर्पित है. आपकी टिप्पणियों में मैंने तो आज तक कभी भी राष्ट्र वादी भावना को नहीं देखा. जब भी कभी कोई माननीय लेखक कभी कुछ अच्छा लिखते हैं तो आप हमेशा विषय को भटकाते हैं. कुछ अच्छा करने की सोचो तो पचास कमियाँ पहले से तैयार रखते हैं. किसी लेखक ने कहा कि पाकिस्तान को सबक सिखाना होगा तो आप कहते हैं पहले देश के अंदर की कमियां दूर करो. तो क्या जब तक पूर्ण रूप से भ्रष्टाचार जैसी कमियाँ ख़त्म न हो जाये तब तक हमें सीमाओं की सुरक्षा के बारे में सोचने की अनुमति नहीं है???
    हमारे मन ने हिन्दू मुस्लिम जैसी कोई चीज़ कभी आई भी नहीं थी. हम तो सहिष्णू हैं न, किन्तु याद रहे हमारी सहिष्णुता को हमारी कमजोरी समझने की भूल न करें.

    और आप किसी पार्टी के प्रायमरी मेम्बर हो या न हो सोच से तो आप वामपंथी हैं न.

    दूसरी बात यदि आपको प्रवक्ता.कॉम से इतनी ही शिकायत है कि आपने इसके सार्वभौमिक रूप को दिखावे का कह दिया तो आप क्यों व्यर्थ में अपना समय खराब कर रहे हैं प्रवक्ता.कॉम पर. यहाँ दो चार नहीं अधिकतर सभी विद्वान ही हैं, किन्तु दो चार ऐसे भी हैं जो इन विद्वानों की विद्वानता को कभी समझ ही नहीं सकते, क्या कर सकते हैं वामपंथी गहरी नींद में जो हैं.

    मार्क्सवाद या साम्यवाद वैज्ञानिक दर्शन होगा तो क्या रामचरित अज्ञानियों की खोज है. जब हमारे देश में इन विदेशियों से बड़े रोल मॉडल हमारे सामने हैं तो हम तो उनमे ही आस्था रखेंगे न कि इन विदेशियों में.
    मै जानता हूँ कि मेरी यह टिप्पणी विषय से भटक गयी है किन्तु आपकी कमजोरी को देख कर मैंने ऐसा किया. लेनिन,माओ जैसे लोग महान थे, वे अपने देश के महान क्रांतिकारी थे, उन्होंने अपनी मातृभूमि के लिये महान संघर्ष किया होगा, किन्तु ये तो उनके देश का मामला है हम क्यों जबरदस्ती उन्हें फोल्लो करें जबकि हमारे सामने महानतम उदाहरण हैं, और वे ही हमारे नायक हैं.

    इसलिए हे माननीय कृपा करके अपनी इस विदेशी विचारधारा को अपने पास ही रखें हमारा देश इनके भरोसे नहीं चलेगा. और अपने क्रोध को वश में रखें आपकी सेहत के लिये अच्छा है.आशा है आप को मेरा भावार्थ समझ आया हो,नहीं तो राम ही भला करे…जय हिंद…

  4. सौ सुनार की एक लुहार की -शाब्दिक बाजीगरी के बजाय सिर्फ पांच यक्ष प्रश्न –
    जिसका इमान जिन्दा हो ,जिसे सत्य में निष्ठां हो वही उत्तर दे –
    एक -गांधीजी को गोली मारने वाले व्यक्ति की विचारधारा और आप लोगों की विचारधारा में क्या अन्तर्सम्बंध हैं ?
    दो -दुनिया में जिस देश में साम्यवादी क्रांति हुई उस देश की ताकत बढ़ी या नहीं .
    तीन – मार्क्सवाद -साम्यवाद एक वैज्ञनिक और प्रगतिशील दर्शन है या नहीं ?
    चार -यदि २००४ के चुनाव उपरान्त -माकपा +भाकपा +आर एस पी +फारवर्ड ब्लोक = =वामपंथ यदि कांग्रेस नीत यु पी ऐ को बाहर से समर्थन न देता और भाजपा को देता तो एन डी ऐ की -अटल जी आडवानी जी के नेत्रत्व में सरकार बनती की नहीं ?
    पांच-भारतीय उपनिषदों में वर्णित कार्य -कारन -सिद्धांत और मार्क्स द्वारा अनुप्रमाणित द्वंदात्मक एतिहासिक भौतिकवाद में समानताहै या नहीं ?
    कोई भी विचार या दर्शन जिसके आप ककहरा भी न जाने और उस पर अटकल पंचू आलेख जड़ते रहें यह पढ़े लिखे लोग -इमानदार लोग और कोई भी ऐसा व्यक्ति जो शोषण -अन्याय -उत्पीडन का समर्थक न हो -कभी भी स्वीकार नहीं करेगा ..में जानता हूँ आप सभी किस घाट का पानी पीते हो किन्तु में हर धर्म -हर मजहब को प्यार करता हूँ आपलोगों जैसा घृणा फ़ैलाने वालों में से नहीं हूँ .मैं किसी राजनेतिक पार्टी का प्रायमरी मेंबर भी नहीं हूँ किन्तु अपने आपको एक स्वतंत्र अध्येता के रूप में हर तरह के अन्याय का प्रतिकार करना अपना कर्तब्य समझकर इतनी टिप्पणी की है .प्रवक्ता .कॉम का भी यही रवैया रहा तो इसका सर्वभोमिक रूप -दिखावे का ही सही -नष्ट हो जाएगा .फिर आप दो चार परम विद्वान ही अपनी अद्जल गगरी झलकते हुए एक दुसरे की की shan में चारण -bhaaton की bhoomika ada karte rahana.

    • ऐसे बहुत से यक्ष प्रश्न कम्युनिस्टों के लिए भी हैं:- नेताजी को तोजो का कुत्ता किसने कहा? ६२ की लडाई मे चीन का समर्थन किसने किया? आपातकाल का समर्थन किसने किया? सिंगूर मे जो लोग पुलिस की गोली का शिकार हुए वो कितने बडे पूंजीपति थे? सर्वहारा वर्ग की बात करने वाले पाँच सितारा होटलों मे अपने सम्मेलन रखने के पैसे किनसे पाते हैं?

  5. शह और मात के खेल में कम्युनिस्ट सदा ही आगे रहते हैं। इतिहास के प्रसंग इसके गवाह हैं। वे अपने निर्लज्जतापूर्ण राष्ट्रघात को भी “ प्रगतिशील” काम मान लेते हैं। कांग्रेस ने 1920 में खिलाफत का समर्थन करने की ऐतिहासिक भूल की थी तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पाकिस्तान की राष्ट्रीयता पर सबसे पहले अपनी मुहर लगाकर अंधीदौड़ में कांग्रेस को मीलों पीछे छोड़ दिया था। पार्टी के मुखपत्र “पीपुल्स वार” ने 29 नवम्बर 1942 के संपादकीय में मुसलमानों को अपनी राष्ट्रीयता निर्धारित करने के अधिकार की वकालत की थी। एक मार्क्सवादी समाजशास्त्री हमजा अल्वी ने मुशीरुल हसन (जामिया के पूर्व कुलपति) को लिखे पत्र में रहस्योद्घाटन किया था कि कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने छात्र संगठन आल इंडिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन को निर्देश दिया था कि वह मुस्लिम लीग के छात्र संगठन आल इंडिया मुस्लिम स्टूडेन्ट्स फेडरेशन में विलय हो जाए ताकि पाकिस्तान आंदोलन को गति देने में पूर्ण सहयोग हो। कम्युनिस्टों के राष्ट्र-द्रोह की यह प्रवृत्ति कभी नहीं मरी। 1971 में बंगलादेश का प्रश्न इसका उदाहरण है। तब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) एवं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) में तकरार थी। भाकपा ने माकपा के चरित्र का पर्दाफाश 9 मई 1971 के अपने मुखपत्र “न्यू एज” के संपादकीय में किया था। माकपा की बंगाल इकाई का नारा था- “इंदिरा-याहिया एक हैं।” यहिया खान तब पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे। माकपा ने अपने मुखपत्र “पीपुल्स डेमोक्रेसी” के 11 जुलाई 1971 के संपादकीय में भारत सरकार को चेताया था कि वह पूर्वी पाकिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप न करे और उस संकट के लिए भारत सरकार को कठघरे में खड़ा किया था। बुद्धदेव भट्टाचार्य इसी कुनबे के राजनेता हैं जिसके लिए भारत की एकता, अखंडता, संविधान के मूल्यों की कोई अहमियत नहीं है। भाकपा भी दूध की धुली नहीं है। भारत को एक राष्ट्र मानना इसके स्वभाव में ही नही है। इस पार्टी के महासचिव स्व. राजेश्वर राव ने तो अक्तूबर 1975 में ही मुसलमानों को रोजगार में आरक्षण देने की मांग की थी। इन दोनों पार्टियों ने उर्दू एवं मुसलमानों के प्रश्न पर जितने प्रस्ताव पारित किए हैं, वे सर्वहारा के प्रश्न को भी पीछे छोड़ जाते हैं। उनके दस्तावेजों का यदि “इंडेक्सीकरण” किया जाए तो “संस्कृत” भाषा का नाम एक बार भी नहीं आ पाएगा। सच हमेशा कड़वा होता है किंतु यदि ग्रहण करने योग्य है तो नामुराद बीमारी को ठीककरने के लिए नीम और गिलोय भी चबानी पड़ती है इसलिए मेरे वामपंथी मित्रों से मेरा निवेदन है कि वे लेखों को पढत्रकर अपना आत्म संयम ना खोवें बल्कि आत्म चिंतन करें कि कि क्या हम वास्तव में भारत में रहकर भी भारत के लिए क्या कर सकते है।

    • agar sachhe man se socho to marx is vishv ka sabse mahan vyktitv tha jisne apne vichardhara ke liye sachchai ka sahara liye usne garibo k adhikaro k liye jitna socha r.s.s uske.01 ke barabar nahi kiya haisirf desh ko brahmanwad me dhakelne k siva .desh me samajik buraiyo ke karndhar

  6. हिंसा, असहनशीलता, कट्टरपंथी स्वभाव, भारतीय संस्कृति से घृणा, राष्ट्रवादी संस्थाओं के विरुद्ध विष वमन ; ये सब क्रिस्तीयों और वामपंथियों के स्वाभाविक दुर- गुण हैं. उपरोक्त लेख से बौखलाए हमारे वामपंथी मित्र अपनी असलियत को छुपा नहीं सके और तर्कशील जवाब देने के बजाये शाब्दिक हिंसा पर उतर आये. मुकुराते चेहरे के साथ वास्तविकता दर्शाने वाला कथन.
    – कटुकथन हम सब के स्वभाव में नहीं, पर क्या करें ; देश , धर्म, संस्कृति व राष्ट्र विरोधी ताकतों के साथ जी- जनाब की भाषा बोलने की मूर्खता तो नहीं की जा सकती न. जो मेरे भारत भारतीयता का शत्रु है वह मित्र कैसे हो सकता है.
    – फिर भी ईश्वर से प्रार्थना है की वे इन लोगों को सदबुद्धी दे और ये अपनी जड़ों को खोदने की नासमझी करना बंद करें.

  7. कम्युनिश्टो की भाषा व विचार हमेशा से असभ्य रहे है उसका पता तो यहा आये कोमेन्ट से पता चल जाता है.
    जो लोग सुभाषा बाबु को अपने मुख पत्र मे गालिया बकते है,४२ मे देश मे हडताल को फ़ैल करने कि कोशिश करते है,देशभक्तो के नाम और पते जा जाकर अन्गेरेजो को देने वाले,पाकिस्तान को बौधिक आधार देने वाले,बाबासहाब अम्बेडकर,सावरकर,गाँधि जैसे महान पुरुषो के द्वारा आलोचित,६२ मे देश के साथ गद्दारि करने वाले,पुर्व सोवियत के हित मे राष्ट्र हित को गौण समझने वाले,मुर्ख कांग्रेस(आइ) के कन्धो को इस्तेमाल कर विक्रित इतिहास को जन मानस मे बताने वाले और भी ना जने कितने पाप इन लोगो के सरो पर चढे है,लेकिन आज ये लोग जिस माओवाद या नक्सल्वाद को कोस रहे है उसके जनक ये खुद है,ये लोग जानबुझ कर समाज को गरिब,अशिक्षित और पीडित रखते है,रोजगार को हडताले कर कर भट्टा बैठाते ताकि बेकार युवक इनके कैडर बन सके,और उन मुर्ख कैडरो से सत्ता हथियाना बडा आसन हो जाता है.
    १.क्या यह विचारणिय प्रश्न नही है कि वर्षो तक बंगाल मे सत्त होने के बाद भी वहा इतनी गरिबि क्यो है??
    २.जिस नक्सल्वाद को कोसा जाता था उसको संरकक्षण देकर पुरे भारत मे फ़ैलाने कि कोशिश जिन लोगो ने की थि,आज जब वह भस्मासुर बन कर उन्हे ही निगल जाना चाहता है तो क्या ये लोग अपनी जिम्मेदारि से बच सकते है?
    ३.समाज के अंदर व्यभीचार,अनाचार को जैसि मान्यता इन लोगो से कुत्र्को से देने की कोशिश हुयी है क्या भारतिय समाज इसे अनदेखा कर देगा??
    ४.जब भी कोयी इनसे भीन्न विचार रखता है तो उसे बुज्रुवा करकर उसके तर्को को उत्तर नही देते है,एसा व्यवहार करते है मानो पुरे विश्व मे एक्मात्र ग्यान तो मार्क्स का है और जो उसे जानता है वो ही ग्यानी है,उससे भीन्न तो मुर्ख है.
    मुश्किल ये है कि आज इनके पास जमिन नही है,इनके सभी क्षैत्रो पर हिन्दु विचार स्थापित हो चुका है केवल मीडिया मे इनकी घुसपैठ हि चन्द वर्षो मे वहा भी पत्ता साफ़ हो जायेगा,अत: इन्को अपना इक मात्र शत्रु हिन्दु विचार ही नजर आता है,और इटली छाप कान्ग्रेस भी ये सोचति है कि चलो कोयी नही तो ये ही सही,जब कान्ग्रेस पारिवारिक दुकान्दारि बन गयि तब ही ये लोग हावी हुवे थे,आज भी कान्ग्रेस उसि राह पर है।
    इस देश को आगे बढने के लिये कान्ग्रेस का वन्शवादी प्रेत से छुटकारा आवश्यक है और भाजपा और अन्य राट्रियता वाली पार्टियो का सही विचार और उत्र्क्रिश्ट ध्येय से राजनिति करना भी आव्श्यक है………………………..

  8. यह भ्रामक प्रचार करने से अब कुछ होने -जाने बाला नहीं .गरीबों -मजदूरों -अनाथों का शोषण करने वाले तो आप नहीं लगते .आप शकल सूरत से पूंजीपति या अमरीका के दल्ला नहीं लगते .फिर भी आपको स्मरण करा दूँ की आप नाहक ही उनके लिए हलकान हुए जा रहे हैं जो गांधीवाद का अंत करने के लिए जिम्मेदार हैं -जैसा की आप ने फ़रमाया ,इ सचाई तो आपने बखान ही दी ,बदमाशी ये की है की जहां -जहां कमुनिस्ट लिखा है -वहां -वहां’ संघ ‘ कर दें .नाथूराम गोडसे मार्क्सवादी था ?जिन्होंने सारी जिन्दगी अंग्रेजों .कांग्रेस .जनसंघ .हिन्दू महा सभा और भृष्ट राजे रजवाड़ों की जूठन चांटी ऐसे मक्कारों से देशभक्ति का पाठ जो सीखे उसे धिक्कार है .
    आकंठ पाप पंक में डूबे महाभ्रष्ट बेईमान इभूल जाते हैं की यही निर्धन सर्वहारा पेट पालने के लिए -खेतो में खदानों में और देश की सीमाओं पर अपना सर्वस्व न्योछावर करता है व ही देश की सर्वहारा जनता में से कुछ मुठ्ठी भर थे वे भी अब तुम्हारी आँखों में खटक रहे है .वे तो ६० साल में केरल -त्रिपुरा और बंगाल से आगे ही नहीं बढ़ प् रहें हैं उनकी चिता छोडो और गांधीवाद यदि ख़तम हो गया तो आप क्यों रंडापा रो रहे आपके तो मन की ही हुई न .अब आप निष्कंटक शौक से हिटलर -मुसोलनी को अपना …..बना लें या इतिहास के कूड़ेदान से एक अदद ऐयाश चक्रवर्ती ढूडलें .ऐसे समय में जबकि देश के अन्दर -बाहर चरों ओर संकट है तब भारत की सभी जिम्मेदार देशभक्त ताकतें एकजुट शक्ति निर्माण करने का संधारण कर चुकी हैं तब प्रवक्ता .कॉम पर ऐसे घटिया आलेख क्या बाकई राष्ट्र निर्माण के योग्य हैं .

    • फिदेल कास्त्रो से बडा अय्याश कहाँ मिलेगा जिस पर उसकी बेटी ने ही आरोप लगाए हैं।

  9. अंग्रेजों की भक्ति करने वाले, स्वतंत्रता संग्राम का विरोध करने वाले, भारत की आजादी का विरोध करने वाले, 1962 में चीनी आक्रमण का समर्थन करने वाले और देश में हिन्दुत्व का सर्वाधिक विरोध करने के साथ-साथ नंदीग्राम, सिंगुर, सोनाचूरा में निर्दोषों के खून से बंगाल की धरती को लाल करने वालों से आप क्या उम्मीद कर सकते है। जो भी राजनीतिक पार्टी भारत के बाहर से प्रेरणा प्राप्त करती है उसे सभी भारतीयों को मिलकर बंगाल की खाड़ी में फेंक देना चाहिए। आपने अपने लेख में कम्युनिस्टों के बारें में जो बयान किया है उसके बारें में आगे भी जानने की इच्छा रहेगी, धन्यवाद

  10. श्री रामदास सोनीजी, कामरेडो द्वारा अपनी सुविधा के हिसाब से किसी भी बात की व्याख्या करना और जनता को गुमराह करने का प्रयास करना कोई नया बात नहीं है। भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए प्रेरणास्त्रोत माने जाने वाले महात्मा गांधीजी के बारें में अलग-अलग समय पर अपने विदेशी आकाओं के इशारें पर जो टिप्पणियां कम्युनिस्टों ने की है, उसका ख्ुालासा लेख में अच्छे ढ़ंग से किया गया है। किसी को भी गाली देकर जनाक्रोश से बचने के लिए या किसी भी महान व्यक्ति को लांछित करने के प्रयास में विफल रहने पर गिरगिट से भी तेजी से कैसे रंग बदला जा सकता है यह तो कोई कम्युनिस्टों से सीखे। सारगर्भित और संग्रहणीय लेख के लिए धन्यवाद

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