महात्मा जी की हत्या के हालात और जांच में पक्षपात

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                             मनोज ज्वाला
     महात्मा गांधी की हत्या  के मामले की अदालती प्रक्रिया का पटाक्षेप
दशकों पूर्व किया जा चुका है । दोषियों को सजा भी दी जा चुकी है । किन्तु
, उस हत्याकांड से जुडे कई ऐसे पहलुओं की तो जांच ही नहीं की गयी या करने
नहीं दी गयी , जिनसे कुछ विशिष्ट लोग भी दोषी सिद्ध हो सकते थे । उनकी
हत्या के षड्यंत्र की जानकारी तत्कालीन कांग्रेसी सरकार और कांग्रेस के
तमाम बडे नेताओं सहित प्रशासन के बडे अधिकारियों को भी थी । तब भी
महात्माजी की सुरक्षा के प्रति सरकारी अमला की उदासीनता से कई ऐसे संदेह
उत्पन्न होते हैं, जिन पर गौर करने से दोषियों की संख्या बढ सकती है और
उस फेहरिस्त में दो ऐसे नाम भी जुड सकते हैं , जो भारत व इंग्लैण्ड दोनों
देशों में अति विशिष्ट नाम हैं ।
            उल्लेखनीय है कि हत्या की तारिख से दस दिन पहले २० जनवरी
१९४८ को भी गांधीजी को मार डालने के लिये दिल्ली स्थित बिड्ला भवन के
उनके प्रार्थना-स्थल के निकट एक बम फटा था, जिससे गांधीजी बाल-बाल बच गये
थे, जबकि बम रखनेवाला मदनलाल पाहवा नामक शरणार्थी गिरफ्तार कर लिया गया
था । पाहवा ने षड्यंत्र का खुलासा करते हुए   पुलिस को जो नाम बताये थे,
उनमें से प्रत्येक को दिल्ली-बम्बई-पूणे की पुलिस जानती थी और उन्हीं
लोगों ने बाद में गांधी-हत्या को अंजाम भी दिया । किन्तु , जिन लोगों को
उस षड्यंत्र की पूर्व जानकारी मिल गयी थी और जो लोग उसे नाकाम कर देने
में सक्षम थे, उनने देश-विभाजन से उत्पन्न खतरनाक खूनी हालातों से जूझ
रहे महात्माजी को पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध कराने की कोई पहल की ही नहीं ।
और तो और , बिडला भवन-परिसर में उनकी सुरक्षा पर तैनात पुलिस-अधिकारी को
भी ३० जनवरी के दिन किसी प्रशासनिक बैठक के बहाने वहां से हटा दिया गया
था । बावजूद इसके, षडयंत्र के इन तमाम जानकारों को जांच की परिधि से बाहर
और संदेह के दायरे से दूर ही रखा गया ।  हत्या को विफल कर देने में सक्षम
ये वे लोग थे ,जो  गांधीजी की तत्कालीन रीति-नीति एवं योजना  के कारण
उनके प्रबल विरोधी बने हुए थे ।
               मालूम हो कि महात्मा जी  के महात्म के सहारे सत्ता के
शीर्ष पर पहुंच कर जवाहरलाल ने  उनके सपनो का “हिन्द-स्वराज” कायम करने
से बेरुखीपूर्वक नकार दिया था । नाराज गांधी ने आजादी के बाद मंत्रिमंडल
में शामिल कांगेसियों के भ्रष्टाचरण पर क्षोभ जताते हुए जब यह सिफारिश कर
दी कि  “ देश को आजादी दिलाने का उद्देश्य पूरा हो गया , सो अब कांग्रेस
का एक राजनीतिक-संगठन के रुप में बने रहना उचित नहीं है , क्योंकि देश
में हरिजनोद्धार व ग्रामीण-पुनर्निंर्माण के अनेक महत्वपूर्ण काम करने
योग्य हैं , इसलिए कांग्रेस को भंग कर उसे  ‘लोकसेवक संघ’ बना दिया जाये
, तब भी कांग्रेस-अध्यक्ष नेहरु ने क्षोभ के साथ उनकी अवहेलना कर दी ।
क्षुब्ध नेहरु के रवैये से दुःखी महात्मा जी कांग्रेस के विसर्जन की
घोषणा ३० जनवरी को स्वयं अपनी प्रार्थना-सभा में करने की योजना बना चुके
थे । वे कांग्रेस के क्रिया-कलापों से असहमत रहने लगे थे और सत्तासीन
कांग्रेस की कार्य-संस्कृति में घुस आये भ्रष्टाचार की सार्वजनिक मुखालफत
भी करने लगे थे । इतना ही नहीं , बल्कि वे कुछ समय पहले से राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के स्पृश्यता-रहित समाज-निर्माण के कार्यों से प्रभावित हो
उसकी ओर झुकाव भी रखने लगे थे । २५ दिसम्बर १९३४ को वे वर्धा में आयोजित
संघ के प्रशिक्षण शिविर में और १६ सितम्बर १९४७ को दिल्ली की भंगी बस्ती
में लगी संघ-शाखा पर जाकर उसकी कार्य-शैली की प्रशंसा भी कर चुके थे ।
ऐसे हालातों में आप समझ सकते हैं कि महात्मा जी का जीवन किन्हें
स्वीकार्य नहीं था ? जिस संगठन को वे भंग कर देने की सिफारिश कर दिये थे
उसके नेता को ? या जिस हिन्दुत्वनिष्ठ-संगठन की ओर उनका झुकाव होने लगा
था उस हिन्दुत्व के प्रवक्ता-कार्यकर्ता को ?
          बावजूद इसके , महात्माजी के जीते-जी उनकी नीतियों की हत्या
करनेवालों ने उनकी शरीर-हत्या हो जाने पर  राजनीतिक लाभ लेने हेतु शासनिक
शक्ति के सहारे सावरकर और संघ का नाम आरोपित करवा दिया  । परिस्थिति-जन्य
साक्ष्य बताते हैं कि कांग्रेस का सत्ता-लोलुप शीर्ष नेतृत्व और उसके
हाथों सत्ता हस्तांतरित करने वाले ब्रिटिश वायसराय,  दोनों को महात्माजी
दो कारणों से चूभ रहे थे । एक को कांग्रेस भंग कर देने की उनकी योजना के
कारण , तो दूसरे को देश-विभाजन की रेखा मिटा देने की उनकी तैयारी के कारण
। जबकि , महात्माजी के अस्तित्व , व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व से
हैरान-परेशान एक तीसरी शक्ति भी ऐसी थी , जो इन दोनों को नियंत्रित करती
थी । वह थी- ईसाई-विस्तारवाद के खतरनाक वैश्विक संजाल से जुडी
चर्च-मिशनरियां, जिनकी धर्मान्तरणकारी गतिविधियों के बावत गांधीजी उन्हें
हमेशा बेनकाब करते रहते थे  ।
           महात्माजी अपनी प्रखर विवेचनाओं से ईसाइयत को तार-तार करते
हुए ईसा मसीह को ‘ईश्वर का इकलौता पुत्र’ मानने से इंकार कर  धर्मान्तरण
को मानवता के विरूद्ध जघन्य अपराध  घोषित करने एवं उसे कानूनन बन्द करने
की वकालत करते रहते थे । वे प्रायः कहा करते थे- “ईसाई-मिशनरियां जिस तरह
से धर्मान्तरण का काम कर रही हैं, उस तरह के काम का कोई भी अवसर उन्हें
स्वतंत्र भारत में नहीं दिया जाएगा” ।  आप समझ सकते हैं कि
ईसाई-मिशनरियों से महात्माजी का कितना विरोध-वैर था । वे तो चर्च का धंधा
ही समाप्त कर देने पर तुले हुए थे । यह इससे भी स्पष्ट होता है कि समाज
के जिन अछूतों-वंचितों के बीच मिशनरियां सक्रिय थीं, उन्हीं के बीच उनके
उद्धार का काम करने के निमित्त महात्मा जी कांग्रेस को भंग करने और उसे
‘लोक सेवक संघ’ बनाने की तैयारी में लगे थे । अगर ऐसा हो जाता, जो उनके
जीवित रहने पर कदाचित सम्भव था, तो फिर मिशनरियां कहां रहतीं, किसका
धर्मान्तरण करती ? ऐसे में महात्माजी की हत्या के मामले की जांच में इस
तथ्य पर भी गौर किया ही जाना चाहिए था, जो नहीं किया गया कि उनका शत्रु
आखिर कौन था और किस विचार-मिशन-संगठन से उनका प्रबल विरोध-वैर था ? ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से उनका कोई  विरोध नहीं था, बल्कि वे तो उन
दिनों संघ के निकट होते जा रहे थे । संघ की मुख्य विचारधारा-‘हिन्दूत्व’
के तो वे प्रशंसक ही थे, तभी तो उन्होंने कहा है- “मेरी दृष्टि में
हिन्दूत्व, सत्य व धर्म– ये तीनों परस्पर एक दूसरे के स्थान पर रखे जा
सकने योग्य हैं । …..हिन्दूत्व सर्वव्यापी है , सर्वसमावेशी है । विश्व
में जहां कहीं, जो कुछ भी धर्म का रुप होगा, वह समस्त धर्म-रुप हिन्दू
धर्म में भी विद्यमान है और जो धर्म-रुप हिन्दूत्व में हो ही नहीं, वह
विश्व में कहीं नहीं हो सकता ”  –(सम्पूर्ण गांधी वाङ्ग्मय, खण्ड-५६)
नत्थू राम गोड्से ने भारत-विभाजन के जिन हालातों से उत्तेजित हो कर
महात्माजी की हत्या की थी, वे हालात हत्या के तात्कालिक कारण हो सकते
हैं, किन्तु यह भी ध्यातव्य है कि उनकी हत्या की कोशिशें सन १९३४ से ही
हो रही थीं, जब कायदे से पाकिस्तान की मांग भी नहीं उठी थी , नेहरू-गांधी
के बीच कोई खट-पट भी नहीं थी । तो आखिर कौन लोग उनकी हत्या के लिए तब से
सक्रिय थे ? इस यक्ष-प्रश्न का भी उतर खोजा ही जाना चाहिए ।
         मालूम हो कि महात्माजी देश-विभाजन से इस कदर मर्माहत थे कि वे
विभाजन-रेखा मिटा देने के लिए एक विशाल जुलूस लेकर पाकिस्तान जाने , वहां
कुछ दिन रहने और फिर लम्बे जुलूस के साथ भारत वापस आने की एक गुप्त योजना
के क्रियान्वयन की तैयारी कर चुके थे । उनकी इस योजना का संक्षिप्त
खुलासा ‘लॉपियर एण्ड कॉलिन्स’ की पुस्तक ‘फ्रीडम ऐट मिडनाइट’ में हुआ है
, जिसके अनुसार अगर वे सफल हो जाते , तो विभाजन मिट सकता था । ऐसी
परिस्थितियों में कदाचित माऊण्ट बैटन और नेहरू दोनों ही महात्मा को भारत
के राजनीतिक क्षितिज से दूर कर देने की जुग्गत में रहे हों , जिन्हें
गोडसे की योजना का पता चला , तो वे अप्रत्यक्ष रूप से उसे सफल हो जाने की
तमाम अनुकूलतायें उपलब्ध करा दिए हों ; इस सम्भावना से इंकार नहीं किया
जा सकता है । यह भी गौर-तलब है कि माउण्ट बैटन की पत्नी उन
चर्च-मिशनरियों से जुडी हुई थी, जो महत्मा जी से वैर भाव रखती थीं और
ईसाई-विस्तारवाद के मार्ग में बाधक बने लोगों को परोक्ष तरीके से ‘लास्ट
जजमेण्ट’ सुना देने के लिए कुख्यात रही थीं । किन्तु इन सब कोणों से
हत्या-मामले की जांच निष्पक्ष हुई ही नहीं और जांच-प्रक्रिया को
पक्षपातपूर्ण तरीके से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर घुमा कर दिग्भ्रमित
कर दिया गया ।
•        मनोज ज्वाला 

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